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🔷 दुर्दांत रावण का अंत होना था, तो दो तापसी युवक ही उस विशाल परिकर को धराशायी करने में समर्थ हो गए। दुर्धर्ष हिरण्यकश्यपु हारा और प्रह्लाद का सिक्का जम गया। समय आने पर, किसी दिग्भ्रांत करने वाले झाड़ -झंखारों के जंगल को दावानल बनकर नष्ट करने में एक चिनगारी भी पर्याप्त हो सकती है। प्रलय की चुनौती जैसी ताड़का को राम ने और पूतना को कृष्ण ने बचपन में ही तो धराशायी कर दिया था। महाकाल का संकल्प यदि युग परिवर्तन का तारतम्य इन्हीं दिनों बिठा ले, तो किसी को भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
🔶 निकट भविष्य की कुछ सुनिश्चित संभावनाएँ ऐसी हैं, जिनमें हाथ डालने वाले सफल होकर ही रहेंगे। अर्जुन की तरह नियति द्वारा पहले से ही मारे गए विपक्षियों का हनन करके अनायास ही श्रेय और प्रेम का दुहरा लाभ प्राप्त करेंगे। इसी माहौल में उन्हें प्रतिभा परिवर्धन का वह लाभ भी मिल जाएगा, जिसके आधार पर मूर्द्धन्य युगशिल्पियों में उनकी गणना हो सके।
🔷 अगले दिनों प्रचलित दुष्प्रवृत्तियों में से अधिकांश अपनी मौत मरेंगी, जिस प्रकार शीत ऋतु में मक्खी-मच्छरों का प्रकृति परंपरा के अनुसार अंत हो जाता है। अंधविश्वास, मूढमान्यताएँ, रूढ़ियाँ अंधपरंपराएँ, दूरदर्शी विवेकशीलता का उषाकाल प्रकट होते ही, उल्लू-चमगादड़ों की तरह अपने कोटरों में जा घुसेंगी। संग्रही और अपव्ययी जिस प्रकार आज अपना दर्प दिखाते हैं, उसके लिए तब कोई आधार शेष न रहेगा। संग्रही, आलसी और लालची तब भाग्यवान होने की दुहाई न दे सकेंगे। एक और भी बड़ी बात यह होगी कि चिरकाल से उपेक्षित नारी वर्ग न केवल अपनी गरिमा को उपलब्ध करेगा, वरन् उसे नर का मार्गदर्शन-नेतृत्व करने का गौरव भी मिलेगा। पिसे हुए, पिछड़े हुए ग्राम उभरेंगे और उन सभी सुविधाओं से संपन्न होंगे, जिनके लिए उस क्षेत्र के निवासियों को आज शहरों की ओर भागना पड़ता है। समता और एकता के मार्ग में अड़े हुए अवरोध एक-एक करके स्वयं हटेंगे और औचित्य के विकसित होने का मार्ग साफ करते जाएँगे। सम्मान वैभव को नहीं, उस वर्चस्व को मिलेगा जो आदर्शों के लिए उत्सर्ग करने का साहस सँजोता है। पाखंड का कुहासा पिछले दिनों कितना ही सघन क्यों न रहा हो, अगले दिनों उसके लंबे समय तक पैर जमाए रहने की कोई संभावना नहीं है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 50