मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

शिष्य संजीवनी (भाग 37): जैविक प्रवृत्तियों को बदल देती है सदगुरु की चेतना

शिष्य संजीवनी का यह सूत्र जितना गहन है, उतना ही रहस्यमय भी। इसे सही- सही वही अनुभव कर सकते हैं, जो अपने अन्तःकरण के महारण्य में मार्ग खोजने में लगे हैं। जो इस महत्कार्य में सम्पूर्ण तल्लीनता व तन्मयता से तत्पर हैं, उन्हीं में इस सूत्र से बिखर रही प्रकाश किरणें अवतरित हो पाएँगी। इस सूत्र के पहले जो भी सूत्र बताए गए थे, यह सूत्र उन सभी की अपेक्षा अति विशिष्ट है। इसकी पहली पंक्ति ‘भयंकर आँधी के पश्चात् जो निस्तब्धता छा जाती है, उसी में फूल खिलने की प्रतीक्षा करो, उससे पहले नहीं।’ सभी पंक्तियों का सार है।

हम सभी साधक- जो वर्षों से साधना कर रहे हैं, उनमें से प्रायः सभी को आँधियों का अनुभव है। हम सभी के अन्तर्गगन आँधियों के धूल- गुबार से भरे हुए हैं। संस्कारों, प्रवृत्तियों एवं कर्मों के भयावह जंगल में ये आँधियाँ जोर- शोर से उठती हैं। शुरूआती दौर में हम ज्यों- ज्यों साधना करते हैं, त्यों- त्यों इनका शोर बढ़ता है। आँधी की गर्द- गुबार तेज होती है। कभी- कभी तो इनके बढ़ने की दर साधना के बढ़ने के हिसाब से ही तेज होती है।

बड़ी विकट एवं विपन्न स्थिति होती है इस समय साधक की। ऐसे में उसके लिए गुरुभक्ति का ही सहारा होता है। गुरुभक्ति का रक्षा कवच ही उसे सुरक्षा प्रदान करता है। जो इस सुरक्षा का सम्बल बनाए अन्त तक टिके रहते हैं, उनके जीवन में आँधियों का यह शोर कम हो जाता है और इसका स्थान एक नीरव- निस्तब्धता ले लेती है।

क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
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