सोमवार, 10 फ़रवरी 2020

👉 कस्तूरी कुण्डल बसे, मृग ढूँढे बन माँहि!!

एक बार भगवान दुविधा में पड़ गए। लोगों की बढ़ती साधना वृत्ति से वह प्रसन्न तो थे पर इससे उन्हें व्यावहारिक मुश्किलें आ रही थीं। कोई भी मनुष्य जब मुसीबत में पड़ता,तो भगवान के पास भागा-भागा आता और उन्हें अपनी परेशानियां बताता। उनसे कुछ न कुछ मांगने लगता। भगवान इससे दुखी हो गए थे।

अंतत: उन्होंने इस समस्या के निराकरण के लिए देवताओं की बैठक बुलाई और बोले- देवताओं !! मैं मनुष्य की रचना करके कष्ट में पड़ गया हूं। कोई न कोई मनुष्य हर समय शिकायत ही करता रहता है, जिससे न तो मैं कहीं शांति पूर्वक रह सकता हूं,न ही तपस्या कर सकता हूं। आप लोग मुझे कृपया ऐसा स्थान बताएं जहां मनुष्य नाम का प्राणी कदापि न पहुंच सके।

प्रभू के विचारों का आदर करते हुए देवताओं ने अपने-अपने विचार प्रकट किए।

गणेश जी बोले- आप हिमालय पर्वत की चोटी पर चले जाएं।

भगवान ने कहा- यह स्थान तो मनुष्य की पहुंच में है। उसे वहां पहुंचने में अधिक समय नहीं लगेगा।

इंद्रदेव ने सलाह दी कि वह किसी महासागर में चले जाएं।"

वरुण देव बोले आप अंतरिक्ष में चले जाइए।

भगवान ने कहा- एक दिन मनुष्य वहां भी अवश्य पहुंच जाएगा।

भगवान निराश होने लगे थे। वह मन ही मन सोचने लगे- क्या मेरे लिए कोई भी ऐसा गुप्त स्थान नहीं है, जहां मैं शांतिपूर्वक रह सकूं ?

अंत में सूर्य देव बोले- प्रभू !! आप ऐसा करें कि मनुष्य के हृदय में बैठ जाएं। मनुष्य अनेक स्थान पर आपको ढूंढने में सदा उलझा रहेगा। पर वह यहाँ आपको कदापि न तलाश करेगा।

ईश्वर को सूर्य देव की बात पसंद आ गई। उन्होंने ऐसा ही किया। वह मनुष्य के हृदय में जाकर बैठ गए। उस दिन से मनुष्य अपना दुख व्यक्त करने के लिए ईश्वर को ऊपर, नीचे, दाएं,बाएं,आकाश, पाताल में ढूंढ रहा है पर वह मिल नहीं रहे। मनुष्य अपने भीतर बैठे हुए ईश्वर को नहीं देख पा रहा है।

👉 आप निराश मत हूजिए (भाग ३)

मनुष्य का स्वभाव ज्यों-ज्यों आत्मिक भाव और आत्मिक जीवन की अभिवृद्धि करता है त्यों-त्यों उसमें सामर्थ्य भी बढ़ते जाते हैं। जैसे-जैसे तुम अपने शरीर के अंग प्रत्यंगों में छिपे सामर्थ्यों को प्रकट करोगे। आविष्कार करोगे-वैसे-वैसे विशेष रूप से महान बनते जाओगे। उच्च विचारों द्वारा जितने अंशों में हम अपने जीवन का विकास कर सकेंगे, उतने ही अंशों में उसका यथार्थ उपभोग कर सकेंगे।

कहते हैं एक बार एक बड़े भारी व्यापारी की पत्नी तार लिए दौड़ी हुई उसके कमरे में, जहाँ वह बैठा व्यापार की कुछ नवीन योजनाएं सोच रहा था, आई और हाँफते हुए बोली- “प्यारे हमने सब कुछ खो दिया है। हमारे जहाज माल-असबाब इत्यादि डूब गए हैं, सारी उम्र के किये-कराये पर पानी फिर गया है हमारी सब बहुमूल्य वस्तुएं जा चुकी हैं। उफ्फ अब क्या होगा? हाय हाय ! हमें कौन पूछेगा?”

पति ने धैर्य दिखाते हुए कहा - “क्या तुम्हें भी मुझसे छीन लिया गया है?”
वह बोली - पागलों की सी बातें क्यों करते हो, मैं तो सदैव तुम्हारे पास हूँ।
और हमारी आदतें तो कहीं नहीं चली गई हैं?
नहीं ! आदतें भला कहाँ जायेंगी?

तब तो निराश होने की तनिक भी आवश्यकता नहीं हैं। हमने अपनी आदतों की कमाई ही खो दी है। संसार की सर्वश्रेष्ठ विभूतियाँ (आशावादिता, स्वास्थ्य, उत्साह, अध्यवसाय, परिश्रम और प्रेम) अब भी हमारे पास हैं। हम शीघ्र ही सब कुछ पुनः प्राप्त कर लेंगे, तुम धैर्य रखो। कहते हैं कि कुछ वर्षों बाद उनका गृह पुनः धन-धान्य से पूर्ववत पूरित हो गया। जब उनसे सफलता का रहस्य पूछा गया तो उन्होंने कहा “मैं कभी उम्मीद नहीं छोड़ता विपत्ति के काले बादलों से चिंतित नहीं होता वरन् हँसते-हँसते उनका सामना करता हूँ। कठिनाई आने से निराशा का चिन्ह मुख मंडल पर दिखाना अच्छे से अच्छे मनुष्य को विफल बना सकता है।”

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1950 पृष्ठ 14

👉 QUERIES ABOUT ANUSTHANS (Part 3)

Q.5. Is it possible to have an Anusthan performed by someone else?

Ans. To get Jap performed by others on payment on one’s behalf amounts to purchasing labour and deriving advantage out of it. This earns no merit. There are some important tasks which require to be carried out by one’s own self. It becomes ridiculous if they are got done by others. Can a servant be appointed to study on one’s own behalf ? Can one entrust his sleep to someone else? Nobody appoints someone else to procreate children on his behalf. How can a disease be cured if a person other than the patient is paid and asked to take treatment on behalf of the patient? In the same way devotional worship of God has to be done in His proximity, attained by  the devotee in person. Self-discipline , penance or endurance are required to be practised and friendship is nurtured by a person himself. Physical exercise is also done by a person himself. The same norm applies to Sadhana.

As for as practicable, one should perform his or her own Anusthan, In specific cases of contingency it can be entrusted to a qualified Brahman. The term Brahman here needs an elaboration. In ancient times individuals considered Brahmans were scholars of the science of Brahma. They possessed a high level of upright character, lived a virtuous life with minimum means of sustenance  and comfort.

Now-a-days, it is difficult to find such Brahmans, who besides having been born in a Brahman family (by caste and heredity) and wearing traditional costumes of Brahmans of yore also have the credibility of Brahmanism in their character, behaviour and thoughts. It is very difficult to find a true Brahman from amongst hordes of hypocrites masquerading as Brahmans.

It is, therefore, recommended that if at all necessary, irrespective of caste and creed, Anusthan may be entrusted to such an individual of high character who has an infallible faith in God and is not desirous of any worldly gains of name, fame or material gain.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 73

👉 जीवन में सुख दुख

जीवन में सुख भी आते हैं, दुख भी आते हैं। सुख आने पर व्यक्ति प्रसन्न हो जाता है, उछलता कूदता नाचता है। और जब दुख आता है, तो दहाड़ें मार-मार कर रोता भी है। ये सुख दुख भी अनेक स्तर के होते हैं।

पढ़ाई-लिखाई करने में, धन कमाने में, परिवार के पालन में, देश विदेश की यात्रा आदि कार्यों में अनेक प्रकार के कष्ट आते हैं। व्यक्ति इन सारे कष्टों को अच्छी प्रकार से सह लेता है, क्योंकि उसके सामने कुछ लक्ष्य होता है। अपनी उन्नति, परिवार का पालन करना, समाज को सुख देना, धर्म की रक्षा करना, देश की रक्षा करना इत्यादि कारणों से वह इन सारे दुखों को सह लेता है।

परंतु कभी-कभी जब जीवन में उसे धोखा खाना पड़ता है, विश्वासघात का सामना करना पड़ता है, और वह भी कोई अपना निकट का व्यक्ति ही उसे धोखा दे, तब जो उसको दुख होता है, उसे सहन करना बहुत कठिन पड़ता है।

कोई बात नहीं। यह संसार है। यहाँ सब कुछ होता है। अपने पराए सब लोग सुख भी देते  हैं, दुख भी देते हैं। जब भी कोई अपना निकट का व्यक्ति दुख देवे, धोखा देवे, विश्वासघात करे, तब भी आप विचलित न होवें, यही आपकी वीरता है।

उस समय कैसे उस दुख को सहन करें? कैसे धैर्य रखें? इस प्रश्न का उत्तर है, कि तब ऐसा सोचें, यह संसार अनित्य है। यहां सुख आता है, वह चला जाता है। दुख आता है, वह भी चला जाएगा।

इस प्रकार से सोचने से वह दुख आपको हल्का लगेगा। और फिर भी वह दुख  पूरा दूर न हो, तो उस दुख को, उस अन्याय को ईश्वर के न्याय पर, आप छोड़ देवें। और अपने मन में तीन शब्द बोलें, "ईश्वर न्याय करेगा। ऐसा सोचने से आपका दुख हल्का हो  जाएगा। आपका मन बुद्धि विचलित नहीं होगा। आप अपना जीवन ठीक प्रकार से चला पाएंगे।

👉 शान्ति

शान्ति में स्वतः ही समस्त सुखों का अनुभव होता है, जबकि अशान्ति के क्षणों में समूचा जीवन दुःखमय हो जाता है। अन्तर्मन में शान्ति प्रगाढ़ हो तो दुःखमय परिस्थितियाँ, बाहरी जीवन के सारे आघात मिलकर भी अन्तस में दुःख को अंकुरित नहीं कर पाते। लेकिन यदि अपना अन्तःकरण अशान्त हो, तो सुख साधन, बाह्य जगत् का सुखद व्यवहार सिमटकर भी मन को सुख का अनुभव नहीं दे पाते। यह सच निरन्तर अनुभव होने के बावजूद भी प्रायः सभी का मन इस बोध से वीरान रहता है। सत्य यही है कि अन्तरात्मा शान्ति चाहती है, परन्तु जो हम करते हैं, उससे अशान्ति ही बढ़ती है। याद रहे कि अशान्ति की जड़ महत्त्वाकांक्षा है, जिसे शान्ति की चाहत है, उसे महत्त्वाकांक्षा छोड़नी पड़ेगी। क्योंकि शान्ति का प्रारम्भ वहाँ से होता है, जहाँ से महत्त्वाकांक्षा समाप्त होती है।
  
सन्त इमर्सन ने लिखा है- ‘युवावस्था में मेरे अनेकों सपने थे। उन्हीं दिनों मैंने एक सूची बनायी थी कि जीवन में मुझे क्या-क्या पाना है। इस सूची में वे सारी चीजें थीं, जिन्हें पाकर मैं धन्य होना चाहता था। स्वास्थ्य, सौन्दर्य, सुयश, सम्पत्ति, सुख इसमें सभी कुछ था। इस सूची को लेकर मैं बुजुर्ग सन्त थॉरो के पास गया। और उनसे कहा क्या मेरी इस सूची में जीवन की सभी उपलब्धियाँ नहीं आ जाती हैं? उन्होंने मेरी बातों को ध्यान से सुना और उनकी आँखों में हँसी की चमक गहरी हो उठी। उनके होंठ मुस्करा उठे और वे बोले- मेरे बेटे! तुम्हारी यह सूची बड़ी सुन्दर है। बहुत विचारपूर्वक तुमने इसे बनाया है। फिर भी तुमने इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण बात छोड़ दी है, जिसके बिना सब कुछ व्यर्थ हो जाता है। मैंने पूछा- वह क्या है? उत्तर में उन वृद्ध अनुभवी सन्त ने मेरी सम्पूर्ण सूची को बुरी तरह से काट दिया। और उसकी जगह उन्होंने केवल एक शब्द लिखा- शान्ति।

यह शान्ति कोई बाहरी वस्तु नहीं है, यह तो स्वयं का ही एक ऐसा निर्माण है कि हर परिस्थिति में अन्तःकरण में शान्ति की मधुर सरगम प्रवाहित होती रहे। यह विचार की नहीं अनुभव की अवस्था है। यह कोई रिक्त, खाली, खोखली मनःस्थिति नहीं है, बल्कि अन्तर्मन के सकारात्मक संगीत की मुधरता है

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १८२

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...