🔶 साधना—साधना का अर्थ है कि अपने गुण, कर्म, स्वभाव को साध लेना। वस्तुतः मनुष्य चौरासी लाख योनियों को घूमते-घूमते उन सारे के सारे प्राणियों के कुसंस्कार अपने भीतर जमा करके ले आया है, जो मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक नहीं हैं, बल्कि हानिकारक है। तो भी वे स्वभाव के अंग बन गए हैं और हम मनुष्य होते हुए भी पशु-संस्कारों से प्रेरित रहते हैं और पशु-प्रवृत्तियों को बहुधा अपने जीवन में कार्यान्वित करते रहते है। इस अनगढ़पन को ठीक कर लेना, सुगढ़पन का अपने भीतर से विकास कर लेना ,, सुगढ़पन का अपने भीतर से विकास कर लेना, कुसंस्कारों को जो पिछली योनियों के कारण हमारे भीतर जमे हुए हैं, उनको निरस्त कर देना और अपना स्वभाव इस तरह का बना लेना जिसको हम मानवोचित कह सकें—साधना है।
🔷 साधना के लिए हमको वही क्रियाकलाप अपनाने पड़ते हैं, जो कि कुसंस्कारी घोड़े व बैल को सुधारने के लिए उसके मालिकों को करने पड़ते हैं—हल में चलने के लिए और गाड़ी में चलने के लिए। कुसंस्कारों को दूर करने के लिए हमको लगभग उसी तरह के प्रयत्न करने पड़ते हैं जैसे कि सरकस के पशुओं को पालते हुए उन्हें इस लायक बनाते हैं कि वे सरकस में तमाशा दिखा सकें ।। इसी तरह के प्रयत्न हमको अपने गुण, कर्म, स्वभाव के विकास के, परिष्कार के लिए करने पड़ते हैं।
🔶 कच्ची धातुओं को जिस तरीके से आग में तपा करके उनको शुद्ध-परिष्कृत बनाया जाता है, जेवर-आभूषण बनाए जाते हैं, उसी तरीके से हमारा कच्चा जीवन, कुसंस्कारी जीवन को ढाल करके ऐसा सभ्य और ऐसा सुसंस्कृत बनाया जाए कि हम ढली हुई धातु के आभूषण के तरीके से, औजार-हथियार के तरीके से दिखाई पड़े। जंगली झाड़ियों को काटकर के माली लोग अच्छे-अच्छे झाड़ और खूबसूरत पार्क बना देते हैं। हमको भी अपने झाड़-झंखाड़ जैसे जीवन को परिष्कृत करके, काट-छाँट करके, समुन्नत करके इस लायक बनाना चाहिए कि जिसको कहा जा सके कि वह सभ्य और सुसंस्कृत जीवन है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)
🔷 साधना के लिए हमको वही क्रियाकलाप अपनाने पड़ते हैं, जो कि कुसंस्कारी घोड़े व बैल को सुधारने के लिए उसके मालिकों को करने पड़ते हैं—हल में चलने के लिए और गाड़ी में चलने के लिए। कुसंस्कारों को दूर करने के लिए हमको लगभग उसी तरह के प्रयत्न करने पड़ते हैं जैसे कि सरकस के पशुओं को पालते हुए उन्हें इस लायक बनाते हैं कि वे सरकस में तमाशा दिखा सकें ।। इसी तरह के प्रयत्न हमको अपने गुण, कर्म, स्वभाव के विकास के, परिष्कार के लिए करने पड़ते हैं।
🔶 कच्ची धातुओं को जिस तरीके से आग में तपा करके उनको शुद्ध-परिष्कृत बनाया जाता है, जेवर-आभूषण बनाए जाते हैं, उसी तरीके से हमारा कच्चा जीवन, कुसंस्कारी जीवन को ढाल करके ऐसा सभ्य और ऐसा सुसंस्कृत बनाया जाए कि हम ढली हुई धातु के आभूषण के तरीके से, औजार-हथियार के तरीके से दिखाई पड़े। जंगली झाड़ियों को काटकर के माली लोग अच्छे-अच्छे झाड़ और खूबसूरत पार्क बना देते हैं। हमको भी अपने झाड़-झंखाड़ जैसे जीवन को परिष्कृत करके, काट-छाँट करके, समुन्नत करके इस लायक बनाना चाहिए कि जिसको कहा जा सके कि वह सभ्य और सुसंस्कृत जीवन है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)