🔵 स्वर्ग-नरक की चर्चा के बाद एक प्रसंग संकट मुक्ति का है, जिसके बारे में शंकाएँ उठाई जाती रही हैं कि यह कहाँ तक सही है। क्या जप करने से संकट समीप नहीं आते? इसे भी तत्व दर्शन के परिप्रेक्ष्य में सभी इन्द्रियाँ जागृत रख समझना होगा। महाप्रज्ञा के स्वरूप को समझने तथा शिक्षा को हृदयंगम करने पर आत्मशोधन और आत्मपरिष्कार के दो कदम संकल्प पूर्वक उठने लगते हैं। फलतः कुसंस्कारों एवं अवाँछनीयता से छुटकारा मिलता है। साथ ही उस उन्मूलन से खाली हुए स्थान को गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता से भरने का काम भी द्रुतगति से चल पड़ता है। यह परिवर्तन जिस क्रम से अग्रसर होता है, उसी अनुपात से संकटों से भी छुटकारा मिलता चला जाता है।
🔴 संकट वस्तुतः स्वाभाविक नहीं, स्व उपार्जित है। असंयम से रुग्णता, असंतुलन से विग्रह, अपव्यय से दारिद्रय, असभ्यता से तिरस्कार, अस्त-व्यस्तता से विपन्नता के घटाटोप खड़े होते हैं। अपनी अवाँछनीयताएँ- कुसंस्कारिताएं ही दुर्गति को- सुखद परिस्थितियों को न्यौत बुलाती हैं। मनःस्थिति बदले तो परिस्थिति बदलने में देर न लगे। आकस्मिक अपवाद तो कभी-कभी ही खड़े होते हैं। आमतौर से दृष्टिकोण, स्वभाव एवं व्यवहार में घुसा अनगढ़पन ही विभिन्न स्तर के संकटों के लिये उत्तरदायी होता है। इस तथ्य को समझने वाले बाहरी संकटों का साहस और सूझ-बूझ द्वारा मुकाबला करते हैं। साथ ही यह भी देखते हैं कि अपनी किन त्रुटियों के कारण अवाँछनीयता के साथ घनिष्ठता जुड़ी और वैसा परिणाम निकला। अपने को बदलने के लिये तत्पर व्यक्ति प्रतिकूलताओं में बदलने में भी प्रायः सफल होते हैं। गायत्री उपासना के उपयुक्त निर्धारण एवं अवलम्बन से आत्मपरिष्कार– पराक्रम का लक्ष्य पूरा होता है। फलतः संकटों के निवारण में भी संदेह नहीं रह जाता। गायत्री लाठी लेकर संकटों को मार भगाये और श्रद्धालु आँखें मूँदकर उस तमाशे को देखें, ऐसा नहीं होता।
🔵 इसी प्रकार एक शंका और प्रश्न के रूप में कुरेदी-उभारी जाती रही है- गायत्री की कृपा से सम्पन्नता और सफलता कैसे मिलती है? वस्तुतः इस प्रश्न में एक और कड़ी जुड़नी चाहिये- मध्यवर्ती कर्तव्य और परिवर्तन की। स्कूल में प्रवेश करने और ऊंचे अफसर बनने, डाक्टर की पदवी पाने में आरम्भ और अन्त की चर्चा मात्र है। इसके बीच मध्यान्तर भी है जिसमें मनोयोग पूर्वक लम्बे समय तक नियमित रूप से पढ़ना पुस्तकों की- फीस की, व्यवस्था करना आदि अनेकों बातें शामिल है। इस मध्यान्तर को विस्मृत कर दिया जाये और मात्र प्रवेश एवं पद दो ही बातें याद रहें तो कहा जायेगा कि यह शेख चिल्ली की कल्पना भर है। यदि मध्यान्तर का महत्व और उस अनिवार्यता का कार्यान्वयन भी ध्यान में हो तो कथन सर्वथा सत्य है। पहलवान बलिष्ठता की मनोकामना नहीं पूरी करता, न ही ‘पहलवान-पहलवान’ रटते रहने से कोई वैसा बन पाता है। उसके लिये व्यायामशाला में प्रवेश से लेकर नियमित व्यायाम, आहार-विहार, तेल मालिश आदि का उपक्रम भी ध्यान में रखना होता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति जुलाई पृष्ठ 49
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1983/July.49
🔴 संकट वस्तुतः स्वाभाविक नहीं, स्व उपार्जित है। असंयम से रुग्णता, असंतुलन से विग्रह, अपव्यय से दारिद्रय, असभ्यता से तिरस्कार, अस्त-व्यस्तता से विपन्नता के घटाटोप खड़े होते हैं। अपनी अवाँछनीयताएँ- कुसंस्कारिताएं ही दुर्गति को- सुखद परिस्थितियों को न्यौत बुलाती हैं। मनःस्थिति बदले तो परिस्थिति बदलने में देर न लगे। आकस्मिक अपवाद तो कभी-कभी ही खड़े होते हैं। आमतौर से दृष्टिकोण, स्वभाव एवं व्यवहार में घुसा अनगढ़पन ही विभिन्न स्तर के संकटों के लिये उत्तरदायी होता है। इस तथ्य को समझने वाले बाहरी संकटों का साहस और सूझ-बूझ द्वारा मुकाबला करते हैं। साथ ही यह भी देखते हैं कि अपनी किन त्रुटियों के कारण अवाँछनीयता के साथ घनिष्ठता जुड़ी और वैसा परिणाम निकला। अपने को बदलने के लिये तत्पर व्यक्ति प्रतिकूलताओं में बदलने में भी प्रायः सफल होते हैं। गायत्री उपासना के उपयुक्त निर्धारण एवं अवलम्बन से आत्मपरिष्कार– पराक्रम का लक्ष्य पूरा होता है। फलतः संकटों के निवारण में भी संदेह नहीं रह जाता। गायत्री लाठी लेकर संकटों को मार भगाये और श्रद्धालु आँखें मूँदकर उस तमाशे को देखें, ऐसा नहीं होता।
🔵 इसी प्रकार एक शंका और प्रश्न के रूप में कुरेदी-उभारी जाती रही है- गायत्री की कृपा से सम्पन्नता और सफलता कैसे मिलती है? वस्तुतः इस प्रश्न में एक और कड़ी जुड़नी चाहिये- मध्यवर्ती कर्तव्य और परिवर्तन की। स्कूल में प्रवेश करने और ऊंचे अफसर बनने, डाक्टर की पदवी पाने में आरम्भ और अन्त की चर्चा मात्र है। इसके बीच मध्यान्तर भी है जिसमें मनोयोग पूर्वक लम्बे समय तक नियमित रूप से पढ़ना पुस्तकों की- फीस की, व्यवस्था करना आदि अनेकों बातें शामिल है। इस मध्यान्तर को विस्मृत कर दिया जाये और मात्र प्रवेश एवं पद दो ही बातें याद रहें तो कहा जायेगा कि यह शेख चिल्ली की कल्पना भर है। यदि मध्यान्तर का महत्व और उस अनिवार्यता का कार्यान्वयन भी ध्यान में हो तो कथन सर्वथा सत्य है। पहलवान बलिष्ठता की मनोकामना नहीं पूरी करता, न ही ‘पहलवान-पहलवान’ रटते रहने से कोई वैसा बन पाता है। उसके लिये व्यायामशाला में प्रवेश से लेकर नियमित व्यायाम, आहार-विहार, तेल मालिश आदि का उपक्रम भी ध्यान में रखना होता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति जुलाई पृष्ठ 49
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1983/July.49