शुक्रवार, 4 मई 2018

👉 इंसान और भगवान

🔶 एक बार एक गरीब किसान एक अमीर साहूकार के पास आया, और उससे बोला कि आप अपना एक खेत एक साल के लिए मुझे उधार दे दीजिये। मैं उसमें मेहनत से काम करुँगा, और अपने खाने के लिए अन्न उगाऊंगा।

🔷 अमीर साहूकार बहुत ही दयालु व्यक्ति था। उसने किसान को अपना एक खेत दे दिया, और उसकी मदद के लिए 5 व्यक्ति भी दिए। साहूकार ने किसान से कहा कि मैं तुम्हारी सहायता के लिए ये 5 व्यक्ति दे रहा हूँ, तुम इनकी सहायता लेकर खेती करोगे तो तुम्हे खेती करने में आसानी होगी।

🔶 साहूकार की बात सुनकर किसान उन 5 लोगों को अपने साथ लेकर चला गया, और उन्हें ले जाकर खेत पर काम पर लगा दिया। किसान ने सोचा कि ये 5 लोग खेत में काम कर तो रहे हैं, फिर मैं क्यों करू? अब तो किसान दिन रात बस सपने ही देखता रहता, कि खेत में जो अन्न उगेगा उससे क्या क्या करेगा, और उधर वे पाँचो व्यक्ति अपनी मर्जी से खेत में काम करते। जब मन करता फसल को पानी देते, और अगर उनका मन नहीं करता, तो कई दिनों तक फसल सुखी खड़ी रहती।

🔷 जब फसल काटने का समय आया, तो किसान ने देखा कि खेत में खड़ी फसल बहुत ही ख़राब है, जितनी लागत उसने खेत में पानी और खाद डालने में लगा दी खेत में उतनी फसल भी खेत में नहीं उगी। किसान यह देखकर बहुत दुखी हुआ।

🔶 एक साल बाद साहूकार अपना खेत किसान से वापिस माँगने आया, तब किसान उसके सामने रोने लगा और बोला आपने मुझे जो 5 व्यक्ति दिए थे मैं उनसे सही तरीके से काम नहीं करवा पाया और मेरी सारी फसल बर्बाद हो गयी। आप मुझे एक साल का समय और दे दीजिये मैं इस बार अच्छे से काम करूँगा और आपका खेत आपको लौटा दूँगा।

🔷 किसान की बात सुनकर साहूकार ने कहा- बेटा यह मौका बार बार नहीं मिलता, मैं अब तुम्हें अपना खेत नहीं दे सकता। यह कहकर साहूकार वहाँ से चला गया, और किसान रोता ही रह गया।

🔶 मित्रो अब आप यहाँ ध्यान दीजिये

🔷 वह दयालु साहूकार “भगवान” हैं। गरीब किसान “हम सभी व्यक्ति” हैं। साहूकार से किसान ने जो खेत उधार लिया था, वह हमारा “शरीर” है।

🔶 साहूकार ने किसान की मदद के लिए जो पांच किसान दिए थे, वो है हमारी पाँचो इन्द्रियां “आँख, कान, नाक, जीभ और मन”

🔷 भगवान ने हमें यह शरीर अच्छे कर्मो को करने के लिए दिया है, और इसके लिए उन्होंने हमें 5 इन्द्रियां “आँख, कान, नाक, जीभ और मन” दी है। इन इन्द्रियों को अपने वश में रखकर ही हम अच्छे काम कर सकते हैं ताकि जब भगवान हमसे अपना दिया शरीर वापिस मांगने आये तो हमें रोना ना आये।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 5 May 2018


👉 आज का सद्चिंतन 5 May 2018


👉 सद्विचारों द्वारा जीवन लक्ष्य की प्राप्ति

🔶 प्रत्येक मनुष्य अपने विचारों द्वारा ही अपना आत्म निर्माण करता है। क्योंकि विचार का बीज ही समयानुसार फलित होकर गुणों का रूप धारण करता है और वे गुण, मनुष्य के दैनिक जीवन में कार्य बनकर प्रकट होते रहते हैं। विचार ही वह तत्व है जो गुण, कर्म, स्वभाव के रूप में, दृष्टिगोचर होता है। मन, कर्म, वचन में विचारों का ही प्रतिबिम्ब सदा परिलक्षित होता रहता है।

🔷 मानव मनोभूमि में सत् और असत् दो प्रकार के संकल्प काम करते रहते हैं। भलाई और बुराई दोनों ही ओर मन चलता रहता है। इस द्विधा में जिधर रुचि अधिक हुई, उधर ही प्रकृतियां बढ़ जाती है। यदि असत मार्ग पर चला गया तो अपयश, द्वेष, चिन्ता, दैवी प्रकोप, शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता दरिद्रता एवं अप्रतिष्ठा प्राप्त होती है। और यदि सत मार्ग का अनुगमन किया गया तो प्रशंसा, प्रतिष्ठा, प्रेम, सहयोग, संतोष, दीर्घ जीवन, शारीरिक और आत्मिक बलिष्ठता एवं सदा आनन्द ही आनन्द का रसास्वादन होता है। दो प्रकार के विचार ही मनुष्य समाज को दो भागों में बाँटते हैं। सुखी-दुखी, रोगी-निरोगी, दरिद्र-सम्पन्न, दृष्ट-सज्जन, पापी-पुण्यात्मा, निन्दित-पूज्य, प्रसन्न-चिन्तित आदि द्विविधि श्रेणियाँ केवल मात्र द्विविधि विचारों द्वारा ही विनिर्मित होती हैं।

🔶 अधिक संख्या में जनसमुदाय का मानसिक धरातल परिमार्जित नहीं होता, उसमें पाश्विक वृत्तियों की प्रधानता रहती हैं। अविवेक, अज्ञान, अदूरदर्शिता, संकुचित स्वार्थपरायणता, लोभ विषय विकारों में आसक्ति एवं निकृष्ट कोटि के मनोरंजन की अभिलाषाओं से मनः दोष भरा रहता है। जिससे उसके सोचने, कार्य करने और आनंद लाभ करने की परिधि ऐसी सीमित हो जाती है जिसमें बुराई, तामसिकता एवं अशान्ति ही उत्पन्न हो सकती है। इसी कटघरे में अधिकाँश लोग बंद रहते हैं माया का यह घेरा मनुष्य को बुरी तरह जकड़े रहता है। वह जकड़ा हुआ प्राणी पराधीनता जन्म नाना प्रकार के दुखों को प्राप्त करता रहता है। यही भव बन्धन है।

📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1950 पृष्ठ 15

👉 Humanity: Our Precious Heritage

🔶 When the whole world was following the policy of selfishness, whereby a person would accumulate in excess and deprive others, saints in India mused, what was the uniqueness of man in practising this dictum? Everybody is desirous of indulging in pleasures. Everyone is willing to commit unethical deeds for earning money. The society is tormented by people’s habit of loafing around in idleness. Who does not crave to eat the best food and wear best clothes? All these are the features of an ordinary man.

🔷 Many of these tendencies are found in animals too, and if man also wallows in them, what is his speciality? Such an attitude does not make the right use of his knowledge, intellect and wisdom. In spite of being the possessor of extraordinary strength and abilities, if man leads a contemptible life, then where does lie the meaningfulness of the human life? Superior possessions should be used for superior deeds – only Indians have apprehended this fact. For this very reason alone our authority and eminence have subsisted in the world.

🔶 The problem of bread and butter could not be more acute for man than the need to understand the aim of life. Even an atheist will accept that human life is a rare opportunity. It would be unwise to waste it like ordinary people do. Going in an opposite direction of the routine, the purpose of human life can be ascertained. The outcome of living life casually, pain and suffering, is evident to us all. Therefore the saints asked: why not go in an opposite direction and discover some new facts? With this ideology a new philosophy emerged in India. It inspired the birth of sadhana. The achievements (siddhis) of sadhana were majestic and great.

🔷 The dispersal of even a fraction of these achievements resulted in heavenly happiness in the world. The name of these achievements was “humanity”, meaning practising the dictum “I do not want it, you take it. Nothing belongs to me; everything belongs to the Almighty God” (i.e. selflessness and sacrifice). After thorough sadhanas and the resulting experiences, saints concluded that everyone is entitled to God’s gifts, so they should be distributed to all. By pursuing this guideline, the development of happiness can take place and the world can be kept secure. Save this, there is no other way to establish peace in man’s life.

📖 From Akhand Jyoti Jan 2001

👉 लोक सेवा इन दिनों क्या होनी चाहिए?

🔶 लोक सेवा इन दिनों क्या होनी चाहिए, इसकी जानकारी दूरदर्शी विवेकवानों को समय-समय पर कराई जाती रही है और कहा जाता रहा है कि दुर्मति ही दुर्गति का कारण है। चिन्तन का भटकाव ही असंख्य समस्याओं का मूल है। सड़े कीचड़ में से दुर्गन्धित कृमि कीट उपजते हैं और रक्त के विषाक्त होने पर अनेकानेक चर्म रोगों का उद्भव होता है। प्रज्ञा युग के अवतरण के लिए हमें घर-घर युग चेतना का अलख जगाना और जन-जन के मन-मन में युग संदेश का आलोक पहुँचाना है।

🔷 युग समस्याओं को प्राथमिकता देते हुए हम कुछ समय के लिए धर्मशाला, मन्दिर, कूप, तालाब, औषधालय, प्याऊ, सदावर्त आदि ख्याति प्रदान करने वाले निर्माणों से हाथ खींच सकते हैं, और सर्वप्रथम सर्वोत्तम एवं सामयिक प्रज्ञा प्रसार को अग्रगामी बनाने के लिए प्रयत्नरत हो सकते हैं। इसके लिए जैसे-जैसे लोभ, मोह के बन्धन शिथिल होते जाँय, समय एवं साधन दान को आज की परम आवश्यकता मानते हुए हर परिजन को युग धर्म के निर्वाह में जुट जाना चाहिए।

🔶 पतन निवारण की इस सेवा के निमित्त दो ही उपाय हैं- (1) स्वाध्याय (2) सत्संग।  इन्हीं दो के सहारे सद्ज्ञान का विस्तार हो सकता है और युग तमिस्रा से छुटकारा मिल सकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, मई 1985 62  

👉 गुरुगीता (भाग 101)

👉 सच्चे शिष्य का एक ही स्वर- निष्काम कर्म

🔶 गुरूगीता के महामंत्रों की साधना से सद्गुरू का सामीप्य एवं सद्गुरू की कृपा दोनों ही सम्भव है। कई बार नवीन साधक के मन में जिज्ञासा होती है कि कहाँ ढुँढे अपने सद्गुरू को? कैसे मिले सद्गुरू? किसके चरणों में करें अपने समर्पण की साधना? कुछ अक्षरों में गुँथे इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढना आसान नहीं लगता, क्योंकि व्यावहारिक अनुभव यही कहता है कि सद्गुरू की प्राप्ति आसान नहीं होती। प्रायः यही होता हैं कि सद्गुरू मिलते ही नहीं और यदि किसी संयोगवश मिल भी गये, तो उनकी सद्गुरू के रूप में पहचान आसान नहीं होती। यह एक ऐसी जटिल पहेली है, जिसे हल करने में लोग अपना सम्पूर्ण जीवन गँवा देते हैं, फिर भी समस्या ज्यों की त्यों रहती है।

🔷 इस समस्या के समाधान में एक अनुभव कथा कहने का मन है। यह कथा एक किशोरवय के साधक की है, जो अपने सद्गुरू को ढूँढ रहा था। अपनी इस खोज को उसने अपनी साधना बना लिया। उसकी इस साधना के तीन पहलू रहे- पहला का आस्थापूर्वक पाठ। दूसरा- गुरू रूप में भगवान् शिव का वरण एवं तीसरा- गुरूमंत्र के रूप में गायत्री मंत्र का जप। जो सतत साधना करते हैं, जिनका शास्त्र ग्रन्थों का सम्यक् अध्ययन है- वे इस सत्य को भलीभाँति जानते हैं कि भगवान् शिव अपने दक्षिणामूर्ति स्वरूप में सभी प्राणियों के गुरू हैं। दस रूप में वे सभी को सद्गुरू प्राप्ति का वरदान देते हैं।

🔶 कोई भी साधक यदि उपरोक्त साधना ठीक से करता रहे, तो एक दिन भगवान् शिव ही उसे उसके सद्गुरू का परिचय देते हैं और उनकी प्राप्ति कराते हैं। अनुभूति कथा के इस किशोर साधक को भी अपनी यह साधना निरन्तर आठ वर्षों तक करनी पड़ी। अन्त में एक दिन स्वयं भगवान् सदाशिव ने उसके स्वप्न में आकर कहा- देख, मुझे पहचान मैं हूँ तेरा सद्गुरू। और इस स्वप्न में ही भगवान् शिव का दिव्य कलेवर उसके सद्गुरू के रूप में बदल गया। हाँ यह बात अलग है, इस स्वप्न परिचय को साकार होने में उसे दो वर्षों की साधना और करनी पड़ी। इन दो वर्षों में परिस्थिति चक्र में आश्चर्यजनक मोड़ आये, उसे उसके सद्गुरू का सान्निध्य भी मिला और कृपा भी। यह सत्य कथा किसी भी साधक के जीवन का सच बन सकती है। बस, प्रयास हो भावभरे मन से साधना की। साधना बनी रहे, तो सिद्धि मिलते, सिद्ध बनते देर नहीं लगती।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 154

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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