उपासना में इष्ट की अदला-बदली का अर्थ है कि आप उसकी गरिमा को कोई महत्व न देते हुये दैवी शक्तियों के साथ खिलौनों की तरह खेलते हैं। उनका महत्व आपकी रुचि पर निर्भर है। साथ ही इष्ट की अदला-बदली से यह भाव भी प्रकट होता है कि आप किसी एक दैवी विभूति को किसी दूसरी से कम या ज्यादा समझते हैं। उपासना के क्षेत्र में विषमता का यह भाव सबसे अधिक घातक है। इस प्रकार की चेष्टा से मानसिक चाँचल्य की वृद्धि होती है, जिसके कारण न उपासना में मन स्थिर हो पाता है और न उसका कोई फल होता है।
संसार में जितने भी महापुरुष हुये हैं, महापुरुष होने से पहले उनमें से कोई भी यह नहीं जानता था कि उनमें इतनी अपार शक्ति भरी हुई है। अपनी इस शक्ति की पहचान उन्हें तब ही हुई, जब उन्होंने कर्म क्षेत्र में पदार्पण किया। कर्म में प्रवृत्त होते ही मनुष्य के शक्ति कोष खुल जाते हैं। ज्यों-ज्यों मनुष्य कर्म-मार्ग पर बढ़ता जाता है, ज्यों-ज्यों उसकी शक्ति सामर्थ्य के स्तर एक के बाद दूसरे खुलते जाते हैं। कर्म-शक्ति रूपी अग्नि का ईंधन है मनुष्य ज्यों-ज्यों कर्म करता जाता है, उसकी शक्ति प्रज्वलित होती जाती है। कर्म से शक्ति और शक्ति से कर्म का संवर्धन हुआ करता है।
हम जो कुछ जैसा चाहें, वैसा ही हमारे सामने आये, ऐसा सोचना हमारी दम्भपूर्ण मूर्खता तथा स्वार्थपूर्ण भावना के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। परिस्थितियाँ किसी की गुलाम नहीं, सम्भावनाएँ किसी की अनुचरी नहीं। संयोग किसी के हाथ बिके नहीं हैं। और आकस्मिकतायें किसी के पास बन्धक नहीं हैं। फिर भला हमारा यह सोचना, कि हम जिस प्रकार की परिस्थितियाँ चाहें, वैसी ही हमारे सामने आवें, उपहासास्पद मूर्खता के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है?
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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