बुधवार, 19 जनवरी 2022

👉 तटस्थ रहिए—दुःखी मत हूजिये (भाग ३)

जिस प्रकार आवश्यकता को अविष्कार की जननी कहा जाता है इसी प्रकार दुःख को सुख का जनक मान लिया जाय तो अनुचित न होगा। जिसके सम्मुख दुःख आते हैं वही सुख के लिये प्रयत्न करता है। जिसने गरीबी से टक्कर ली है वही अर्थाभाव दूर करने के लिये अग्रसर होगा। दुःख, तकलीफ ही पुरुषार्थी व्यक्ति की क्रियाशीलता पर धार रखती हैं उस पर पानी चढ़ाती हैं। अन्यथा मनुष्य निकम्मा तथा निर्जीव होकर एक मृतक तुल्य बन कर रह जाये।

सुख में अत्यधिक प्रसन्न होना भी दुःख का एक विशेष कारण है। यह साधारण नियम है कि जो अनुकूल परिस्थितियों में खुशी से पागल हो उठेगा, उसी अनुपात से प्रतिकूल परिस्थितियों में दुःखी होगा। सुख प्रसन्नता का कारण होता है, किन्तु इसका अर्थ कदापि नहीं कि आप उसमें इतना प्रसन्न हो जायें कि आपकी अनुभूतियां सुख की ही गुलाम बन कर रह जाये। वे प्रसन्नता परक परिस्थितियों की ही अभ्यस्त हो जायें। ऐसा होने से आपकी सहन शक्ति समाप्त हो जायेगी और जरा-सा भी कारण उपस्थित होते ही आप अत्यधिक दुःखी होने लगेंगे। अस्तु दुःख से बचने का एक उपाय यह भी है कि सुख की दशा में भी बहुत प्रसन्न न हुआ जाये। सन्तुलन पूर्ण तटस्थ अवस्था का अभ्यास इस दिशा में बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। तटस्थ भाव सिद्ध करने के लिये दुःख से नहीं सुख से अभ्यास करना होगा। जब-जब मनोनुकूल परिस्थितियां प्राप्त हों, सुख का अवसर मिले तब तब साधारण मनोभाव से उसका स्वागत कीजिये। हर्षातिरेकता में न आइये। इस प्रकार प्रसन्नावस्था में जो कार्य किया अथवा सीखा जाता है वह जल्दी सीखा जा सकता है।
हर्ष के समय जो अपना संतुलन बनाये रखता है, विषाद के अवसर पर भी वह सुरक्षित रहता है। दुःख-सुख में समान रूप से तटस्थ रहना इसलिये भी आवश्यक है कि अतिरेकता के समय किसी बात का ठीक निर्णय नहीं किया जा सकता। हर्ष के समय ठीक बात भी गलत लगती है। इस प्रकार बुद्धि भ्रम हो जाने से दुःख के कारणों की कोई कमी नहीं रहती। हर्ष के समय जब हमें किसी की कोई बात अथवा काम गलत होने पर भी ठीक लगेगी तो फिर भ्रम वश किसी समय भी वैसा कर सकते हैं और तब हमें क्षोभ होगा, जिससे दुखी होना स्वाभाविक ही है।

किसी मनुष्य की भावुकता जब अपनी सीमा पार कर जाती है तो वह भी दुःख का विशेष कारण बन जाती है। अत्यधिक भावुक तुनुक मिज़ाज हो जाता है। एक बार वह सुख में भले ही प्रसन्न न हो किन्तु मन के प्रतिकूल परिस्थितियों में वह अत्यधिक दुःखी हुआ करता है। अत्यधिक भावुक कल्पनाशील भी हुआ करता है। वे इसके एक छोटे से आघात को पहाड़ जैसा अनुभव करता है। एक क्षण दुख के लिये घंटों दुःखी रहता है। जिन बहुत सी घटनाओं को लोग महत्वहीन समझ कर दूसरे दिन ही भूल जाया करते हैं भावुक व्यक्ति उनको अपने जीवन का एक अंग बना लेता है, स्वभाव का एक व्यसन बना लिया करता है।

भावुक व्यक्ति आवश्यकता से अधिक संवेदनशील होता है। यहां तक कि एक बार दुःखी व्यक्ति तो अपना दुःख भूल सकता है किन्तु भावुक व्यक्ति उसके दुःख को अपनाकर महीनों दुःखी होता रहता है। आवश्यक भावुकता तथा संवेदनशीलता ठीक है किन्तु इसका सीमा से आगे बढ़ जाना दुःख का कारण बन जाता है।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य


👉 भक्तिगाथा (भाग १०३)

भक्त स्वयं तरता है और औरों को भी तारता है

प्रतीक्षा के क्षण पूरे हुए। महर्षि कहोड़ के अधरों पर हल्का सा स्मित झलका। उनकी आँखों की चमक और गहरी हुई, माथे की रेखाएँ अचानक बनीं और मिटीं। सभी उपस्थित जनों को लगा महर्षि कुछ कहना चाहते हैं। उनके चेहरे के भावों में भी कई उतार-चढ़ाव आए। हालांकि, महर्षि कहोड़ अभी मौन थे, उन्होंने अभी तक कुछ कहा नहीं था पर यह जरूर लग रहा था कि वह कुछ कहने के लिए उत्सुक हैं। उनकी मुखभंगिमा देखकर वहाँ उपस्थित ऋषियों, देवों, गन्धर्वों, सिद्धों, विद्याधरों की उत्सुकता अवश्य बढ़ गयी क्योंकि सभी ने महर्षि के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। सब जानते थे कि वे वेदमाता के वरदपुत्र हैं। वरदायिनी वेदमाता उनके हृदय में विराजती हैं। उनकी अटूट, निष्काम एवं निष्कपट भक्ति से स्वयं सृष्टिजननी भी उनसे सम्मोहित हैं।

आदिशक्ति जगन्माता को अपने इस पुत्र पर सदा से गर्व रहा है और पुत्र तो ऐसा कि उसने माँ के स्मरण और समर्पण को ही सब कुछ मान लिया है। ऐसे महर्षि कहोड़ ने जब कहना शुरू किया तो सबकी सांसें थम गयीं। हिमालय के आंगन में वायु की गति भी ठहर गयी और सूर्यदेव तो बस अपना रथ रोककर सावित्री के इस श्रद्धावान भक्त को बस देखे जा रहे थे। महर्षि कहोड़ कह रहे थे, ‘‘कोई भी निष्काम कर्म जब सम्पूर्ण भक्ति से भगवती को अर्पण किया जाता है, तो स्वतः ही चित्त-चिन्तन एवं चेतना परिष्कृत हो जाते हैं। इस निष्काम कर्मयज्ञ को करने से तप करने की योग्यता का विकास होता है। तप की यह प्रक्रिया स्थूल न होकर सूक्ष्म में होती है। इसकी तपन में चित्त की सभी अशुद्धियों का हवन होता है और घटित होता है एक अपूर्व रूपान्तरण।

इस तप से चित्त स्फटिकवत निर्मल हो जाता है। तब इसमें समस्त ज्ञान प्रकट होता है। चर-अचर, जड़-चेतन, प्रकृति के सभी रूप-आकारों, लोक-लोकान्तरों, चौदह भुवनों एवं इसमें बसने वाली सभी स्थूल-सूक्ष्म प्रजातियों का लौकिक एवं अलौकिक ज्ञान। प्रकृति एवं परमेश्वर का तत्त्व ज्ञान। ऐसा समस्त ज्ञान जो संसार के अतीत-वर्तमान एवं भविष्य में हो चुके, हो रहे एवं होने वाले ऋषियों-मनीषियों में उदय होना सम्भव है, वह सबका सब स्वतः ही अनायास प्रकट हो जाता है। इस ज्ञान के प्रकट होने पर, इसे आत्मसात करने पर, इससे तदाकार होने पर प्रकट होती है- पराभक्ति, जो जीवात्मा को ज्ञान के पार ले जाती है। ऐसा भक्त सचमुच ही सभी वेदों के पार चला जाता है। तब स्वतः ही बिना किसी प्रयास के वह वेदों से भी संन्यास ले लेता है क्योंकि तब उसमें ज्ञान नहीं, बल्कि परमेश्वरी की परात्पर चेतना के प्रति अखण्ड, असीम, अपरिछिन्न अनुराग प्रतिष्ठित होता है।’’

महर्षि कहोड़ के इस सारगर्भित कथन को सभी आश्चर्यजड़ित हो सुन रहे थे। महर्षि कहोड़ के द्वारा कहा गया प्रत्येक शब्द उनके लिए स्वाति नक्षत्र की बूंदो के समान था, जिसे वे सब चातकों की भांति ग्रहण-धारण कर रहे थे क्योंकि इस सत्य की सभी को स्पष्ट अनुभूति हो रही थी कि महर्षि कहोड़ वही कह रहे हैं, जिसे उन्होंने अपने जीवन में अनुभव किया है। ऋषि कहोड़ की इन बातों ने सबके साथ ब्रह्मर्षि विश्वामित्र को भी प्रेरित, पुलकित एवं प्रभावित किया। इस सच को सभी जानते थे कि ब्रह्मर्षि विश्वामित्र इस सृष्टि के परम तपस्वी हैं। उनके पास तप शक्ति का महाकोष है। इस अकूत-अनन्त तपशक्ति के अतिरिक्त वह सृष्टि की सभी परा व अपरा विद्याओं के मर्मज्ञ-विशेषज्ञ भी हैं लेकिन आज सभी पहली बार ब्रह्मर्षि विश्वामित्र को भावविभोर होते हुए देख रहे थे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १९६

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