बुधवार, 2 अगस्त 2017
👉महत्त्वाकांक्षा के ज्वर से मुक्ति

🔵बड़ी सहज जिज्ञासा है, इस महत्त्वकांक्षा का मूल क्या है? इसका उत्तर भी उतना ही सहज है, ‘‘हीनता का भाव। अभाव का बोध।’’ हालाँकि ऊपर से दिखने में हीनता का भाव और महत्त्वाकांक्षी चेतना परस्पर विरोधी दिखाई देते हैं, लेकिन वस्तुतः वे एक ही भावदशा के दो छोर हैं। एक छोर से जो हीनता है, वही दूसरे छोर से महत्त्वाकांक्षा। हीनता ही स्वयं को ढकने-छिपाने के प्रयास में महत्त्वाकांक्षा बन जाती है। अपनी इस कोशिश में वह स्वयं को ढक तो लेती है, पर मिटती नहीं और ध्यान रखने की बात तो यह है कि किसी भी रोग को ढकने भर से कभी भी कोई छुटकारा नहीं है। इस भाँति रोग मिटते नहीं, वरन् पुष्ट ही होते हैं।
🔴 व्यक्ति जब स्वयं की वास्तविकता से दूर भागता है, तब तक वह किसी-न-किसी रूप में महत्त्वाकांक्षा के ज्वर में ग्रसित होता रहता है। स्वयं से दूर भागने की आकांक्षा में वह स्वयं जैसा है, उसे ढकता है और भूलता है, लेकिन क्या हीनता की विस्मृति और उसका विजर्सन एक ही बात है? नहीं। हीनता की विस्मृति हीनता से मुक्ति नहीं है। इससे मुक्ति तो स्वयं को जानकर ही है, क्योंकि स्वयं से भागना ही वह मूल और केन्द्रीय भाव है, जिससे सारी हीनताओं का निर्माण होता है।
🔵आत्मज्ञान के अतिरिक्त इस आंतरिक अभाव से और महत्त्वाकांक्षा के ज्वर से मुक्ति का कोई उपाय नहीं है। जो अपने आप को जानने, उसमें जीने और जागने का साहस करते हैं, उनके लिए शून्य ही पूर्ण बन जाता है। फिर न हीन भाव रहता है और न उससे उपजने वाला महत्त्वाकांक्षा का ज्वर।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 91
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