शनिवार, 1 अक्टूबर 2016

👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 45)


🔵 यदि अमरत्व को प्रगट करना हो तो मर्त्य का दमंन कर उसे सूली पर चढ़ाना होगा। तुम्हारा सत्यस्वरूप चेतना के अस्थायी आधार के पीछे ही है। वत्स! संकीर्णता न रखो। तुमने आध्यात्मिक जीवन का एक पथ स्वीकार किया है, उस विषय में धर्मान्ध क्यों होते हो। ईश्वर  प्राप्ति केवल एक ही उपाय से नहीं होती। सभी पथों से उन्हें पाया जाता है। जहाँ कहीं भी महिमा और महत्ता है प्रभु स्वयं वहाँ प्रगट हैं। सभी दीवारों को ढहा दो। तुम्हारे लिए कोई विशेष सीमायें निर्धारित नहीं की गई हैं।

🔴 सर्वतोमुखी बनो। तुम्हारा संपूर्ण कर्त्तव्य आत्मपूर्णता में ही है। सब विचारों को छोड़कर केवल एक ही विचार का उपदेश देने की आशा तुम्हें किसने दी! उपदेश ही देने की आज्ञा तुम्हें किसने दी ? मैंने अल्पमात्रा में तुम्हारी आँखे खोली हैं? उसके पूर्व तुम्हारी दृष्टि आच्छादित थी। अब तुम यह जान पा रहे हो कि को शिक्षा देने के पूर्व तुम्हें, स्वयं को प्रशिक्षित करना आवश्यक है। अहंकार के प्रति सावधान रहो। तथा कथित नि:स्वार्थता तथा कार्य करने की इच्छा के पीछे यही गहरा पैठा अहंकार है। वस्तुत: अहंकार ही सबसे बड़ा अभिशाप है। पहले स्वयं को नियोजित करो। चंचल मन के साथ दूसरों की भलाई करने की आशा तुम कैसे सकते हो ?

🔵 सर्वप्रथम आवश्यक वस्तु है एकाग्रता। तुम्हारी ऊपरी चेतना उतनी ही स्वेच्छाचारी और अप्रशिक्षित है जितना कि एक उद्दण्ड बालक। आवश्यक यह है कि तुम अपनी गहराई को, तुम्हारे सच्चे स्वरूप को ऊपर सतह पर लाओ। एक क्षण देवता होना तथा दूसरे क्षण वासनाओं का दास हो जाना नहीं चलेगा। वत्स! चरित्र, जैसा कि मैंने बार बार कहा है, दर्शन की कसौटी है।
 
🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

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