शनिवार, 19 दिसंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ८८)

अभिरुचि के ही अनुरूप हो ध्यान 

समाधि की मंजिल तक पहुँचाने वाले अन्तर्यात्रा के इस मार्ग में  योग साधक में अनेकों भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तन होते हैं। भौतिक एवं रसायन की यह शब्दावली भले ही किसी को अचरज में डाल दे, फिर भी सच को तो कहा ही जाना चाहिए। जो अन्तर्यात्रा में गतिशील हैं, इसके वैज्ञानिक प्रयोगों में स्वयं को खपा रहे हैं, वे इस यथार्थ से सहमत होंगे। हाँ,  जिनके लिए ये प्रायोगिक सत्य केवल तर्क का विषय हैं, उन्हें अवश्य हमें अपने सन्दर्भ से अलग मानना पड़ेगा। अन्तर्यात्रा में योग साधक की गति ज्यों-ज्यों तीव्र होती है, त्यों-त्यों उसकी भावनाओं एवं विचारों में गहरे परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों का स्वरूप कुछ इस तरह से बनता, बदलता है कि उसे रूपान्तरण की संज्ञा दी जा सकती है। इन परिवर्तनों के कारण जीवन की रासायनिक क्रिया भी परिवर्तित होती है। और परिवर्तित होता है—व्यक्ति का भौतिक शरीर एवं उसका व्यवहार। जिसे देखा और अनुभव किया जा सकता है।

इस समूचे परिवर्तन की प्रक्रिया का यदि आधार ढूँढें, तो वह एक ही है, पवित्रता के साथ जुड़ी सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया। व्यवहार हो या विचार अथवा फिर अन्तस् की भावनाएँ। योग साधना के साथ ही इनमें पवित्रता की प्रक्रिया घटित होने लगती है। इनसे कषाय-कल्मष एवं कुसंस्कारों का बोझ घटने लगता है। साथ ही बढ़ने एवं विकसित होने लगते हैं- इनके सूक्ष्म प्रभाव। जिसकी आभा अनेकों को अपने घेरे में लेती है। जिसके स्पर्श मात्र से औरों में रूपान्तरण के रासायनिक प्रयोग होने लगते हैं। और अन्ततोगत्वा इसकी परिणति जीवन के भौतिक व्यवहारों तक आए बिना नहीं रहती।

अन्तर्यात्रा विज्ञान के ये सारे प्रयोग एवं उसकी सूक्ष्मताएँ ध्यान की प्रयोगशाला में घटित होती है। इसी वजह से महर्षि पतंजलि ने ध्यान को सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना है। उन्होंने अपनी कई सूत्रों में इस तकनीक की बारीकियों को उजागर किया है।  महर्षि पतंजलि- मानव चेतना के महान् वैज्ञानिक हैं। इसी तरह से परम पूज्य गुरुदेव भी अध्यात्म विज्ञान के महान् प्रयोगकर्त्ता रहे हैं। इस सत्य के अनुरूप ही महर्षि ने अपने अगले सूत्र में ध्यान की विषय वस्तु के दायरे को और अधिक व्यापक किया है। उनका कहना है कि ध्यान की विषय वस्तु को सीमित नहीं किया, इसको काल, स्थान, परिवेश एवं अभिरुचि के अनुसार परिवर्तित भी किया जा सकता है। और इसी परिवर्तन से ध्यान की समूची प्रक्रिया के प्रभावों पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

महर्षि का अगला सूत्र इसी सत्य को उजागर करता है। उनका यह सूत्र है- यथाभिमतध्यानाद्वा॥ १/३९॥
शब्दार्थ-यथाभिमतध्यानात् = जिसको जो अभिमत हो, उसके ध्यान से, वा = भी (मन स्थिर हो जाता है)।
अर्थात् ध्यान करो किसी उस चीज पर भी, जिसमें तुम्हारी गहरी रुचि हो।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १५४
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 आप समर्पित हो जाइए

मित्रो! एक बार लैला ने मजनूँ की परीक्षा लेनी चाही और जानना चाहा कि मजनूँ कैसा है? पहले तो उसने ऐसा इंतजाम कर दिया कि उसको कुछ पैसे मिल जाया करें, दुकानदारों से खाने को मिल जाया करे। फिर उसने सोचा, ऐसा तो नहीं कि वह हरामखोर हो और फोकट का खा रहा हो। उसने अपनी बाँदी से यह कहला भेजा कि लैला बहुत बीमार है। सुनकर मजनूँ बड़ा दुःखी हुआ। बाँदी ने कहा-दुःखी होने से क्या फायदा? आप कुछ मदद कीजिए न उनकी। उसने कहा-लैला को हम बहुत प्यार करते हैं। प्यार करते हो तो कुछ दीजिए न। मजनूँ ने कहा-मैं क्या दूँ? बाँदी ने कहा-डॉक्टरों ने यह कहा है कि लैला की नसों में खून का एक प्याला चढ़ाया जाएगा, आप अपना खून देंगे क्या, जिससे कि लैला की जिन्दगी बचायी जा सके। मजनूँ फौरन तैयार हो गया। उसने जो कटोरा बाँदी लेकर आयी थी, खून से लबालब भर दिया। बाँदी जब खून लेकर चली, तब उसने बाँदी से एक और बात कही-बाँदी जल्दी आना, अभी कई कटोरे खून मेरे शरीर में है। वह मैं उसके सुपुर्द करूँगा, क्योंकि उससे मैं मुहब्बत करता हूँ और मुहब्बत का मतलब होता है-देना। बाँदी जब एक कटोरा खून लेकर के गयी, तो नकली मजनूँ जो थे, सब भगा दिए गये। लैला ने अपने बाप से कह दिया-जो मुझसे इतनी मुहब्बत करता है और जो मुहब्बत की कीमत को समझता है, उसके ही साथ मैं रहूँगी। लैला और मजनूँ की शादी हो गई। 

आपकी भी शादी भगवान के साथ में हो सकती है, लेकिन करना क्या चाहिए? सिर्फ एक बात करनी चाहिए कि भगवान की मर्जी पर चलने के लिए आप आमादा हो जाइए। भगवान जो आपसे चाहते हैं, उसको कीजिए। आपका चाहना भी ठीक है, लेकिन आप जो चाहते हैं, उससे पहले बहुत कुछ दे दिया है भगवान ने। आपको इनसान की जिन्दगी दी है और ऐसी जिन्दगी दी है कि आप अपनी मनमर्जी पूरी कर सकते हैं। मनमर्जी के लिए कोई कमी नहीं है। आपके हाथ कितने बड़े हैं, आपकी जुबान और आँखें कितनी शानदार हैं, इसमें आप संतोष कर सकते हैं। अपनी दैनिक जरूरतों की भगवान से अपेक्षा मत कीजिए। आप अपनी हविश, अपनी तमन्नाओं, इच्छाओं, महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए भगवान को मजबूर करेंगे कि कर्तव्य की बात को छोड़कर वह पक्षपात करने लगे और कर्मफल की महत्ता का परित्याग कर दे? आप ऐसा मत कीजिए, उनको न्यायाधीश रहने दीजिए। 

आप अपने घिनौने चिन्तन को बदल दीजिए, अपने छोटे दृष्टिकोण को परिवर्तित कर दीजिए, लोभ और लालच से बाज आइए और भगवान की सुन्दर दुनिया को ऊँचा बनाने के लिए, शानदार बनाने के लिए राजकुमार के तरीके से कमर बाँधकर खड़े हो जाइए। आप समर्पित हो जाइए, शरणागति में आइए, विराजिए, विसर्जन कीजिए, फिर देखिए आप क्या पाते हैं? आज मुझे यही निवेदन करना था आप लोगों से। 

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 वाङमय-नं-६८-पेज-१.१४

👉 चिंतन के क्षण Chintan Ke Kshan

🔸 आज की सुविधा, संपन्नता की प्राचीनकाल से तुलना की जाए और मनुष्य के सुख-संतोष को भी दृष्टिगत रखा जाए तो पिछले जमाने की असुविधा भरी परिस्थितियों में रहने वाले व्यक्ति अधिक सुखी और संतुष्ट जान पड़ॆंगे। इन पंक्तियों में भौतिक प्रगति तथा साधन-सुविधाओं की अभिवृद्धि को व्यर्थ नहीं बताया जा रहा है, न उनकी निन्दा की जा रही है। कहने का आशय इतना भर है कि परिस्थितियाँ कितनी भी अच्छी और अनुकूल क्यों न हों, यदि मनुष्य के आन्तरिक स्तर में कोई भी सुधार नहीं हुआ है तो सुख-शांति किसी भी उपाय से प्राप्त नहीं की जा सकती है।     

🔹 सर्वतोमुखी पतन और पराभव के इस संकट का निराकरण करने के लिए एक ही उपाय कारगर हो सकता है। वह है – व्यक्ति और समाज का भावनात्मक परिष्कार। भावना स्तर में अवांछनीयताओं के घुस पड़ने से ही तमाम समस्याएं उत्पन्न हुई हैं, इन समस्याओं का यदि समाधान करना है तो सुधार की प्रक्रिया भी वहीं से प्रारम्भ करनी पड़ेगी, जहाँ से ये विभीषिकाएं उत्पन्न हुई हैं। अमुक-अमुक समाधान-सामयिक उपचार तो हो सकता है, पर चिरस्थाई समाधान के लिए आधार को ही ठीक करना पड़ता है।     

🔸 अधर्म का आचरण करने वाले असंयमी, पापी, स्वार्थी, कपटी, धूर्त और दुराचारी लोग शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य एवं धन-संपत्ति, यश-वैभव आदि सब कुछ खो बैठते हैं। उन्हें बाह्य जगत में घृणा और तिरस्कार तथा अंतरात्मा में धिक्कार ही उपलब्ध होते हैं। ऐसे लोग भले ही उपभोग के कुछ साधन इकट्ठे कर लें, पर अनीति का मार्ग अपनाने के कारण उनका रोम-रोम अशांत तथा आत्म-प्रताड़ना की आग में झुलसता रहता है। चारों ओर घृणा, तिरस्कार एवं असहयोग ही मिलता है। आतंक के बल पर यदि वे कुछ पा भी लेते हैं तो उपभोग के पश्चात् उनके लिए विषतुल्य-दुखदायक ही सिद्ध होता है। आत्मशान्ति पाने, सुसंयमित जीवन व्यतीत करने वाले मनुष्य को धर्ममय जीवनक्रम अपनाने के लिए तत्पर होना पड़ता है। नैतिकता, मानवता एवं कर्तव्यपरायणता को ही अपने जीवन में समाविष्ट करना होता है। इस प्रवृत्ति का व्यापक प्रसार करने के लिए किए गए प्रयत्नों को नैतिक क्रान्ति की संज्ञा दी जाती है। बुद्ध धर्म के प्रथम मंत्र 'धम्मं शरणं गच्छामि' में इसी नैतिक क्रान्ति की चिनगारी निहित है, इस मंत्र को लोकव्यापी बनाने के लिए जो प्रयत्न बौद्ध धर्मावलम्बियों ने किया था, उसे विशुद्ध नैतिक क्रान्ति ही कहा जएगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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