रविवार, 18 फ़रवरी 2018

👉 अच्छा बनने की प्रेरणा

🔶 एक नगर में एक चोर रहता था। एक दिन उसने बड़ी चोरी करने की योजना बनाई। उसमें प्राण जाने का भी खतरा था। अपने चंचल मन को स्थिर करने, सफलता की कामना करने तथा बाधाओं का निवारण करने के लिए वह चोरी से पूर्व एक मंदिर में मनौती मांगने पहुंचा। पूजा के बाद जब चोर मंदिर का घंटा बजाने लगा तो वह टूटकर उसके सिर पर आ गिरा जिससे उसकी मृत्यु हो गई। चोर के सूक्ष्म शरीर को यमदूत धर्मराज के पास ले गए।

🔷 धर्मराज ने चित्रगुप्त से उसके पाप-पुण्य का लेखा देखने को कहा। बही देखने से पता चला कि चोर ने अपने जीवन में एक दिन एक भूखे भिखारी को खाना खिलाया था। उस पुण्य के परिणाम स्वरूप उसे एक घंटे के लिए स्वर्ग ले जाकर उसकी इच्छापूर्ति करने का विधान था। जब स्वर्ग में चोर से उसकी कोई इच्छा बताने को कहा गया तो वह विचार करके बोला- “मुझे एक घंटे के लिए इंद्रासन चाहिए।”

🔶 चोर की इच्छापूर्ति के लिए देवराज इंद्र ने अपना सिहासन त्याग दिया और एक घंटे के लिए उसे स्वर्ग का राज्य दे दिया गया। इंद्रासन पर विराजते ही चोर का विवेक जाग उठा। उसने सोचा- ‘जब एक भूखे को खाना खिलाने मात्र से मुझे एक घंटे के लिए इंद्रासन मिल सकता है तो कोई ऐसा शुभ कार्य करना चाहिए जिसके प्रताप से मैं सदैव स्वर्ग का सुख भोग सकूं।’

🔷 उसने समस्त देवताओं तथा ऋषि-मुनियों का श्रद्धापूर्वक यथायोग्य सत्कार किया। उसके बाद धन-संपत्ति के स्वामी कुबेर को बुलाकर सभी अमूल्य संपत्ति दान करने का निर्देश दिया। उसने ऋषि वशिष्ठ को कामनापूर्ति करने वाली सुंदर कामधेनु दे दी। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र को आद्वितीय अश्व और ऋषि अगस्त्य को ऐरावत हाथी भेंट कर दिया। गलत काम करने वाले लोग हमेशा दंड से ही नहीं सुधरते, उनके किसी छोटे से अच्छे कार्य की प्रशंसा से भी उन्हें अच्छा बनने की प्रेरणा मिल सकती है।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 19 Feb 2018


👉 आज का सद्चिंतन 19 Feb 2018


👉 सादा जीवन-उच्च विचार

🔷 मानवी सत्ता शरीर और आत्मा का सम्मिश्रण है। शरीर प्रकृति पदार्थ है। उसका निर्वाह स्वास्थ्य, सौन्दर्य, अन्न-जल जैसे प्रकृति पदार्थों पर निर्भर है। आत्मा चेतन है। परमात्मा चेतना का भाण्डागार है। आत्मा और परमात्मा की जितनी निकटता, घनिष्टïता होगी, उतना ही अंतराल समर्थ होगा। व्यक्तित्व विकसित-परिष्कृत होगा। शरीरगत प्रखरता और चेतना क्षेत्र की पवित्रता जिस अनुपात में बढ़ती है, उतना ही आत्मा और परमात्मा के बीच आदान-प्रदान चल पड़ता है। महानता के अभिवर्धन का यही मार्ग है। इसी निर्धारण पर सच्ची प्रगति एवं समृद्धि अवलम्बित है।
  
🔶 दो तालाबों के बीच नाली का सम्पर्क-संबंध बना देने से ऊँचे तालाब का पानी नीचे तब तक आता रहता है, जब तक कि दोनों की सतह समान नहीं हो जाती। आत्मा और परमात्मा को आपस में जोडऩे वाली उपासना यदि सच्ची हो, तो उसका प्रतिफल सुनिश्चित रूप से यह होना चाहिए कि जीव और ब्रह्मï में गुण, कर्म, स्वभाव की समता दृष्टिïगोचर होने लगे। उपासना निकटता को कहते हैं। आग और ईंधन निकट आते हैं, तो दोनों एक रूप हो जाते हैं। इसके लिए साधक को साध्य के प्रति समर्पण करना होता है। उसके अनुशासन को जीवन नीति बनाना पड़ता है। जो इतना साहस और सद्भाव जुटा सके, वह सच्चा भक्त। भक्त और भगवान् की एकता प्रसिद्ध है। भक्त को अपनी आकांक्षा, विचारणा, आदत एवं कार्य पद्धति में अधिकाधिक उत्कृष्टïता का समावेश करना होता है। आदर्शों का समुच्चय भगवान ही, भक्त का इष्ट एवं उपास्य है।
  
🔷 भगवान् की प्रतिमाओं के पीछे उच्चस्तरीय चिंतन-चरित्र की भावना है। वह भावना न हो, तो प्रतिमाएँ खिलौना भर रह जाती हैं। सदाशयता के प्रति प्रगाढ़ आस्था बनाने में जिसका अंतराल जितना सफल हुआ, वह उसी स्तर का भगवत् भक्त है। भक्त का गुण, कर्म, स्वभाव ईश्वर के सहचर पार्षदों जैसा होना चाहिए। जिस ईश्वर भक्ति के प्रतिफलों का वर्णन स्वर्ग, मुक्ति, ऋद्धि-सिद्धि आदि के रूप में किया गया है, उसमें एकत्व अद्वैत, विलय, विसर्जन की शर्त है। साधक भगवान् को आत्मसात्ï करता है और उसके निर्धारण, अनुशासन में अपनाने को ही गर्व-गौरव और हर्ष-संतोष अनुभव करता है।
  
🔶 शब्द जंजाल से फुसलाने, छुटपुट उपहार देकर बरगलाने और स्वार्थ सिद्धि के लिए बहेलिये, मछुवारे जैसे छद्म प्रदर्शनों की विडम्बना रचना न तो ईश्वर भक्ति है और न उसके बदले किसी बड़े सत्परिणाम की आशा की जानी चाहिए। ईश्वर न्यायकारी है। उसके दरबार में पात्रता की कसौटी पर हर खरे खोटे को परखा जाता है। प्रामाणिकता ही अधिक अनुग्रह एवं अनुदान का कारण होती है। यह कार्य प्रार्थना, याचना के रूप में पूजा-अर्चा मात्र करते रहने से शक्य नहीं। ईश्वर भक्ति, कर्मकाण्ड प्रधान नहीं। उसमें भावना, विचारणा और गतिविधियों को अधिकाधिक उत्कृष्ट बनाना होता है। उसकी उपेक्षा करके मनुहार तक सीमित व्यक्ति आत्मिक उपलब्धियों से वंचित ही रहते हैं। उनके पल्ले थकान, निराशा और खीझ के अतिरिक्त और कुछ नहीं पड़ता।
  
🔷 जन्म-जन्मान्तरों से संचित कुसंस्कारों को हठपूर्वक निरस्त करना पड़ता है। अपने आपे से, अभ्यस्त ढर्रे से संघर्ष करने का नाम तपश्चर्या है। यह आत्मिक प्रगति का प्रथम चरण है। दूसरा है योग साधना। इसका अर्थ है  दैवी विशिष्टïताओं के साथ व्यक्तित्व को जोड़ देना। गुण, कर्म, स्वभाव में चिंतन और चरित्र में उत्कृष्टïता, आदर्शवादिता का समावेश करना। आत्मशोधन और आत्म परिष्कार की इस उभयपक्षीय प्रक्रिया को गलाई, ढलाई, धुलाई, रंगाई भी कहते हैं। इन्हीं को पवित्रता-प्रखरता का युग्म भी कहते हैं। सज्जनता और साहसिकता का समन्वय ही आत्मिक प्रगति का सच्चा स्वरूप है। इस प्रगति के साथ भौतिक क्षेत्र के जंजाल, प्रपंच स्वभावत: घटने लगते हैं और सादा जीवन, उच्च विचार अक्षरश: चरितार्थ होने लगते हैं।
  
🔶 अन्न, जल, वायु पर शरीर की स्थिरता एवं प्रगति निर्भर है। आत्मा की प्रगति के लिए उपासना, साधना एवं आराधना के तीन आधार चाहिए। उपासना अर्थात् ईश्वर की इच्छा को प्रमुखता, उसके अनुशासन के प्रति अटूट श्रद्धा, घनिष्ठïता के लिए निर्धारित उपासना प्रक्रिया में भावभरी नियमितता। साधना अर्थात्ï जीवन साधना। संचित कुसंस्कारों एवं अवांछनीय आदतों-मान्यताओं का उन्मूलन। आराधना अर्थात्ï लोकमंगल की सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने में उदार सहयोग, श्रमदान, अंशदान। यह तीनों ही प्रयास साथ-साथ चलने चाहिए। इनमें से एक भी ऐसा नहीं जो अपने आप में पूर्ण हो। इसमें से एक भी ऐसा नहीं, जिसे छोडक़र प्रगति पथ पर आगे बढऩा संभव हो सके।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आत्मरक्षा मनोरोगों से भी करनी चाहिए (भाग 5)

🔶 प्रतिकूलता को सहन न कर सकना, मतभेद को स्वीकार न करना, जो चाहा गया है वही होना जैसा स्वभाव बना लेने पर आवेश आने लगता है। अधीर, जल्दबाज, समय की प्रतीक्षा न कर सकने वाले को अगली बार के प्रयास में तालमेल बैठाने जैसी सम्भावनाओं को गँवा बैठने पर आवेश चढ़ दौड़ता है। दूसरों की तनिक भी अवज्ञा, उपेक्षा सहन न कर सकने वाले भी उत्तेजित रहते देखे गये हैं। उनमें सामने वाले की स्थिति का सही निर्णय कर सकने तक की क्षमता नहीं रहती। जब बात पूरी तरह सुनी समझी ही नहीं गई तो उसमें भ्रम रहना स्वाभाविक है। आवेश भ्रमवश आया है या वस्तुस्थिति समझकर, हर हालत में उसकी परिणति हानिकारक ही होती है।

🔷 कुछ उत्तेजनाएँ ऐसी होती है जिनमें सामने वाले की गलती तो नहीं, अपनी अभिलाषा और उतावली ही प्रधान होती है। इसके कारण भी मस्तिष्क का सन्तुलन बिगड़ता है और सही निर्णय न कर पाने की स्थिति बनती है। ऐसी मनःस्थिति को सनक कहा जाता है। सनक वह, जिसमें औचित्य-अनौचित्य का, सम्भव-असम्भव का, लाभ-हानि का कुछ भी भान न रहे और अवांछनीय चिन्तन को चरितार्थ करने जैसी उद्दण्डता उभरे। सनकों की संख्या अधिक है। इनमें दो ऐसी हैं जो बहुतों पर चढ़ दौड़ती हैं और उन्हें बेतरह हैरान करती हैं। इनमें से एक है कामुकता, दूसरी है लोभ-लिप्सा। दोनों की प्रकृति तो भिन्न है फिर भी प्रतिक्रिया और परिणाम में समान हैं। वे मनुष्य के विवेक का बुरी तरह अपहरण करती हैं।

🔶 दाम्पत्य जीवन की एक मर्यादा है। नर-नारी एक सूत्र में बँधे हैं और प्रणय की सुविधा पाने के बदले उसके साथ जुड़ी हुई भारी भरकम जिम्मेदारियाँ उठाते हैं। कामुकता की स्वच्छन्दता रहने पर समाज का ढाँचा ही चरमरा जायेगा। इस आधार पर जो घनिष्ठता उत्पन्न होती है उसका निर्वाह मखौल बनकर रह जायेगा। इसी प्रकार कामुक आचरण से उत्पन्न होने वाले बालकों का भविष्य अन्धकार के गर्त में गिरेगा तथा गृहस्थ जीवन में भी निश्चिन्तता न रहेगी। विश्वास की चरम सीमा जिस दाम्पत्य जीवन में भी रहनी चाहिए, उसके न रहने पर परिवार संस्था का स्वरूप ही समाप्त हो जायेगा। ऐसे-ऐसे अनेक कारण हैं जिन्हें ध्यान में रखते हुए समाज शास्त्रियों और नीति शास्त्रियों के संयुक्त प्रयास से कामुकता को दाम्पत्य जीवन तक सीमित किया गया है। यह औचित्य पूर्ण अनुशासन है जिसे इच्छा या अनिच्छा से निभाया ही जाना चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 The Social-Revolution (Part 2)

🔶 Wherever BHAGWAN takes AVTAR, it is believed there that it happened for the purpose of elimination of unrighteousness and establishment of righteousness. We too will have to adopt both the activities simultaneously if within us comes the inspiration of BHAGWAN. We must take a stand to fight against undesirability and immorality around us and promote goodness within us and others. We must not surrender before injustice. Wherever is seen misconduct, we must gather courage to non-cooperate, oppose or whatsoever possible be done according to circumstances. Only this way orderliness can be managed in society.
                                       
🔷 Coward man, feared man, man afraid of trouble, man afraid of hooliganism cannot remove those evils and flaws and needs of removal of injustice and establishment of orderliness will not be fulfilled. To make future bright we require enlightening valour and courage in mass-mentality.
                                                
🔶 The human race seems heading to commit suicide. To stop that automated process we must revive theocracy again.  Big job require big means and big means can be managed by only big personality. Very this is my objective for which I desire greatness to be created within every conscience. Every person should concentrate more on sacrificing for social life than for personal luxuries. By reorganization I mean that we should strive for new person, new society and new Age. For this it is essential for all of us to unite for the job of person-building in order to make human being excellent and well developed.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 गुरुगीता (भाग 45)

👉 साधन-सिद्धि गुरुवर पद नेहू

🔷 गुरुगीता के प्रत्येक महामंत्र में अपरिमित आध्यात्मिक ऊर्जा समायी है। वे धन्य हैं, अति बड़भागी हैं, जो इनका गायन करते हैं, जिनका मन इन महामंत्रों की साधना करने में अनुरक्त हुआ है; क्योंकि ऐसे अपूर्व साधकों को सहज ही सद्गुरु प्रेम की उपलब्धि होगी और यह सद्गुरु प्रेम अध्यात्म जगत् का परम दुर्लभ तत्त्व है। जिसके हृदय में निष्कपट सद्गुरु प्रेम है, उसे सब कुछ अपने आप ही सुलभ हो जाता है। उसे किसी भी अन्य साधन एवं साधना की जरूरत नहीं रहती, समस्त साधनाओं के सुफल स्वयं ही उसकी अन्तर्चेतना में आ विराजते हैं। सद्गुरु ही आध्यात्मिक जीवन का सार निष्कर्ष है। सही साधना है, वही परम सिद्धि है और उन्हीं की कृपा से उनके ही मार्गदर्शन में साधकगण अपनी साधना को निर्विघ्न पूर्ण कर पाते हैं। तभी तो कहा गया है-‘साधन-सिद्धि गुरुवर पद नेहू’।
  
🔶 गुरुनेह की भावकथा में रमे हुए शिष्यों ने इस गुरु प्रेम कथा के पूर्वोक्त मंत्रों में भगवान् सदाशिव के इन वचनों को पढ़ा है कि गुरुदेव की चरण धूलि का एक छोटा सा कण सेतु बन्ध की भाँति है। जिसके सहारे इस महाभवसागर को सरलता से पार किया जा सकता है। गुरुदेव की उपासना करने में तल्लीन रहना प्रत्येक शिष्य का कर्तृत्व है; क्योंकि उनके अनुग्रह से महान् अज्ञान का नाश होता है। गुरुदेव भगवान् सभी तरह की अभीष्ट सिद्धि देने वाले हैं; उन्हें नमन करना शिष्यों का परम धर्म है। इसका थोड़ा सा भी पालन संसार के महाभय से त्राण करने वाला है। सभी तरह की पीड़ायें गुरु कृपा से स्वयं ही शान्त हो जाती हैं।

🔷 गुरु प्रेम की इस साधना महिमा के अगले क्रम को प्रकट करते हुए देवाधिदेव भगवान् महादेव जगन्माता भवानी से कहते हैं-

पादाब्जं सर्वसंसार दावानल विनाशकम्। ब्रह्मरन्ध्रे सिताम्भोजमध्यस्थं चन्द्रमण्डले॥ ५७॥
अकथादित्रिरेखाब्जे   सहस्रदलमण्डले। हंसपार्श्वत्रिकोणे च स्मरेत्तन्मध्यगं गुरुम् ॥ ५८॥

🔶 गुरुदेव की करुणा की व्याख्या करने वाले इन महामंत्रों में साधना के गहरे रहस्य सँजोये हैं। इन रहस्यों को गुरुभक्त साधकों के अन्तःकरण में सम्प्रेषित करते हुए भगवान् भोलेनाथ के वचन हैं- गुरुदेव के चरण कमल संसार के सभी दावानलों का विनाश करने वाले हैं। गुरुभक्त साधकों को उन सद्गुरु का ध्यान ब्रह्मरन्ध्र में करना चाहिए॥ ५७॥ यह ध्यान चन्द्रमण्डल के अन्दर श्वेत कमल के बीच में सहस्रदलमण्डल पर अकथ आदि तीन रेखाओं से बने हंस वर्ण युक्त त्रिकोण में करना चाहिए॥ ५८॥

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 73

👉 जीवंत विभूतियों से भावभरी अपेक्षाएँ (भाग 7)

(17 अप्रैल 1974 को शान्तिकुञ्ज में दिया गया उद्बोधन)
🔶 मित्रो! जिंदगी की बड़ी कीमत है। जिंदगी लाखों रुपये की कीमत की है, करोड़ों रुपये की है, अरबों-खरबों रुपये की कीमत की है। तुलसीदास भी जिंदगी वाला इंसान था। वासना के लिए जब व्याकुल हुआ, तो ऐसा हुआ कि बस हैरान-ही-हैरान परेशान-ही-परेशान और जब भगवान् की भक्ति में लगा, तो हमारी और आपकी जैसी भक्ति नहीं थी उसकी कि माला फिर रही है इधर और मन फिर रहा है उधर। मन के फिर रहे हैं इधर और सिर खुजा रहे हैं उधर। भजन कर रहे हैं इधर और पीठ खुजा रहे हैं उधर। भला ऐसी कोई भक्ति होती है? तुलसीदास ने भक्ति की, तो कैसी मजेदार भक्ति की कि बस पीपल के पेड़ पर से, बेल के पेड़ पर से कौन आ गया? भूत आ गया। उन्होंने कहा कि हमको भगवान् के दर्शन करा दो। उस भूत ने कहा कि भगवान् के तो नहीं करा सकते, हनुमान् जी के करा सकते हैं। अच्छा! चलो हनुमान् जी के ही करा दो।

🔷 हनुमान् जी वहाँ रामायण सुनने जाते थे। उसने उनके दर्शन करा दिए। तुलसीदास ने हनुमान् जी को पकड़ लिया और कहा कि हमको रामचंद्र जी के दर्शन करा दीजिए। आपने पढ़ा है न तुलसीदास जी का जीवन! उन्होंने क्या किया कि रामचंद्र जी का , जिनका कि वे नाम लिया करते थे, उन रामचंद्र जी को पकड़कर ही छोड़ा। उन्होंने कहा कि रामचंद्र जी का भी ठिकाना नहीं है और मेरा भी ठिकाना नहीं है। दोनों को एक होना होगा या तो मैं रहूँगा या रामचंद्र जी रहेंगे? या तो हनुमान् जी रहेंगे या रामचंद्र जी रहेंगे?

🔶 मैं तो लेकर के हटूँगा। भला ऐसे कैसे हो सकता है कि मैं हनुमान् चालीसा पढ़ूँगा और हनुमान् जी भाग जाएँ और पकड़ में नहीं आएँ? पकड़ में कैसे नहीं आएँगे? हनुमान् को पकड़ में जरूर आना पड़ेगा। हनुमान् जी पकड़ में जरूरत आ गए। हनुमान् जी पकड़ में नहीं आए, हनुमान् जी के ताऊ रामचंद्र जी भी पकड़ में आ गए। दोनों को पकड़ लिया उसने। किसने पकड़ लिया? तुलसीदास ने। हम और आप पकड़ सकते हैं क्या? हम और आप नहीं पकड़ सकते। भूत तो पकड़ सकते हैं? नहीं पकड़ सकते। हनुमान् जी को पकड़ लेंगे? नहीं, हनुमान् जी भी पकड़ में नहीं आएँगे और रामचंद्र जी तो, भला कैसे पकड़ में आ सकते हैं? वे भी नहीं आएँगे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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