सोमवार, 18 अप्रैल 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग १९

अपने सदगुणों को प्रकाश में लाइए

हमारा तात्पर्य यह नहीं कि आप भूलों, त्रुटियों और गलतियों की ओर से ओंखें बंद कर लें और बार-बार उनको दुहराते चलें, आपको चाहिए कि ' भूलों को दूर करने की और पुनरावृत्ति रोकने का भरसक प्रयत्न करें। फिर भी यदि कभी ठोकर खाकर गिर पड़े, प्राचीन बुरे संस्कारों के खिंचाव से परास्त होकर कोई गलती कर बैठें तो उसकी विशेष चिंता न करें। सच्चा पश्चाताप यही है कि दुबारा वैसी गलती न करने का प्रण किया जाए उपवास आदि से आत्मशुद्धि की जाए जिसे हानि पहुँचती है उसकी या उसके समक्ष की क्षति पूर्ति कर दी जाए मन पर जो बुरी छाप पड़ी है अच्छे कार्य की छाप द्वारा हटाया जाए। साबुन से मैला कपडा स्वच्छ किया जाता है, भूलों का परिमार्जन, श्रेष्ठ कार्यों द्वारा करने के लिए खुला द्वार आपके सामने मौजूद है, फिर की अप्रिय स्मृतियों को जगा-जगा कर नित्य दु रू भ्र्राल स्थ्य? व क्या प्रयोजन? यदि सदैव अपने ऊपर दोषारोपण ही करते रहेंगे, अपने को कोसते ही रहेंगे, भर्त्सना, ग्लानि और तिरष्कार में जलते रहेंगे तो अपनी बहुमूल्य योग्यताओं को खो बैठेंगे, अपनी कार्यकारिणी शक्तियों नष्ट कर डालेंगे। अपने को अयोग्य मत मानिए। ऐसा विश्वास मत कीजिए कि आपमें मूर्खता, दुर्भावना, कमजोरी के तत्त्व अधिक हैं।
 
इस प्रकार की मान्यता को मन में स्थान देना झूँठा,भ्रमपूर्ण गिराने वाला और आत्मघाती है। यह किसी भी प्रकार नहीं माना जा सकता कि मानव शरीर के इतने ऊँचे स्थान पर चढ़ता आ आ पहुँचने वाला जीव अपने में बुराइयाँ अधिक भरे हुए हैं। यदि सचमुच ही वह नीची श्रेणी की योग्यताओं वाला होता तो किसी कीट-पतंग या पक्षी की योनि में समय बिताता होता। उन योनियों को उत्तीर्ण करके मनुष्य योनि में, विचार पूर्ण भूमिका में प्रवेश करने का अर्थ ही यह है कि मानवोचित सद्गुणों का पर्याप्त मात्रा में विकास हो गया है। भले ही आप अन्य सद्गुणी लोगों से कुछ पीछे हों पर इसी कारण अपने को पतित क्यों समझें? एक से एक आगे है, एक से एक पीछे है। इसलिए इस प्रकार तो बडे भारी बुद्धिमान को भी कहा जा सकता है क्योंकि उससें भी अधिक बुद्धिमान भी कोई न कोई निकल ही आवेगा। आप अपने को बुद्धिमान और सद्गुणी मानें इसके लिए एक आधार है कि बहुत से लोग आप से भी कम योग्यता वाले हैं। जब इस दुनियाँ में आप से भी कम अच्छाइयों के मनुष्य हैं तो यह मान्यता सत्य है कि आप अधिक बुद्धिमान हैं,अधिक अच्छे हैं,अधिक धर्मनिष्ठ हैं। इस सत्य को खुले ह्रदय से स्वीकार करके गहरे अंतःस्थल में उतार लीजिये कि आपकी सुयोग्यता बढ़ी हुई है,आप श्रेष्ठ हैं,सक्षम है,उन्नतिशील हैं।
 
चौरासी लाख बडे-ब,डे मोर्चे फतह कर चुके हैं, अंतिम मोर्चे पर विजयी होने की तैयारी कर रहे हैं, फिर छोटे- छोटे जीवन प्रसंगों का तो कहना ही क्या? छुट-पुट समस्याएँ जो प्रतिदिन स्वभावत: सामने आया ही करती हैं उनको हल कर लेना, उन पर विजय प्राप्त करना भला यह भी कोई बडी बात है? दस-पाँच असफलताओं के कारण खिन्न मत हूजिएं अपने बारे में गिरे हुए विचार मत रखिए असंख्य सफलताएं प्रतिदिन प्राप्त करते हैं, इससे भी अधिक आगे प्राप्त करेंगे। आप विजय की मूर्तिमान प्रतिमा हैं सफलताएँ आपके लिए बनाई गई है। बढ़ना, उन्नति करना और विजय प्राप्त करना-इन तीन क्रियाओं से आपका भूतकाल का इतिहास भरा पड़ा है, यह क्रम आज भी जारी है और आगे भी जारी रहेगा।
 
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ २८

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👉 भक्तिगाथा (भाग १२१)

शान्ति और परमानन्द का रूप है भक्ति

गन्धर्वराज चित्रकेतु की जिज्ञासा और महात्मा सत्यधृति के उत्तर ने सभी के अन्तस को स्पन्दित किया। प्रायः सभी के मानससरोवर में विचारों की अनेकों उर्मियाँ उठीं और विकीर्ण हो गयीं। इन विचारउर्मियों की अठखेलियों से घिरे गन्धर्व श्रुतसेन सोच रहे थे कि भक्ति भावों को परिष्कृत करती है, व्यवहार में व्यक्ति को अपेक्षाकृत अधिक उदार व सहिष्णु बनाती है, यहाँ तक तो ठीक है लेकिन जीवन की परिस्थितियाँ यहीं तक सीमित नहीं हैं। इनकी जटिलता और समस्याओं के संकट जब-तब जिन्दगी को क्षत-विक्षत करते हैं। अनगिनत प्रश्नों के कंटक रह-रहकर चुभते रहते हैं। इनकी चुभन की टीस से कैसे छुटकारा मिले। वैसे भी दुनिया की रीति बड़ी अजब है। यहाँ शक्तिसम्पन्न को सर्वगुणसम्पन्न माना जाता है जबकि भावनाशील गुणसम्पन्न जनों को ठोकर खाते अपमानित होता देखा जाता है।

गन्धर्व श्रुतसेन अपनी इन्हीं विचारवीथियों में विचरण कर कर थे। उनका ध्यान किसी अन्य ओर न था, जबकि कुछ अन्य जन उनके मुख पर आने वाले भावों के उतार-चढ़ावों को ध्यान से देख रहे थे। इन ध्यान देने वालों में गन्धर्वराज चित्रसेन भी थे। उन्होंने इन्हें हल्के से टोका भी, ‘‘क्या सोचने लगे श्रुतसेन? कोई समस्या है तो कहो? यह महर्षियों, सन्तों, भक्तों व समर्थ सिद्धजनों की सभा है। यहाँ सभी समस्याओं का समाधान सम्भव है।’’ गन्धर्वराज चित्रसेन के इस कथन पर श्रुतसेन ने बड़ी विनम्रता से कहा- ‘‘आपका कथन सर्वथा सत्य है महाराज। मैं आपसे पूर्णतया सहमत हूँ, साथ ही मैं यह भी जानता हूँ कि यह महासभा न केवल समर्थ जनों की है, बल्कि अन्तर्यामी जनों की भी है। यहाँ विराजित महर्षि जन, सन्त और भगवद्भक्त सभी अन्तर्मन की वेदना एवं अरोह-अवरोह को जानने में समर्थ हैं। उनकी इस क्षमता पर भरोसा करके ही मैंने कुछ नहीं कहा।’’
श्रुतसेन के इस कथन पर देवर्षि नारद हल्के से मुस्करा दिये और बोले- ‘‘यदि आप सब की आज्ञा हो तो मैं अपना अगला सूत्र प्रस्तुत करूँ।’’ ‘‘अवश्य!’’ सभी ने प्रायः एक साथ कहा। इसी के साथ देवर्षि नारद की मधुर वाणी से यह सूत्र उच्चारित हुआ-

‘शान्तिरूपात्परमानन्द रूपाच्च’॥ ६०॥
भक्ति शान्तिरूपा और परमानन्दरूपा है।

इस सूत्र के उच्चारण के साथ देवर्षि नारद ने गन्धर्व श्रुतसेन को देखा और फिर मुस्करा दिए। इसके बाद वह दो क्षण रूके और बोले- ‘‘जीवन की जटिलताएँ व समस्याओं के संकट शान्ति छीनते हैं और यह सच तो जग जाहिर है कि जिसकी शान्ति छिन गयी वह कभी भी सुखी नहीं हो सकता। जबकि भक्त की स्थिति थोड़ा सा अलग है। जिन्दगी की कोई जटिलता या समस्या उसकी शान्ति नहीं छिन सकती।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २३९

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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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