सोमवार, 27 नवंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 27 Nov 2023

🔶 भाग्य का रोना रोने का अर्थ तो इतना ही समझ में आता है कि हम अपने कर्म के लिये सचेत नहीं हो पाये हैं। अपनी शक्तियों का दुरुपयोग ‘अब’ नहीं तो ‘तब’ किया था, जिसका कटु आघात भोगना पड़ रहा है। पर प्राकृतिक विधान के अनुसार तो यह भाग्य अपनी ही रचना है। अपने ही किए हुए का प्रतिफल है। मनुष्य भाग्य के वश में नहीं है, उसका निर्माता मनुष्य स्वयं है। परमात्मा के न्याय में अभेद देखें तो यही बात पुष्ट होती है कि भाग्य स्वयं हमारे द्वारा अपने को सम्पन्न करता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व कुछ भी नहीं है।

🔷 विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने आती है। इससे हृदय में जो पीड़ा, आकुलता और छटपटाहट उत्पन्न होती है, उससे चाहें तो अपना सद्ज्ञान जागृत कर सकते हैं। भगवान को प्राप्त करने के लिए जिस साहस और सहनशीलता की आवश्यकता होती है, दुःख उसकी कसौटी मात्र है। विपत्तियों की तुला पर जो अपनी सहन-शक्तियों को तौलते रहते हैं, वही अन्त में विजयी होते हैं, उन्हीं को इस संसार में कोई सफलता प्राप्त होती है।

🔶 मनुष्य! तुम्हें शरीर इसलिए नहीं मिला कि तुम उस पर अत्याचार करते हुए उसकी मिट्टी खराब कर दो! तुम्हें संसार के भोग इसलिए नहीं दिये गए कि तुम उन पर वुभुक्षित पशुओं की भाँति टूट पड़ो। तुम्हें मन, बुद्धि और आत्मा इसलिए नहीं मिली कि तुम उनमें द्वन्द्व कराओ। तुम्हें रात और दिन, आलोक और अन्धकार इसलिए नहीं दिये गए कि तुम उनको जैसे चाहो प्रयोग में लाओ। तुम्हारे साथ विवेक और सदाशयता को इसलिए नहीं भेजा गया कि तुम उन्हें धोखा दो। संसार में तुम्हारा अवतरण इसलिये नहीं हुआ कि तुम उसे धधकता नरक कुण्ड बना दो।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 एकान्त सेवन

प्रतिदिन प्रातःकाल अथवा सांयकाल एकान्त स्थान में चले जाओ। तुम्हारा चित्त चंचल या आकर्षित करने का कोई साधन न हो। शान्तचित से नेत्र मूँद कर बैठ जाओ। क्रमशः अपने मने की क्रियाओं का निरीक्षण करो। इन सब विचारों को एक-एक करके निकाल डालो, यहाँ तक कि तुम्हारे मन में कुछ भी न रहे। वह बिल्कुल साफ हो जाये। अब दृढ़तापूर्वक निम्न विचारों की पुनरावृति करो-

‘‘मैं आज से एक नवीन र्माग का अनुसरण कर रहा हूँ, पुराने त्रुटियों से भरे हुए जीवन को सदा र्सवदा के लिए छोड़ रहा हूँ। दोषपूर्ण जीवन से मेरा कोई सरोकार नहीं। वह मेरा वास्तविक स्वरूप कदापि नहीं था।’’

‘‘अब तक मैं शृंगार, देह पूजा, टीप-टाप में ही संलग्र रहता था। दूसरों के दोष निकालने, मजाक उड़ाने, त्रुटियों, कमजोरियों के निरीक्षण तथा आलोचना करने में रस लेता था, पर अब मैं इस अन्धकारमय कूप से निकल गया हूँ। अब मैं इन क्षुद्र उलझनों में नही पड़ सकता। ये अभद्र भ्रांतियाँ, रोग, दुःख, शोक आदि मेरी आत्मा में प्रवेश नहीं कर सकतीं। संसार की क्षणभंगुर वासना तरंगे अब मुझे पथ विचलित नहीं कर सकतीं।’’

‘‘मैं मिथ्या अभिमान में दूसरों की कुछ परवाह नहीं करता था, मदहोश था, अपने को ही कुछ समझता था, किन्तु आत्मा के अन्दर प्रवेश करने से मेरा मिथ्या गर्व चूर्ण हो गया है। मुझे अपने पूर्व कृत्यो पर हँसी आती है।’’

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
साधना से सिद्धि वाङमय क्रमांक-5 पृष्ठ-8.32

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