बुधवार, 18 अक्तूबर 2023

👉 क्या मैं शरीर ही हूँ-उससे भिन्न नहीं? (भाग 3)

मौत के जरा से आघात से मेरा स्वरूप यह कैसा हो गया। अब तो मेरी मृत काया-हिलती डुलती भी नहीं-बोलती, सोचती भी नहीं? अब तो उसके कुछ अरमान भी नहीं है। हाय, यह कैसी मलीन, दयनीय, घिनौनी बनी जमीन पर लुढ़क रही है। अब तो यह पलंग बिस्तर पर सोने तक का अधिकार खो बैठी। कुशाओं बान से ढकी-गोबर से लिपी गीली भूमि पर यह पड़ी है। अब कोई चिकित्सक भी इसका इलाज करने को तैयार नहीं। कोई बेटा, पोता गोदी में नहीं आता।

पत्नी छाती तो कूटती है पर साथ सोने से डरती है। मेरा पैसा-मेरा वैभव-मेरा सम्मान हाय रे! सब छिन गया-हार से मैं बुरी तरह लुट गया। मेरे कहलाने वाले लोग ही-मेरा सब कुछ छीन कर मुझे इस दुर्गति के साथ घर से निकाल रहें हैं। क्या यही अपनी दुर्दशा कराने के लिए मैं जन्मा? यही है क्या मेरा अन्त-यही था मेरा लक्ष्य, यही है क्या मेरी उपलब्धि। जिसके लिए कितने पुरुषार्थ किये थे-क्या उसका निष्कर्ष यही है? यही हूँ मैं-जो मुर्दा बना पड़ा हूँ-और लकड़ियों की चिता में जल कर अगले ही क्षण अपना अस्तित्व सदा के लिए खोने जा रहा हूँ।

लो अब पहुँच गया मैं चिता पर। लो, मेरा कोमल मखमल जैसा शरीर-जिसे सुन्दर, सुसज्जित, सुगन्धित बनाने के लिए घण्टों शृंगार किया करता था, अब आ गया अपनी असली जगह पर। लकड़ियों का ढेर-उसके बीच दबाया हुआ मैं। लो यह लगी आग। लो, अब मैं जला। अरे मुझे जलाओ मत। इन खूबसूरत, हड्डियों में मैं अभी और रहना चाहता हूँ, मेरे अरमान बहुत हैं, इच्छायें तो हजार में से एक भी पूरी नहीं हुई। मुझे उपार्जित सम्पदाओं से अलग मत करो, प्रियजनों का वियोग मुझे सहन नहीं। इस काया को जरा सा कष्ट होता था तो चिकित्सा, उपचार मैं बहुत कुछ करता था। इस काया को इस निर्दयतापूर्वक मत जलाओ।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1972 पृष्ठ 4

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 18 Oct 2023

सुअवसरों की प्रतीक्षा में न बैठे रहो उद्यम के लिए हर घड़ी शुभ मुहूर्त है और हर पल सुअवसर। सस्ती सफलता के फेर में पड़े रहने से कुछ लाभ नहीं। चिरस्थायी प्रगति के लिए राजमार्ग पर अनवरत परिश्रम और अपराजेय साहस साथ लेकर चलना पड़ता है। पगडण्डियाँ ढूँढ़ना बेकार है। वे भटका सकती हैं। जिनने भी कुछ कहने लायक सफलता पाई है उन्हें गहराई तक खोदने और उतरने के लिए कटिबद्ध होना पड़ा है। विजय-श्री का वरण करने के लिए कमर कसना, आस्तीन चढ़ाना और गहराई तक खुदाई करना आवश्यक है पर ध्यान यह भी रखना चाहिए कि कहीं कुदाली से अपने पैर ही न कट जांय।

संसारी लोग जहाँ स्वार्थ के लिए ही निरन्तर मरते खपते रहते हैं वहाँ श्रद्धावान् परमार्थ को लक्ष्य रखता है। उसे कर सकने के लिए अपनी अन्तः स्थिति को कषाय कल्मषों से विरत करते रहने में लगा रहता है। साँसारिक लोगों का लक्ष्य जहाँ संकीर्ण स्वार्थ परता की पूर्ति का होता है वही आध्यात्मवादी परमार्थ संचय के अतिरिक्त और कुछ सोचता ही नहीं। एक जहाँ साधन संपदा से लदने के लिए उचित अनुचित का विचार तक छोड़ देता हैं वहाँ श्रद्धावान् न्यूनतम निर्वाह में काम चलाना और क्षमताओं का अपनी तथा दूसरों की संस्कृतियों को समुन्नत करने में नियोजित किये रहता है।

भावुकता और भावसंवेदना में अन्तर है। भावुकता एक आवेश है जब कि संवेदना अन्तःकरण का परिष्कृत स्तर। उसमें संकीर्ण स्वार्थ-परता का लेश मात्र भी अंश नहीं होता। जो कुछ सोचते बन पड़ता है और क्रिया रूप में अपनाया जाता है उसमें आत्मीयता का गहरा पुट होता है। श्रद्धा इसी स्थिति की अभिव्यक्ति है। उसमें अपनी श्रेष्ठतम चेतना का अंश निचोड़ा जाता है और उसे निस्वार्थ भाव से जन कल्याण के लिए अर्पित किया जाता है। इसे कारण शरीर से उभरा हुआ वरदान भी कह सकते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...