शुक्रवार, 1 सितंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 1 Sep 2023

🔶 अपने उद्धार के लिए नारी को स्वयं भी जागरूक होना पड़ेगा। अपने आपको आत्मा, वह आत्मा जो पुरुषों में भी है समझना होगा। मातृत्व के महान् पद की प्रतिष्ठा को पुनर्जीवित रखने के लिए उसे सीता, गौरी, मदालसा, देवी, दुर्गा, काली की सी शक्ति, क्षमता और कर्त्तव्य का उत्तरदायित्व ग्रहरण करना होगा। कामिनी, विलास की सामग्री  न बनकर अपने आपको आदर्श, पूजनीय गुणों का आधार बनाना होगा, तभी वह गिरी हुई अवस्था से उठ सकती है।

🔷 नारी का उत्तरदायित्व बहुत बड़ा है। पुरुष से भी अधिक कह दिया जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। वह गृहिणी है, नियत्री है, अन्नपूर्णा है। नारी में ममतामयी माँ का अस्तित्व निहित है, तो नारी पुरुष की प्रगति, विकास की प्रेरणा स्रोत जाह्नवी है। नारी अनेकों परिवारों का संगम स्थल है। नारी मनुष्य की आदि गुरु है, निर्मात्री है, इसमें कोई संदेह नहीं कि मानव समाज में नारी का बहुत बड़ा स्थान है और नारी की उन्नत अथवा पतित स्थिति पर ही समाज का भी उत्थान-पतन निर्भर करता है।

🔶 शालीनता सादगी में ही निवास करती है। नारी जाति का गौरव सादगी, प्रकृत्त सौन्दर्य और लज्जायुक्त नम्रता में ही है और इसी से वह मानव जीवन में सत् तत्त्वों की प्रेरणा स्रोत देवी बन सकती है, पूज्य बन सकती है। मनुष्य की भावनाओं को पुरोगामी बना सकती है। वस्तुतः नारी का कार्य क्षेत्र घर है। इसी काम को नारियाँ भलीभाँति कर सकती है यह उनकी प्राकृतिक और स्वाभाविक जिम्मेदारी है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ और संसार का सबसे बड़ा लाभ (भाग 1)

ब्रह्म सूक्ष्म और प्रकृति स्थूल है। जीव सूक्ष्म और काया स्थूल है। चिन्तन को सूक्ष्म और क्रिया को स्थूल कहा जा सकता है। इस युग्म समन्वय से ही यौगिकों, रासायनिक पदार्थों, तत्वों एवं निर्जीव अणुओं से बने पदार्थों की शोभा-सुषमा दृष्टिगोचर होती। भौतिकी अत्यन्त कुरूप, कर्कश और निष्ठुर है, उसे जीवन्त बनाने का भार तो कला ही वहन करती है।

शरीर क्या? मल-मूत्र से भरा और हाड़-मांस से बना घिनौना किन्तु किन्तु चलता-फिरता पुतला। जीव क्या है- आपाधापी में निरत, दूसरों को नोंच खाने की कुटिलता में संलग्न- चेतना स्फुल्लिंग। जीवन क्या है- एक लदा हुआ भार जिसे कष्ट और खीज के साथ ज्यों-त्यों करके वहन करना पड़ता है। बुलबुले की तरह एक क्षण उठना और दूसरे क्षण समाप्त हो जाना यही है जीवन की विडम्बना; जिसे असन्तोष और उद्वेग की आग में जलते-बलते गले में बाँधे फिरना पड़ता है। स्थूल तक ही सीमित रहना हो तो इसी का नाम जीवन है पेट और प्रजनन ही इसका लक्ष्य है। लिप्सा और लोलुपता की खाज खुजाते रहना ही यहाँ प्रिय प्रसंग है।

आत्म-रक्षा, अहंता, मुक्ति की आतुरता, स्वामित्व की तृष्णा यही हैं वे सब मूल प्रवृत्तियाँ जिनसे बँधा हुआ प्राणी कीट-मरकट की तरह नाचता देखा जाता है। स्थूल जीवन को यदि देखना, परखना हो तो इन प्रपंचना प्रवंचना के अतिरिक्त यहाँ और कुछ दिखाई नहीं पड़ता। भूल-भुलैयों की उलझनें इतनी पेचीदा होती हैं कि उन्हें सुलझाने का जितना प्रयत्न किया जाता है उलटे उतनी ही कसती चली जाती है। रोते जन्म लेता है और रुलाते हुए विदा होता है- यही है वह सब जिसे हम जीवन के नाम से पुकारते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1976 पृष्ठ 3


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