शुक्रवार, 20 जनवरी 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 21 Jan 2017


👉 आज का सद्चिंतन 21 Jan 2017

👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 14) 21 Jan

🌹 त्रिविध भवबन्धन एवं उनसे मुक्ति
🔴 अध्यात्म विज्ञान के साधकों को अपने दृष्टिकोण में मौलिक परिवर्तन करना पड़ता है। उन्हें सोचना होता है कि मानव जीवन की बहुमूल्य धरोहर का इस प्रकार उपयोग करना है, जिससे शरीर का निर्वाह लोक व्यवहार भी चलता रहे, पर साथ ही आत्मिक अपूर्णता को पूरी करने का चरम लक्ष्य भी प्राप्त हो सके। ईश्वर के दरबार में पहुँचकर सीना तानकर यह कहा जा सके कि जो अमानत जिस प्रयोजन के लिये सौंपी गई थी, उसे उसी हेतु सही रूप में प्रयुक्त किया गया।           

🔵 इस मार्ग में सबसे बड़ी रुकावटें तीन हैं। इन्हीं को रावण, कुम्भकरण, मेघनाथ कहा गया है। यह दैवी भागवत के महिषासुर, मधुकैटभ, रक्तबीज हैं। ये प्राय: साथ लगे रहते हैं और पीछा नहीं छोड़ते। इन्हीं के कारण मनुष्य पतन और पराभव के गर्त में जा गिरता है। पशु, प्रेत और पिशाच की जिन्दगी जीता है। नर-वानर और नर-पामर के रूप में इन्हीं के चंगुल में फँसे हुए लोगों को देखा जाता है। ये तीन हैं-लोभ मोह एवं अहंकार। वासना, तृष्णा और कुत्सा इन्हीं के कारण उत्पन्न होती है।

🔴 लोक विजय के लिये सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त अपनाना पड़ता है। औसत नागरिक स्तर के निर्वाह में सन्तोष करना पड़ता है। ईमानदारी और परिश्रम की कमाई पर निर्भर रहना पड़ता है। लालची के लिये अनीति अपनाये बिना तृष्णा की पूर्ति कर सकना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं होता। जो व्यक्ति विलास में अधिक खर्च करता है, वह प्रकारान्तर से दूसरों को उतना ही अभावग्रस्त रहने के लिये मजबूर करता है। इसीलिये शास्त्रकारों ने परिग्रह को पाप बताया है। विलासी, संग्रही, अपव्ययी की भी ऐसी निन्दा की गई है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 जिज्ञासु के लक्षण-श्रद्धा और नम्रता

🔴 एक बार राजा जातश्रुति के राजमहल की छत पर हंस आकर बैठे और आपस में बात करने लगे। एक हंस ने कहा जिसके राजमहल पर हम बैठे है, वह बड़ा धर्मात्मा और दानी है। इसकी कीर्ति दूर-दूर तक फैली हुई है। इस पर दूसरे हंस ने कहा- गाड़ीवान रैक्य की तुलना में यह न तो ज्ञानी है और न दानी।

🔵 इस वार्ता को जातश्रुति सुन रहे थे। उन्हें गाड़ीवान रैक्य से भेंट करने की इच्छा हुई। उनने चारों दिशाओं में दूत भेजे। पर वे निराश होकर लौटे। उनने कहा-राजन् हमने सभी नगर, मन्दिर, मठ ढूँढ़ डाले पर वे कही नहीं मिले। तब राजा ने विचार किया ब्रह्मज्ञानी पुरुषों का विषयी लोगों के बीच रहना कैसे हो सकता है। अवश्य ही वे कही साधना के उपयुक्त एकान्त स्थान में होंगे वही उन्हें तलाश कराना चाहिए।

🔵 अब की बार दूत फिर भेजे गये तो वे एक निर्जन प्रदेश में अपनी गाड़ी के नीचे बैठे मिल गये। यही उनका घर था। राजा उनके पास बहुत धन, आभूषण, गाऐं, रथ आदि लेकर पहुँचा। उसका विचार था कि रैक्य इस वैभव को देखकर प्रसन्न होंगे और मुझे ब्रह्मज्ञान का उपदेश देंगे। पर परिणाम वैसा नहीं हुआ। रैक्य ने कहा-अरे शूद्र! यह धन वैभव तू मेरे लिए व्यर्थ ही लाया है। इन्हें अपने पास ही रख।” ऋषि को क्रुद्ध देखकर राजा निराश वापिस लौट आया और सोचता रहा कि किस वस्तु से उन्हें प्रसन्न करूँ। सोचते-सोचते उसे सूझा कि विनय और श्रद्धा से ही सत्पुरूष प्रसन्न होते है। तब वह हाथ में समिधाएं लेकर, राजसी ठाठ-बाठ छोड़कर एक विनीत जिज्ञासु के रूप में उनके पास पहुँचा। रैक्य ने राजा में जिज्ञासु के लक्षण देखे तो वे गदगद हो उठे। उनने जातश्रुति को हृदय से लगा लिया और प्रेम पूर्वक ब्रह्म विद्या का उपदेश दिया।

🌹 अखण्ड ज्योति जून 1961 पृष्ठ 25

👉 अपने चरित्र का निर्माण करो

🔵 जिसे तुम अच्छा मानते हो, यदि तुम उसे अपने आचरण में नहीं लाते तो यह तुम्हारी कायरता है। हो सकता है कि भय तुम्हें ऐसा नहीं करने देता हो, लेकिन इससे तुम्हारा न तो चरित्र ऊंचा उठेगा और न तुम्हें गौरव मिलेगा। मन में उठने वाले अच्छे विचारों को दबाकर तुम बार बार जो आत्म हत्या कर रहे हो आखिर उससे तुमने किस लाभ का अन्दाजा लगाया है?

🔴 शान्ति और तृप्ति, आचारवान व्यक्ति को ही प्राप्ति होती हैं। जो मन में है वही वाणी और कर्म में होने पर जैसी शान्ति मिलती है उसका एक अंश भी मन वाणी और कर्म में अन्तर रखने वाले व्यक्ति को प्राप्त नहीं होता। बल्कि ऐसा व्यक्ति घुट-घुट कर मरता है और दिन रात अशान्ति के ही चक्कर में पड़ा रहता है।

🔵 घुट-घुट कर लाख वर्ष जीने की अपेक्षा उस एक दिन का जीना अधिक श्रेयस्कर है जिसमें शान्ति है, तृप्ति है। परन्तु भय का भूत मनुष्य को न जिन्दा ही रहने देता है और न मरने ही देता है। भय की उत्पत्ति का कारण आशक्ति है, मोह है। शरीर का मोह, धन का मोह आदमी को कहीं का नहीं रहने देता, शरीर का चाहे जितना मोह करो उसे किसी न किसी दिन मिट्टी में मिलना ही है, अमर हो ही नहीं सकता तब फिर उसे आत्मोन्नति के साधन के लिए उपयोग में न लाकर जो लोग उसका भार ढोकर चलते रहना पसन्द करते हैं, पसन्द करते ही नहीं बल्कि चलते रहते हैं वे आत्मा को अन्धेरे की ओर ही गिराते हैं। धन और शरीर ये जीवन के लक्ष्य नहीं हैं, जीवन का लक्ष्य तो है आत्मा की उन्नति, आत्मा की प्राप्ति। इसलिए शरीर और धन का जो लोग इसके लिए उपयोग नहीं करते वे प्राप्त साधनों का दुरुपयोग न करके अपने भावी जीवन में किसी महान संकट के लिए निमन्त्रण देते हैं।

🌹 अगले अंक में समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति 1948 सितम्बर पृष्ठ 3
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1948/September.3

👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (भाग 30) 21 Jan

🌹 अखण्ड जप करें—अखण्ड यज्ञ नहीं

🔴 गायत्री जयन्ती, गुरु पूर्णिमा, बसन्त पंचमी आदि पर्वों पर अखण्ड गायत्री जप रखा जाता है। जिस समय से आरम्भ करते हैं उसी समय पर समाप्ति भी होती है। 24 घण्टे में प्रायः आधा समय दिन का और आधा रात्रि का होता है। दिन में मन्त्र उच्चारण सहित और रात्रि में मानसिक जप करने की परम्परा है। अखण्ड जप में एक ही विधि रखी जाती है। दिन में एक प्रकार और रात्रि में दूसरी प्रकार नहीं करते। इसलिए पूरा अखण्ड जप मानसिक ही होना उपयुक्त रहता है। इसमें एकरसता बनी रहती है। यों जहां कहीं दिन और रात्रि के अन्तर को ध्यान में रखते हुए वाचिक और मानसिक जप की भिन्नता रखी जा सके वहां वैसा भी हो सकता है। सरलता मानसिक जप में ही रहती है।

🔵 यज्ञ अखण्ड करने का विधान नहीं है। वह नियत समय में ही समाप्त होना चाहिए। यज्ञ का उपयुक्त समय दिन है। दिन में कीड़े-मकोड़े अग्नि में न जा पहुंचें, इसका ध्यान रखा जा सकता है। रात्रि में कृत्रिम प्रकाश उत्पन्न कर लेने पर भी ऐसी स्थिति नहीं बन पड़ती कि छोटे कीड़ों को पूरी तरह देख सकना या रोक सकना सम्भव हो सके। सर्व विदित है कि पतंगों से लेकर छोटे कृमि-कीटक दिन की अपेक्षा रात्रि में ही अपनी गति-विधियां अधिक विस्तृत करते हैं। इसलिए रात्रि में हिंसा की सम्भावना अधिक रहने, सतर्कता कम बन पड़ने की स्थिति को ध्यान में रखते हुए सूर्य की उपस्थिति में ही यज्ञ-कर्म करने की परम्परा है। ऐसे समय में रात्रि के समय भी यज्ञ जारी रखने का औचित्य नहीं है।

🔴 विवाह-शादियां प्रायः रात्रि के समय होने का ही प्रचलन है। उस समय अग्निहोत्र होता है, पर वह अपवाद है। यों विवाह विधि भी शास्त्र परम्परा के अनुसार दिन में ही होनी चाहिए और उसका अग्निहोत्र भाग भी दिन में ही निपटना चाहिए। पर लोगों ने सुविधा का ध्यान रखते हुए रात्रि को फुरसत में विवाह की धूमधाम करने का रास्ता निकाल लिया है। दिन में करने से दिन के अन्य कामों का हर्ज होता है। ऐसे ही कारणों से विवाह जैसे अवसरों पर अपवाद रूप से रात्रि में ही हवन होते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 पराक्रम और पुरुषार्थ (भाग 24) 21 Jan

🌹 आत्मविश्वास क्या नहीं कर सकता?

🔵 दूसरे दिन सेना ने कूच कर दिया, सेना का नेतृत्व युद्ध अनुभवों से सर्वथा अपरिचित फकीर कर रहा था। थोड़ी ही दूर वे चले होंगे कि फकीर ने रुकने का संकेत किया, इस नये सेनापति के आदेश पर सेना रुक गई। सेनापति चाहे जो निर्णय ले, सभी सैनिक उसका अनुकरण करने पर मजबूर थे। युद्ध क्षेत्र अभी दूर था। बीच में अकारण रुककर समय बर्बाद करने का कोई औचित्य नजर नहीं आ रहा था। सैनिक असमंजस में पड़ गये। इसी बीच सामने के मन्दिर की ओर इशारा करते हुए कहा— ‘‘युद्ध से पूर्व इस मन्दिर के देवता से पूछ लेते हैं कि जीत होगी या हार। यदि देवता जीत के लिए कह देते हैं तो फिर किसी का डर नहीं। दुश्मन की सेना कितनी ही विकट क्यों न हो जीत निश्चित ही हमारी होगी। यदि नहीं तो फिर चलने से क्या लाभ!’’

🔴 सैनिकों ने कहा कि आप तो एकान्त में देवता से पूछेंगे। देवता क्या उत्तर देते हैं यह हमें कैसे पता चलेगा?’’ ‘‘नहीं! अकेले में नहीं पूछूंगा। तुम सबके सामने ही देवता के सामने मैं प्रश्न करूंगा।’’ यह कहते हुए फकीर ने झोली से एक चमकता हुआ सिक्का निकाला और बताया कि अगर यह सिक्का चित्त गिरता है तो जीत हमारी ही होगी, यदि पट गिरेगा तो हम वापिस लौट जायेंगे। फकीर ने सिक्का ऊपर उछाला— सिक्के के गिरने के साथ ही उनके भाग्य का निर्णय होना था। सब विस्फारित नेत्रों से एक टक सिक्के को देख रहे थे। सिक्के के गिरते ही सबकी आंखें चमक गयीं। सिक्का चित्त गिरा था—जीत सुनिश्चित थी फकीर ने सबको उत्साहित करते हुए कहा— ‘‘अब डरने की कोई बात नहीं, देवता का आश्वासन हमें मिल गया है।’’

🔵 दोनों पक्षों की भयंकर लड़ाई के बाद जीत जापान के पक्ष में हुई। युद्धोपरान्त सैनिकों ने मन्दिर के पास पहुंचकर कहा कि देवता को धन्यवाद दे दें जिसने हमें जिताया, फकीर ने कहा देवता को धन्यवाद देने की आवश्यकता नहीं बल्कि अपने आपको धन्यवाद दो। तुम स्वयं ही अपनी जीत के आधार हो।’

🔴 ‘‘जीत का देवता से कोई सम्बन्ध नहीं।’’ यह कहते हुए फकीर ने सिक्का पुनः झोली से निकालकर सैनिकों के हाथ पर रख दिया। सैनिकों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उन्होंने देखा कि सिक्के के दोनों और चित्त के निशान थे। यह और कुछ नहीं सैनिकों के सोये आत्मविश्वास को जगाने की एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया भर थी जो अन्ततः जीत का कारण बनी।

🔵 संसार की महत्वपूर्ण सफलताओं का इतिहास आत्मविश्वास की गौरव गाथा से भरा पड़ा है। उत्कर्ष व्यक्ति का करना हो— समाज का अथवा राष्ट्र का, सर्वप्रथम आवश्यकता है अपने अन्दर सोये आत्मविश्वास रूपी देवता को जगाया जाये। अनुदान-वरदान सहज ही बरसते चले आयेंगे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 आप अपने आपको पहचान लीजिये (भाग 2)

🔴 इसी प्रकार से ढेरों की ढेरों बातें ऐसी होती है जिसमें गलती होती है विश्वामित्र आये और कहने लगे अपने दोनों बच्चों को हमारे सुपुर्द कर दीजिये हमको यज्ञ की रक्षा के लिये इनकी जरूरत है सारे घर में कुहराम मच गया मंत्रियों ने विरोध किया नौकरों ने विरोध किया हर एक ने विरोध किया अरे जरा- जरा से बच्चे हो इनको कहाँ ले जाते हो राक्षसों से लड़ाने ले जा रहे हो अरे यह राक्षसों से लड़ेंगे क्या। अरे यह तो मारे जायेंगे बेचारे अरे यह कैसा विश्वामित्र आ गया और कैसे इनके गुरु हैं सब लोगों ने एकदम शुरू से आखिरी तक निंदा की। लेकिन वास्तव में वह नफे की बात थी।

🔵 विश्वामित्र आये थे उस समय तो नहीं बताया था उन्होंने लेकिन पीछे बताया कि हमने तुम्हें बला विद्या और अतिबला विद्या दोनों को सिखाने के लिये हम लाये हैं गायत्री और सावित्री का रहस्य सिखाने के लिए लाये हैं इससे आपको दोनों फायदे होंगे। रामचंद्र जी को ढेरों के ढेरों फायदे हुए शंकर जी का धनुष बहुत भारी था उसको कोई उठा तक नहीं सकता था कितने राजा लगे थे लेकिन उठाने में समर्थ नहीं हो सके लेकिन रामचंद्र जी ने उठाया और उठाया ही नहीं तोड़कर फेंक दिया। और सीता जी से ब्याह हो गया। सीता जी से ब्याह करने के लिए रावण से लेकर कितने राजा महाराजा बैठे हुए थे सबके पल्ले नहीं पड़ी लेकिन रामचंद्र जी के पल्ले पड़ गई।

🔴 रावण जो न जाने कितने को तंग कर रहा था जिसकी सोने की लंका थी उस सारी की सारी को रामचंद्र जी ने तोड़ मरोड़कर फेंक दिया। और रामराज्य की स्थापना करने में समर्थ हो गये, कितने फायदे हुए। फायदा करना आये थे कि नुकसान करने आये थे। बताइये आप। मेरे ख्याल से अगर आपको दूर को देखना नहीं आता है तुरन्त का देखना आता है तो आप भी उन्हीं नौकरों की तरह से कहेंगे जो दशरथ जी के यहाँ नौकरी करते थे और उन सबने कहा था भेजना ठीक नहीं है रानियों ने मना किया था बच्चों को भेजना ठीक नहीं है। लेकिन वो तो नहीं माने और ले गये और ले गये तो नफा हुआ नुकसान नहीं हुआ। रामचंद्र जी की बात मालूम है न आपको मालूम है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/lectures_gurudev/31

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 78)

🌹 आदर्श विवाहों के लिए 24 सूत्री योजना

🔴 4— उपजातियों को बहुत महत्व न दिया जाय:- प्राचीन काल में चार वर्ण थे। प्रत्येक वर्ण के अन्तर्गत गोत्र बचाकर विवाह होते रहें। उपजातियों के कारण विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्ध शिथिल किये जांय।

🔵 5— विधवा या विधुरों से लिए समान सुविधा-असुविधा:- पुरुष और स्त्री के अधिकारों और कर्तव्यों में बहुत कुछ समानता है। इसलिए विधवा और विधुरों को भी समान सुविधा-असुविधा उपलब्ध हों।

🔴 साथी के मरने के बाद शेष जीवन एकाकी व्यतीत करना दोनों के लिए प्रशंसनीय है। पर यदि वे पुनः विवाह करना चाहें तो उन्हें समान रूप से सुविधा रहे। विधुरों के लिए यही उचित है कि वे विधवा से विवाह करें। विधवाओं का विवाह उतना ही अच्छा या बुरा माना जाय जितना विधुरों का।

🔵 6—आर्थिक आदान प्रदान न हो:- न तो कन्या के मूल्य के रूप में लड़की वाले वर पक्ष से कुछ धन मांगें और न लड़के वाले वर की कीमत लड़की वाले से पाने की आशा करें।

🔴 आदिवासियों, वन्य-जातियों, पिछड़े लोगों और पहाड़ी लोगों में वह रिवाज है कि वे लड़की का मूल्य लड़के से वसूल करते हैं। ऊंचे वर्ण वालों में ऐसा तभी होता है जब बूढ़े या अयोग्य लड़के को कोई लोभी बाप अपनी कन्या देता है, पर पिछड़े लोगों में कन्या का मूल्य लेना आम रिवाज है। इसी प्रकार सर्वत्र लोगों में लड़के की कीमत लड़की वालों से दहेज के रूप में तय की जाती है और उसमें कमी रह जाय तो अवांछनीय उपायों से उसे वसूल किया जाता है।

🔵 यह दोनों ही रिवाज समान रूप से घृणित और गर्हित हैं। इन्हें अनैतिक एवं मानवीय आदर्शों के विपरीत भी कहा जा सकता है। इन दोनों ही जंगली रिवाजों को सभ्य समाज में पूर्णतया बहिष्कृत किया जाना चाहिए। विवाह जैसे दो आत्माओं के एकीकरण संस्कार को आर्थिक सौदे-बाजी से सर्वथा दूर रखा जाय।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 29)

🌞 दिए गए कार्यक्रमों का प्राण-पण से निर्वाह

🔴 इस संदर्भ में प्रह्लाद का फिल्म चित्र आँखों के आगे तैरने लगा। वह समाप्त न होने पाया था कि ध्रुव की कहानी मस्तिष्क में तैरने लगी। इसका अंत न होने पाया कि पार्वती का निश्चय उछलकर आगे आ गया। इस आरम्भ के उपरान्त महामानवों की, वीर बलिदानियों की, संत सुधारक और शहीदों की अगणित गाथाएँ सामने तैरने लगीं। उनमें से किसी के भी घर-परिवार वालों ने, मित्र-सम्बन्धियों ने समर्थन नहीं किया था। वे अपने एकाकी आत्मबल के सहारे कर्तव्य की पुकार पर आरूढ़ हुए और दृढ़ रहे। फिर यह सोचना व्यर्थ है कि इस समय अपने इर्द-गिर्द के लोग क्या करते और क्या कहते हैं? उनकी बात सुनने से आदर्श नहीं निभेंगे। आदर्श निभाने हैं, तो अपने मन की ललक, लिप्साओं से जूझना पड़ेगा। इतना ही नहीं इर्द-गिर्द जुड़े हुए उन लोगों की भी उपेक्षा करनी पड़ेगी, जो मात्र पेट-प्रजनन के कुचक्र में ही घूमते और घुमाते रहे हैं।

🔵 निर्णय आत्मा के पक्ष में गया। मैं अनेक विरोध और प्रतिबंधों को तोड़ता, लुक-छिपकर निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा और सत्याग्रही की भूमिका निभाता हुआ जेल गया। जो भय का काल्पनिक आतंक बनाया गया था, उसमें से एक भी चरितार्थ नहीं हुआ।

🔴 छुटपन की एक घटना इन दोनों प्रयोजनों में और भी साहस देती रही। गाँव में एक बुढ़िया मेहतरानी घावों से पीड़ित थी। दस्त भी हो रहे थे। घावों में कीड़े पड़ गए थे। बेतरह चिल्लाती थी, पर कोई छूत के कारण उसके घर में नहीं घुसता था। मैंने एक चिकित्सक से उपचार पूछा। दवाओं का एकाकी प्रबन्ध किया, उसके घर नियमित रूप से जाने लगा। चिकित्सा के लिए भी परिचर्या के लिए भी, भोजन व्यवस्था के लिए भी। यह सारे काम मैंने अपने जिम्मे ले लिए। मेहतरानी के घर में घुसना, उसके मल-मूत्र से सने कपड़े धोना आज से ६५ वर्ष पूर्व गुनाह था। जाति बहिष्कार कर दिया गया। घर वालों तक ने प्रवेश न करने दिया। चबूतरे पर पड़ा रहता और जो कुछ घर वाले दे जाते, उसी को खाकर गुजारा करता। इतने पर भी मेहतरानी की सेवा नहीं छोड़ी। यह पंद्रह दिन चली और वह अच्छी हो गई। वह जब तक जीवित रही, मुझे भगवान् कहती रही। उन दिनों १३ वर्ष की आयु में भी अकेला था। सारा घर और सारा गाँव एक ओर। लड़ता रहा, हारा नहीं। अब तो उम्र कई वर्ष और अधिक बड़ी हो गई थी। अब क्यों हारता?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/diye.2

👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 29)

🌞  हिमालय में प्रवेश

अपने और पराये

🔵 आज भेरों घाटी पार की। तिब्बत से व्यापार करने के लिए नैलंग घाटी का रास्ता यहीं से है। हर्षिल के जाड़ और खापा व्यापारी इसी रास्ते तिब्बत के लिए माल बेचने ले जाते हैं और बदले में उधर से ऊन आदि लाते हैं। चढ़ाई बहुत कड़ी होने के कारण थोड़ी-थोड़ी दूर चलने पर ही सांस फूलने लगता था और बार-बार बैठने एवं सुस्ताने की आवश्यकता अनुभव होती थी।

🔴 पहाड़ की चट्टान के नीचे बैठा सुस्ता रहा था। नीचे गंगा इतने जोर से गर्जन कर रही थी जितनी रास्ते भर में अन्यत्र नहीं सुना। पानी के छींटे उछल कर तीस-चालीस फुट तक ऊंचे आ रहे थे। इतना गर्जन-तर्जन, इतना जोश, इतना तीव्र प्रवाह यहां क्यों है, यह जानने की उत्सुकता बढ़ी और ध्यान पूर्वक नीचे झांककर देखा तथा दूर-दूर तक दृष्टि दौड़ाई।

🔵 दिखाई दिया कि यहां गंगा दोनों ओर सटे पहाड़ों के बीच बहुत छोटी सी चौड़ाई में होकर गुजरती है। यह चौड़ाई मुश्किल से पन्द्रह-बीस फुट होगी। इतनी बड़ी जलराशि इतनी तंग जगह में होकर गुजरे तो वहां प्रवाह की तीव्रता होनी ही चाहिये। फिर उसी मार्ग में कई चट्टानें पड़ी थीं, जिनसे जलधारा तेजी से टकराती थी उस टकराहट से ही घोर शब्द हो रहा था और इतनी ऊंची उछालें छींटों के रूप में मार रहा था। गंगा के प्रचण्ड प्रवाह का दृश्य यहां देखते नहीं बनता था।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 28)

🌞  हिमालय में प्रवेश

अपने और पराये

🔵 जितनी यात्रा करके हम थक जाते हैं उससे कहीं अधिक चढ़ने उतरने और चलने का काम इन्हें करना पड़ता है। कोई मनोरंजन के साधन भी नहीं। कहीं हाथ से कती ऊन के बने कहीं सूती फटे टूटे कपड़ों में ढके थे फिर भी वे सब बहुत प्रसन्न दीखते थे। खेतों पर काम करती हुई स्त्रियां मिलकर गीत गाती थीं। उनकी भाषा न समझने के कारण उन गीतों का अर्थ तो समझ में न आता था पर उल्लास और सन्तोष जो उनमें से टपका पड़ता है उसे समझने में कुछ भी कठिनाई नहीं हुई।

🔴 सोचता हूं अपने नीचे के प्रान्तों के लोगों के पास यहां के निवासियों की तुलना में धन, सम्पत्ति, शिक्षा, साधन, सुविधा, भोजन मकान सभी कुछ अनेक गुना अधिक है। उन्हें श्रम भी काफी कम करना पड़ता है फिर भी लोग अपने को दुःखी और असन्तुष्ट ही अनुभव करते हैं, हर घड़ी रोना ही रोते रहते हैं। दूसरी ओर यह लोग हैं कि अत्यधिक कठिन जीवन बिता के जो निर्वाह योग्य सामग्री प्राप्त हो जाती है उसी से काम चला लेते हैं और सन्तुष्ट रहकर शान्ति का जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसा यह अन्तर क्यों है?

🔵 लगता है—असन्तोष एक प्रवृत्ति है जो साधनों से नहीं तृष्णा से सम्बन्धित है। साधनों से तृष्णा तृप्त नहीं होती वरन् सुरसा के मुंह की तरह और अधिक बढ़ती है। यदि ऐसा न होता तो इसे पहाड़ी जनता की अपेक्षा अनेक गुने सुख साधन रखने वाले असन्तोष क्यों रहते? और स्वल्प साधनों के होते हुए भी यह पहाड़ी लोग गाते बजाते हर्षोल्लास से जीवन क्यों बिताते?

🔴 अधिक साधन हों तो ठीक है। उनकी जरूरत भी है, पर वे जितने मिल सकें उतने से प्रसन्न रहने और परिस्थिति के अनुसार अधिक प्राप्ति करने का प्रयत्न करने की नीति को क्यों त्यागा जाय? और क्यों अशांत और असन्तुष्ट रहकर उपलब्ध ईश्वरीय उपहार का तिरष्कार किया जाय?

🔵 सभ्यता की अन्धी दौड़ में अधिक खर्च और अधिक असन्तुष्ट रहने का जो रास्ता हमने अपनाया है, वह सही नहीं है। इस तथ्य का प्रतिपादन यह पहाड़ी जनता करती है भले वह इस विषय पर भाषण न दे सके, भले ही वह इस आदर्श पर निबन्ध न लिख सके।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 28)

🌞 दिए गए कार्यक्रमों का प्राण-पण से निर्वाह

🔴 इसके बाद दूसरी परीक्षा बचपन में ही तब सामने आई जब काँग्रेस का असहयोग आंदोलन प्रारंभ हुआ। गाँधीजी ने सत्याग्रह आंदोलन का बिगुल बजाया। देश-भक्तों का आह्वान किया और जेल जाने और गोली खाने के लिए घर से निकल पड़ने के लिए कहा।

🔵 मैंने अन्तरात्मा की पुकार सुनी और समझा कि यह ऐतिहासिक अवसर है। इसे किसी भी कारण चुकाया नहीं जाना चाहिए। मुझे सत्याग्रहियों की सेना में भर्ती होना ही चाहिए। अपनी मर्जी से उस क्षेत्र के भर्ती केंद्र में नाम लिखा दिया। साधन सम्पन्न घर छोड़कर नमक सत्याग्रह के लिए निर्धारित मोर्चे पर जाना था। उन दिनों गोली चलने की चर्चा बहुत जोरों पर थी। लंबी सजाएँ-काला पानी होने की भी। ऐसी अफवाहें सरकारी पक्ष के, किराए के प्रचारक जोरों से फैला रहे थे, ताकि कोई सत्याग्रही बने नहीं। घर वाले उसकी पूरी-पूरी रोकथाम करें। मेरे सम्बन्ध में भी यही हुआ। समाचार विदित होने पर मित्र, पड़ोसी, कुटुम्बी, सम्बन्धी एक भी न बचा जो इस विपत्ति से बचाने के लिए जोर लगाने के लिए न आया हो। उनकी दृष्टि से यह आत्म-हत्या जैसा प्रयास था।

🔴 बात बढ़ते-बढ़ते जवाबी आक्रमण की आई। किसी ने अनशन की धमकी दी, तो किसी ने आत्म-हत्या की। हमारी माता जी अभिभावक थीं। उन्हें यह पट्टी पढ़ाई गई कि लाखों की पैतृक सम्पत्ति से वे मेरा नाम खारिज कराकर अन्य भाइयों के नाम कर देंगी। भाइयों ने कहा कि घर से कोई रिश्ता न रहेगा और उसमें प्रवेश भी न मिलेगा। इसके अतिरिक्त भी और कई प्रकार की धमकियाँ दीं। उठाकर ले जाया जाएगा और डाकुओं के नियंत्रण में रहने के लिए बाधित कर दिया जाएगा।

🔵 इन मीठी-कड़वी धमकियों को मैं शान्तिपूर्वक सुनता रहा। अंतरात्मा के सामने एक ही प्रश्न रहा कि समय की पुकार बड़ी है या परिवार का दबाव। अंतरात्मा की प्रेरणा बड़ी है या मन को इधर-उधर डुलाने वाले असमंजस की स्थिति। अंतिम निर्णय किससे कराता? आत्मा और परमात्मा दो को ही साक्षी बनाकर और उनके निर्णय को ही अंतिम मानने का फैसला किया।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/diye

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 77)

🌹 आदर्श विवाहों के लिए 24 सूत्री योजना

आदर्श विवाहों की एक रूपरेखा नीचे प्रस्तुत की जा रही है—इसके जितने अंश जहां पूरे किये जा सकें वहां उसके लिये पूरा-पूरा प्रयत्न होना चाहिए।

🔴 1— वर-कन्या की आयु:- कन्या की आयु 14 और वर की 18 से कम न हो।
इससे कम आयु के विवाह कानून में भी ‘‘बाल विवाह-विरोधी एक्ट’’ के अनुसार दण्डनीय है और वर-कन्या के स्वास्थ को दुर्बल बनाने वाले हैं। इससे कम आयु के बच्चों का विवाह करना उनके जीवन के साथ खिलवाड़ करना है। इसलिए बाल विवाहों से सर्वथा बचा जाय। उत्तम विवाह तो 20 वर्ष की कन्या तथा 25 वर्ष के लड़कों का है। विवाह की जल्दी न करके बच्चों को शिक्षा तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से विकसित होने देना चाहिये और परिपक्व आयु के होने पर ही उनका विवाह करना चाहिए।

🔵 2— अनमेल विवाह न हो:- कन्या वर में आयु शिक्षा, स्वभाव आदि की दृष्टि से उपयुक्तता का ध्यान रखा जाय। विवाह दोनों की सहमति से हो।
कन्या से वर की आयु 10 वर्ष से अधिक बड़ी न हो। जिनमें इससे अधिक अन्तर होता है वे अनमेल विवाह कहे जाते हैं। अनमेल विवाहों से दाम्पत्ति जीवन में गड़बड़ी उत्पन्न होती है। लड़की-लड़कों को एक दूसरे की स्थिति से भली प्रकार परिचित करा दिया जाय और वे बिना दबाव के उसे स्वीकार करते हों तो ही उसे पक्का किया जाय। अभिभावक यथा सम्भव उपयुक्त जोड़ा मिलाने का अधिक से अधिक ध्यान रखें।

🔴 3— दो परिवारों की सांस्कृतिक समानता:- वर-पक्ष और कन्या-पक्ष के परिवारों में विचार, आदर्श आहार-विहार, व्यवसाय आदि की समानता रहे।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि वर्णों के अन्तर्गत जो उपजातियां हैं, उनमें विवाह की रोक न हो। इससे उपयुक्त लड़की-लड़के ढूंढ़ने का क्षेत्र अधिक व्यापक हो जायगा। आजकल एक-एक वर्ण के अन्तर्गत दसियों उपजातियां हैं और वे परस्पर रोटी बेटी व्यवहार नहीं करतीं। कोई-कोई तो अपने को ऊंच और दूसरी समान उपजाति वाले को नीच मानते हैं। इस तरह की रूढ़िवादिता अब समाप्त करने की आवश्यकता है। हिन्दू समाज का चार भागों में बंटा रहना भी कम नहीं है, इससे अधिक खण्डों में उसे बांटने से हर दृष्टि से हम कमजोर होते चले जायेंगे। विवाह सम्बन्धी अनेक समस्याएं तो इसी प्रतिबन्ध के कारण उपजी हैं।

🔵 यह समानता वर-कन्या को एक दूसरे के लिये अनुकूल रखने में सहायक होती है। शाकाहारी, मांसाहारी, बहुत दूर, ठण्डे प्रान्त, गरम प्रान्त, आस्तिक, नास्तिक, भिन्न भाषा-भाषी, भिन्न धर्मावलंबी, भारतीय ढंग, पश्चिमी ढंग, सुधारवादी, अमीर-गरीब जैसी भिन्नताएं परिवारों में रहेंगी तो उनमें पले हुये लड़की-लड़के आपस में ठीक तरह घुल-मिल न सकेंगे। इसलिये समान स्थिति के सम्बन्ध करने में ही ध्यान रखा जाय। लोग अपने से बहुत अधिक ऊंचे स्तर के घर या लड़के न ढूंढ़ें।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आप अपने आपको पहचान लीजिये (भाग 1)

🔴 भाइयों कई बार बड़े- बड़ों से गलती हो जाती है। लोग नफे को नुकसान समझ लेते हैं नुकसान को नफा समझ लेते हैं। लाटरी का नंबर यदि मैं आपसे बता दूँ कि फलाना नंबर खुलेगा और आपसे दो रुपये माँगूँ कि आप दो रुपये जमा कीजिये लाटरी का टिकट खरीदने के लिये तो आपको क्या लगेगा नुकसान लगेगा। जाने मिलेगा कि नहीं मिलेगा और मिल जाये तो तो तो फिर आपको नफा मालूम पड़ेगा इसी तरीके से बहुत सी बातें ढेरों की ढेरों जिंदगी में ऐसी है जिसे कि आदमी नुकसान समझता है पर उसमें नफा होता है। नफा होता है और वह नुकसान समझता है।

🔵 शेर का छोटा सा बच्चा भेड़ों के साथ में था शेर एक आ गया और उसने कहा तू तो मेरे साथ चल तू कहाँ भेड़ों में पड़ा है तो उसको बुरा लगा कि न जाने यह कौन है और मुझे कहाँ ले जा रहा है और जिनके साथ में हमेशा से रहा था उनसे मुझे छुड़ा रहा है यह मुझे बहुत गलत सलाह दे रहा है। लेकिन जब पानी में उसकी शकल दिखाई और उसको समझ में गया कि मैं शेर हूँ तो वह नफे में रहा नहीं तो सारी जिंदगी उसे भेड़ों की तरीके से रहना पड़ता। और गंदी जिंदगी जिया होता। लेकिन उस समय तो उसे नुकसान लगा होगा। बाद में फायदा लगा होगा।

🔴 बीज बोया जाता है जमीन में तो यह मालूम पड़ता है कि नुकसान हो गया। बीज चला गया। बीज कितने दाम का आता है महँगा आता है आजकल लेकिन बीज नुकसान हो गया लेकिन जब उसकी फसल तैयार होकर आती है कोठे और कुठीले भर जाते हैं तब मालूम पड़ता है कि नहीं गलती नहीं हुई थी यह ठीक सलाह दी गई थी हमको। हमको बीज बोने की सलाह देकर हमारा बीज छीना नहीं गया था नुकसान की तरफ ढकेल नहीं दिया गया था।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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