शनिवार, 15 जनवरी 2022

👉 असली शांति

एक राजा था जिसे चित्रकला से बहुत प्रेम था। एक बार उसने घोषणा की कि जो कोई भी चित्रकार उसे एक ऐसा चित्र बना कर देगा जो शांति को दर्शाता हो तो वह उसे मुँह माँगा पुरस्कार देगा।

निर्णय वाले दिन एक से बढ़ कर एक चित्रकार पुरस्कार जीतने की लालसा से अपने-अपने चित्र लेकर राजा के महल पहुँचे। राजा ने एक-एक करके सभी चित्रों को देखा और उनमें से दो चित्रों को अलग रखवा दिया। अब इन्ही दोनों में से एक को पुरस्कार  के लिए चुना जाना था।

पहला चित्र एक अति सुंदर शांत झील का था। उस झील का पानी इतना स्वच्छ  था कि उसके अंदर की सतह तक दिखाई दे रही थी। और उसके आस-पास विद्यमान हिमखंडों की छवि उस पर ऐसे उभर रही थी मानो कोई दर्पण रखा हो। ऊपर की ओर नीला आसमान था जिसमें रुई के गोलों के सामान सफ़ेद बादल तैर रहे थे। जो कोई भी इस चित्र को देखता उसको यही लगता कि शांति को दर्शाने के लिए इससे अच्छा कोई चित्र हो ही नहीं सकता। वास्तव में यही शांति का एक मात्र प्रतीक है।

दूसरे चित्र में भी पहाड़ थे, परंतु वे बिलकुल सूखे, बेजान, वीरान थे और इन पहाड़ों के ऊपर घने गरजते बादल थे जिनमें बिजलियाँ चमक रहीं थीं…घनघोर वर्षा होने से नदी उफान पर थी… तेज हवाओं से पेड़ हिल रहे थे… और पहाड़ी के एक ओर स्थित झरने ने रौद्र रूप धारण कर रखा था। जो कोई भी इस चित्र को देखता यही सोचता कि भला इसका ‘शांति’ से क्या लेना देना… इसमें तो बस अशांति ही अशांति है।

सभी आश्वस्त थे कि पहले चित्र बनाने वाले चित्रकार को ही पुरस्कार मिलेगा। तभी राजा अपने सिंहासन से उठे और घोषणा की कि दूसरा चित्र बनाने वाले चित्रकार को वह मुँह माँगा पुरस्कार देंगे। हर कोई आश्चर्य में था!

पहले चित्रकार से रहा नहीं गया, वह बोला, “लेकिन महाराज उस चित्र में ऐसा क्या है जो आपने उसे पुरस्कार देने का फैसला लिया… जबकि हर कोई यही कह रहा है कि मेरा चित्र ही शांति को दर्शाने के लिए सर्वश्रेष्ठ है?”

“आओ मेरे साथ!”, राजा ने पहले चित्रकार को अपने साथ चलने के लिए कहा।दूसरे चित्र के समक्ष पहुँच कर राजा बोले, “झरने के बायीं ओर हवा से एक ओर झुके इस वृक्ष को देखो। उसकी डाली पर बने उस घोंसले को देखो… देखो कैसे एक चिड़िया इतनी कोमलता से, इतने शांत भाव व प्रेमपूर्वक अपने बच्चों को भोजन करा रही है…”

फिर राजा ने वहाँ उपस्थित सभी लोगों को समझाया, “शांत होने का अर्थ यह नहीं है कि आप ऐसी स्थिति में हों जहाँ कोई शोर नहीं हो…कोई समस्या नहीं हो… जहाँ कड़ी मेहनत नहीं हो… जहाँ आपकी परीक्षा नहीं हो… शांत होने का सही अर्थ है कि आप हर तरह की अव्यवस्था, अशांति, अराजकता के बीच हों और फिर भी आप शांत रहें, अपने काम पर केंद्रित रहें… अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहें।”

अब सभी समझ चुके थे कि दूसरे चित्र को राजा ने क्यों चुना है।
 
मित्रों, हर कोई अपने जीवन में शांति चाहता है। परंतु प्राय: हम ‘शांति’ को कोई बाहरी वस्तु समझ लेते हैं, और उसे दूरस्थ स्थलों में ढूँढते हैं, जबकि शांति पूरी तरह से हमारे मन की भीतरी चेतना है, और सत्य यही है कि सभी दुःख-दर्दों, कष्टों और कठिनाइयों के बीच भी शांत रहना ही वास्तव में शांति है।

👉 तटस्थ रहिए—दुःखी मत हूजिये (भाग १)

‘‘संसार-दुख-सागर है’’—ऐसी मान्यता रखने वाले प्रायः वे ही लोग हुआ करते हैं जो अपनी दुर्बलताओं के कारण संसार में सुख-दर्शन नहीं कर पाते। उनकी यह मान्यता ही बतलाती है कि वे कितने दुखी रहने वाले व्यक्ति होंगे। ऐसे व्यक्तियों के लिये संसार की प्रत्येक क्रिया-प्रतिक्रिया, प्रत्येक परिस्थिति तथा घटना दुःख-दायी ही होती है—और होनी भी चाहिये। जिसका विश्वास बन चुका है कि संसार दुःख-सागर है उसे इस दुनिया में सिवाय दुःख के और क्या हाथ आ सकता है? ऐसी निराशापूर्ण भावना बना लेने वाला जीवन भर रोने, झींखने, चिढ़ाने और कुढ़ाने के अतिरिक्त और कर ही क्या सकता है? दूसरे को हंसते, खेलते, खाते-पीते, बोलते, बात करते और प्रसन्न रहते देख कर ईर्ष्या करता और मन ही मन जलता रहता है। ऐसे व्यक्ति को औरों का हंसना, बोलना अपने पर व्यंग मालूम होता है, अपना उपहास-सा प्रतीत होता है। हंसना, बोलना ही नहीं दूसरों का रोना धोना भी उसे अच्छा नहीं लगता। किसी का हंसना, प्रसन्न होना तो ईर्ष्या के कारण नहीं भाता और खुद के दुःख को उत्तेजित करने के कारण किसी के रोने-धोने में भी बुरा मानता है। निःसन्देह, ऐसे दुःख-प्रवण व्यक्तियों का जीवन एक भयंकर अभिशाप बन जाता है।

दुःखों के कारणों में दुर्भावनायें भी बहु बड़ा कारण है। दुर्भावनायें एक भयंकर रोग की तरह हैं। जिसको लग जाती हैं, जिसके हृदय में बस जाती हैं, उसे कहीं का नहीं रखती हैं। दुर्भावना वाले व्यक्ति का जीवन प्रतिक्षण दुःखी रहता है।

दुर्भावनाओं में अधिकतर दूसरों का अहित करने का ही भाव निहित रहता है। दुर्भावनाओं वाला व्यक्ति किसी का थोड़ा-सा भी अभ्युदय नहीं देख सकता। किसी के अभ्युदय से अपनी कोई हानि न होने पर भी ऐसा व्यक्ति यही प्रयत्न करता है कि अमुक व्यक्ति की उन्नति न हो, विकास न हो, उसे कोई सफलता न मिले। किन्तु जो प्रयत्नशील है, परिश्रम कर रहा है उसकी उन्नति तो होती है। ऐसी दशा में रोड़े अटकाने, कोसने अथवा चाहने पर भी जब किसी की उन्नति नहीं रोक पाता तो दुर्भावी व्यक्ति के लिये जलने, कुढ़ने तथा दुःखी होने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं रह जाता। इस प्रकार दुर्भावना रखने वाला व्यक्ति दुहरा दुःख पाता है—एक तो किसी का अहित चाहने पर भी उसकी असफलता तथा आत्म-प्रतारणा दण्डित करती है, दूसरे जिसका उसने अहित चाहा उसकी उन्नति उसे दिन-रात चैन न लेने देगी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग १०२)

भगवत्प्रेमी ही है सच्चा भक्त

विचारों के निःशब्द स्पन्दन सब ओर सम्पूर्णता में व्याप रहे थे। महान सप्तर्षिगण; वहाँ उपस्थित सभी देवता, ऋषि, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, चारण सभी भक्ति की सुकोमल भावनाओं से पुलकित थे। उन्हें ऐसा लग रहा था कि भक्तिगाथा का श्रवण करने के साथ उनमें काफी कुछ बदल रहा है। वे एक गहरे आन्तरिक रूपान्तरण से गुजर रहे हैं। कुछ ऐसा जैसे कि निशा-दिवस में रूपान्तरित होती है। भोर के सूरज की उजास बिना कुछ कहे ही सबको स्वतः ही परिवर्तित कर देती है, सभी स्वयं में ऐसा ही कुछ अनुभव कर रहे थे। अभी कुछ ही देर पहले सभी ब्रह्मबेला में की जाने वाली उपासना को पूर्ण करके आ जुटे थे।

पूर्व दिशा में भोर की अरूणिमा छाने लगी थी। सूर्योदय हो रहा है यह अहसास ऋषियों एवं देवों को ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण प्रकृति को भी था। एक विचित्र सी ऊर्जावान स्फूर्ति का अनुभव सभी में संव्याप्त था। इस अनोखे सिंचन से सिंचित गायत्री महामन्त्र के स्वर ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के पावन मुख से सबसे पहले निःसृत हुए। इसके बाद सभी ने मिलकर पवित्र सामगान किया। यह सामगान अभी सम्पूर्ण होने वाला ही था कि एक अनोखे ओंकार के अनहद स्वर को सबके सब अपने अन्तःकरण में महसूस करने लगे। अपनी साधना एवं समाधि में यह अनुभव पहले भी बहुतों को हो चुका था। पर इस अनुभव की विचित्रता यह थी कि अब की बार इन क्षणों में अन्तःकरण के साथ वहाँ के प्राकृतिक पर्यावरण में भी ये अनहद स्वर परिव्याप्त हो रहे थे।

इस अनोखी अनुभूति ने कहीं गहरे में सबको जता दिया कि शीघ्र ही कोई विशेष घटनाक्रम घटित होने वाला है। हालांकि, अभी तो सभी के नेत्र भगवान् भुवनभास्कर की अगवानी करने में लगे थे। सप्तवर्णी, सप्त रश्मि अश्वों पर बैठे अरूण सारथी को आगे किए सूर्यदेव आकाश मण्डल में आ विराजे थे। उनके आने से सारे अग-जग में उजियारा हो गया था। हिमालय के उत्तुंग हिमशिखर सूर्य रश्मियों की स्वर्ण राशि अपने में समेटने में लगे थे। हिमपक्षियों एवं हिमालय के वन्य पशुओं में एक नवीन संचेतना संचारित हो रही थी। उत्साह, उल्लास एवं प्राकृतिक उत्सव के इन पलों में सबके सब, तब चकित रह गए जब उन्होंने देखा सूर्यमण्डल धरा पर अवतीर्ण हो रहा है। इन क्षणों में सभी विस्मय जड़ित से हो गए। उन्हें लगने लगा कि क्या आज स्वयं सूर्यनारायण धरती पर उतर रहे हैं अथवा उनका सम्पूर्ण प्रकाश व प्रभा धारण करके स्वयं वेदमाता गायत्री अवतरित हो रही हैं।

अनेकों अन्तःकरण में ऐसे अनेक प्रश्न चुभे। हालांकि इन प्रश्नों की चुभन सुखद व मधुर थी। हाँ, सब इससे ऊहापोह में अवश्य थे। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र इस विचित्र मनःस्थिति को अनुभव कर मन्द-मन्द मुस्करा रहे थे। उनकी यह रहस्यमयी मुस्कान देखकर ऋषि विवर्ण से न रहा गया और आखिर उन्होंने पूछ ही लिया- ‘‘हे ब्रह्मर्षि! आपकी इस मुस्कान का क्या अर्थ है?’’ उत्तर में विश्वामित्र ने शान्त स्वर में कहा- ‘‘कुछ अधिक नहीं महर्षि! बस जिस तेज को देखकर आप सब चकित हो रहे हैं, वह तेज परम तेजस्वी ऋषि कहोड़ का है। वे भगवती वेदमाता गायत्री के अनन्य भक्त हैं। उन्होंने अपनी भक्ति के प्रभाव से भगवती के भर्ग को इतनी सम्पूर्णता से धारण कर लिया है कि वे स्वयं सूर्य हो गए हैं।’’
‘‘किन्तु ब्रह्मर्षि?’’ ‘‘मैं आपका आशय समझता हूँ ऋषिश्रेष्ठ!’’ ऋषि विवर्ण कुछ अधिक कह पाते इसके पहले ही ब्रह्मर्षि विश्वामित्र उन्हें विनम्र स्वरों में रोकते हुए कहा- ‘‘यह सच है कि भगवती वेदमाता के महामन्त्र गायत्री का द्रष्टा ऋषि मैं हूँ। मैंने ही इसके अनोखे विज्ञान को धरती पर प्रकट किया है, परन्तु जहाँ तक बात भक्ति की है, वहाँ मैं किसी भी तरह से महर्षि कहोड़ की बराबरी नहीं कर सकता। वे अद्भुत हैं, अपूर्व हैं।’’

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र अभी कुछ और कह पाते, इतने में वह परम तेजस्वी प्रकाशपुञ्ज धरा पर अवतरित हो गया। इसके पास आने पर सबने अनुभव किया कि आश्चर्यजनक रूप से यह प्रकाशपुञ्ज सुखद एवं शीतल है। धीरे-धीरे इससे एक मानवाकृति प्रकट हुई- यह गौरवर्ण, सुन्दर देहयष्टि वाले ऋषि कहोड़ थे। जिनके सिर के केश, श्मश्रु व रोमावलि ऐसे प्रकाशित हो रहे हैं जैसे कि ये केश न होकर सूर्यरश्मियाँ हों। इनकी आँखों से निकलती प्रकाशधाराएँ तो अवर्णनीय थीं।

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने स्वयं आगे आकर उनकी अभ्यर्थना की। अन्य ऋषियों ने भी उनका स्वागत किया। देवों सहित अन्य सभी उनके तेजस्वी स्वरूप को देखकर अभिभूत थे। परन्तु स्वयं वे शिशु की भाँति सरल व निश्छल थे। उन्होंने दूर से ही देवर्षि को प्रणाम करते हुए कहा- ‘‘हे भक्ति के आचार्य! मुझे तो बस आपके सूत्रों को श्रवण करने की इच्छा यहाँ तक खींच लायी है।’’ उनका यह भावुक भोलापन देवर्षि नारद को भी गहरे से छू गया। उन्होंने बड़े आदरपूर्ण स्वरों में कहा- ‘‘मैं और मेरे सभी सूत्र आज आपका सान्निध्य पाकर कृतार्थ हैं।’’
इतना कहने के साथ देवर्षि नारद ने मधुर स्वर में कहा-
‘वेदानपिसंन्यस्यति, केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते’॥ ४९॥

जो वेदों का भी भली भाँति परित्याग कर देता है और जो अखण्ड, असीम भगवत्प्रेम प्राप्त कर लेता है।

भक्ति के महान आचार्य ऋषि नारद का यह सूत्र श्रवण करने के बाद ब्रह्मर्षि वशिष्ठ एवं ब्रह्मर्षि विश्वामित्र दोनों ही लगभग एक साथ कह उठे- ‘‘हे देवर्षि! आपके इस सूत्र ने आज महर्षि कहोड़ के रूप में साकार स्वरूप धारण किया।’’ ‘‘ऐसा न कहें आप दोनों’’, थोड़ा संकुचित होते हुए ऋषि कहोड़ ने कहा। ‘‘मैंने तो बस ज्यादा कुछ न करके भगवती वेदमाता गायत्री की भक्तिपूर्ण अर्चना की है।’’ उनके इस तरह से कहने पर नारद ऋषि ने कहा- ‘‘भगवन्! आपकी सारी बातें हम सबको शिरोधार्य हैं। बस आप गायत्री भक्ति के बारे में कुछ कहें। आप जो भी कहेंगे वही मेरे सूत्र का सत्य होगा। वही उसकी व्याख्या होगी।’’

देवर्षि नारद के ऐसा कहने पर महातपस्वी कहोड़ ऋषि ने कहा- ‘‘हे भक्तप्रवर! मैंने बचपन से ही अपने पिताश्री से सुना था कि गायत्री सभी वेदों का सार है। इसके उपासक को स्वयं ही वेद का सम्पूर्ण मर्म पता चल जाता है। मैंने सोचा कि यदि ऐसा है तो फिर व्यर्थ में समय गंवाने का क्या प्रयोजन? यही सोचकर मैंने सब छोड़कर भगवती गायत्री की भक्ति प्रारम्भ की। गायत्री महामन्त्र का जप तो बस मेरे लिए सामान्य सी क्रिया थी। मेरी साधना का सत्य तो भगवती के चरणों में असीम अनुराग था। स्वयं के अस्तित्त्व एवं स्वयं की चेतना का उनमें पल-प्रतिपल अर्पण था। उनका अहर्निश स्मरण एवं उनमें सतत समर्पण था।

ऐसा करते हुए न तो कभी बोझ लगा और न कभी थकान अनुभव हुई। इस बीच अनेकों विपत्तियाँ-बाधाएँ एवं विघ्न आए। इन सबको मैंने माता का कृपाप्रसाद माना। वर्षों तक यही चलता रहा। लेकिन इसके साथ ही भगवती के भर्ग के प्रभाव से मेरा चित्त भी निर्मल होता गया और धीरे-धीरे वेद के सभी तत्त्व एवं सत्य स्वयं ही मेरे मन-अन्तःकरण में प्रकट हो गए और फिर मेरी चैतन्यता इनके पार भी चली गयी। बची रह गयी तो सिर्फ भक्ति।’’ इतना कहकर ऋषि कहोड़ शान्त हो गए। फिर उन्होंने धीमे स्वरों मे किन्तु रूंधे गले से कहा- ‘‘आगे की कथा मैं कुछ समय रूक कर कह सकूँगा-आप सब प्रतीक्षा करें।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १९४

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