सोमवार, 11 जनवरी 2021

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ९६)

मंजिल नहीं, पड़ाव है—सवितर्क समाधि
    
योग साधक के लिए यह अवस्था बड़ी खतरनाक होती है। इतने सारे चित्र-विचित्र रंगों का गर्दो-गुबार उसे पागल कर सकता है। यहाँ चाहिए उसे सद्गुरु की मदद। जो उसे सभी भ्रमों से उबार के बचा लें। अराजकता का जो तूफान यहाँ उठ रहा है, उससे उसे निकाल लें। सद्गुरु ही सहारा और आसरा होते हैं यहाँ पर साधक के लिए। क्योंकि यह अवस्था कोई एक दिन की नहीं है। कभी-कभी तो यहाँ कई साल और दशक भी लग जाते हैं और गुरु का सहारा न मिले तो कौन जाने साधक को पूरा जीवन ही यहाँ गुजारना पड़े। पशु, मनुष्य और देवता सभी तो मिल जाते हैं यहाँ। अज्ञानी-ज्ञानी एवं महाज्ञानी सभी का जमघट लगता है यहाँ पर।
    
अनुभवी इस सच को जानते हैं कि अपने अस्तित्व में परिधि से केन्द्र तक बहुत अवस्थाएँ हैं। जो एक के बाद एक नये-नये रूपों में प्रकट होती है। यह अंतर्यात्रा योग साधक के जीवन में सम्पूर्ण रहस्यमय विद्यालय बनकर आती है। एक कक्षा के बाद दूसरी कक्षा। बोध के बदलते स्तर एवं बनती-मिटती सीमाएँ। बाल विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय  तक सारे स्तर यहाँ अपने अस्तित्व में खुलते बन्द होते हैं। इन सभी स्तरों को एक के बाद उत्तीर्ण करना बड़ा कठिन है। अनुभव तो यही कहता है कि सद्गुरु के बिना इस भँवर से शायद ही कोई विरला निकल पाये।
    
सद्गुरु कृपा हि केवलम्। सवितर्क से निवितर्क तक मार्ग है। सवितर्क समाधि तक तो अनेकों आ पहुँचते हैं। पर निवितर्क तक कोई विरला ही पहुँच पाता है। इन्द्रिय अनुभूति से सवितर्क की अवस्था कठिन तो है, पर सम्भव है। पर सवितर्क से निर्वितर्क की अवस्था अति जटिल है। योग सूत्रों के बौद्धिक व्याख्याकार भले ही कुछ कहते रहें, भले ही वे इन दोनों अवस्थाओं में मात्र एक अक्षर का अंतर माने, पर यहाँ की सच्चाई कुछ और ही है। यहाँ तक कि यहाँ होने वाली एक हल्की सी भूल भी साधक की सम्पूर्ण साधना का समूचा सत्यानाश कर सकती है। ज्यादातर साधक इसी बिन्दु पर आकर या तो उन्मादी हो जाते हैं या पतित।
    
यहाँ उपजने वाले भ्रम साधकों को उन्मादी बनाते हैं और किसी पूर्व समय के दुष्कृत कर्मबीज साधकों को पतन के अँधेरों में ढँक देता है। बड़ी पीड़ादायक अवस्था है यह। संयम के साथ जितनी सावधानी यहाँ अपेक्षित है, उतनी शायद कहीं भी और कभी भी नहीं होती।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १६८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

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