अभिरुचि के ही अनुरूप हो ध्यान
समाधि की मंजिल तक पहुँचाने वाले अन्तर्यात्रा के इस मार्ग में योग साधक में अनेकों भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तन होते हैं। भौतिक एवं रसायन की यह शब्दावली भले ही किसी को अचरज में डाल दे, फिर भी सच को तो कहा ही जाना चाहिए। जो अन्तर्यात्रा में गतिशील हैं, इसके वैज्ञानिक प्रयोगों में स्वयं को खपा रहे हैं, वे इस यथार्थ से सहमत होंगे। हाँ, जिनके लिए ये प्रायोगिक सत्य केवल तर्क का विषय हैं, उन्हें अवश्य हमें अपने सन्दर्भ से अलग मानना पड़ेगा। अन्तर्यात्रा में योग साधक की गति ज्यों-ज्यों तीव्र होती है, त्यों-त्यों उसकी भावनाओं एवं विचारों में गहरे परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों का स्वरूप कुछ इस तरह से बनता, बदलता है कि उसे रूपान्तरण की संज्ञा दी जा सकती है। इन परिवर्तनों के कारण जीवन की रासायनिक क्रिया भी परिवर्तित होती है। और परिवर्तित होता है—व्यक्ति का भौतिक शरीर एवं उसका व्यवहार। जिसे देखा और अनुभव किया जा सकता है।
इस समूचे परिवर्तन की प्रक्रिया का यदि आधार ढूँढें, तो वह एक ही है, पवित्रता के साथ जुड़ी सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया। व्यवहार हो या विचार अथवा फिर अन्तस् की भावनाएँ। योग साधना के साथ ही इनमें पवित्रता की प्रक्रिया घटित होने लगती है। इनसे कषाय-कल्मष एवं कुसंस्कारों का बोझ घटने लगता है। साथ ही बढ़ने एवं विकसित होने लगते हैं- इनके सूक्ष्म प्रभाव। जिसकी आभा अनेकों को अपने घेरे में लेती है। जिसके स्पर्श मात्र से औरों में रूपान्तरण के रासायनिक प्रयोग होने लगते हैं। और अन्ततोगत्वा इसकी परिणति जीवन के भौतिक व्यवहारों तक आए बिना नहीं रहती।
अन्तर्यात्रा विज्ञान के ये सारे प्रयोग एवं उसकी सूक्ष्मताएँ ध्यान की प्रयोगशाला में घटित होती है। इसी वजह से महर्षि पतंजलि ने ध्यान को सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना है। उन्होंने अपनी कई सूत्रों में इस तकनीक की बारीकियों को उजागर किया है। महर्षि पतंजलि- मानव चेतना के महान् वैज्ञानिक हैं। इसी तरह से परम पूज्य गुरुदेव भी अध्यात्म विज्ञान के महान् प्रयोगकर्त्ता रहे हैं। इस सत्य के अनुरूप ही महर्षि ने अपने अगले सूत्र में ध्यान की विषय वस्तु के दायरे को और अधिक व्यापक किया है। उनका कहना है कि ध्यान की विषय वस्तु को सीमित नहीं किया, इसको काल, स्थान, परिवेश एवं अभिरुचि के अनुसार परिवर्तित भी किया जा सकता है। और इसी परिवर्तन से ध्यान की समूची प्रक्रिया के प्रभावों पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
महर्षि का अगला सूत्र इसी सत्य को उजागर करता है। उनका यह सूत्र है- यथाभिमतध्यानाद्वा॥ १/३९॥
शब्दार्थ-यथाभिमतध्यानात् = जिसको जो अभिमत हो, उसके ध्यान से, वा = भी (मन स्थिर हो जाता है)।
अर्थात् ध्यान करो किसी उस चीज पर भी, जिसमें तुम्हारी गहरी रुचि हो।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १५४
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या