बुधवार, 29 जुलाई 2020

👉 ये मिट्टी किसी को नही छोडेगी:-

एक राजा बहुत ही महत्त्वाकांक्षी था और उसे महल बनाने की बड़ी महत्त्वाकांक्षा रहती थी उसने अनेक महलों का निर्माण करवाया!

रानी उनकी इस इच्छा से बड़ी व्यथित रहती थी की पता नही क्या करेंगे इतने महल बनवाकर!

एक दिन राजा नदी के उस पार एक महात्मा जी के आश्रम के वहाँ से गुजर रहे थे तो वहाँ एक संत की समाधी थी और सैनिकों से राजा को सूचना मिली की संत के पास कोई अनमोल खजाना था और उसकी सूचना उन्होंने किसी को न दी पर अंतिम समय मे उसकी जानकारी एक पत्थर पर खुदवाकर अपने साथ ज़मीन मे गढ़वा दिया और कहा की जिसे भी वो खजाना चाहिये उसे अपने स्वयं के हाथों से अकेले ही इस समाधी से चोरासी हाथ नीचे सूचना पड़ी है निकाल ले और अनमोल सूचना प्राप्त कर लेंवे और ध्यान रखे उसे बिना कुछ खाये पिये खोदना है और बिना किसी की सहायता के खोदना है अन्यथा सारी मेहनत व्यर्थ चली जायेगी !

राजा अगले दिन अकेले ही आया और अपने हाथों से खोदने लगा और बड़ी मेहनत के बाद उसे वो शिलालेख मिला और उन शब्दों को जब राजा ने पढ़ा तो उसके होश उड़ गये और सारी अकल ठिकाने आ गई!

उस पर लिखा था हॆ राहगीर संसार के सबसे भूखे प्राणी शायद तुम ही हो और आज मुझे तुम्हारी इस दशा पर बड़ी हँसी आ रही है तुम कितने भी महल बना लो पर तुम्हारा अंतिम महल यही है एक दिन तुम्हे इसी मिट्टी मे मिलना है!

सावधान राहगीर, जब तक तुम मिट्टी के ऊपर हो तब तक आगे की यात्रा के लिये तुम कुछ जतन कर लेना क्योंकि जब मिट्टी तुम्हारे ऊपर आयेगी तो फिर तुम कुछ भी न कर पाओगे यदि तुमने आगे की यात्रा के लिये कुछ जतन न किया तो अच्छी तरह से ध्यान रखना की जैसै ये चोरासी हाथ का कुआं तुमने अकेले खोदा है बस वैसे ही आगे की चोरासी लाख योनियों मे तुम्हे अकेले ही भटकना है और हॆ राहगीर ये कभी न भूलना की "मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी मे मिलना है बस तरीका अलग अलग है"

फिर राजा जैसै तैसे कर के उस कुएँ से बाहर आया और अपने राजमहल गया पर उस शिलालेख के उन शब्दों ने उसे झकझोर के रख दिया और सारे महल जनता को दे दिये और "अंतिम घर" की तैयारियों मे जुट गया!

हमें एक बात हमेशा याद रखना की इस मिट्टी ने जब रावण जैसै सत्ताधारियों को नही बक्सा तो फिर साधारण मानव क्या चीज है इसलिये ये हमेशा याद रखना की मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी मे मिलना है क्योंकि ये मिट्टी किसी को नही छोड़ने वाली है!

👉 सोऽहम् साधना द्वारा प्राणतत्व का परिपोषण

सोऽहम्-साधना भावोत्कर्ष एवं शक्ति-अवतरण की प्रक्रिया है। इसे अजपा गायत्री जाप भी कहते हैं। प्राण निरन्तर उसका बीज रूप में जप करता रहता है। श्वास लेते समय ‘सो’ ध्वनि का और छोड़ते समय ‘हम’ ध्वनि का अन्तःभूमिका में अनुभव करना होता है।

वायु जब छोटे छिद्र से होकर वेगपूर्वक निकलती है तो घर्षण के कारण ध्वनि प्रवाह उत्पन्न होता है। बाँसुरी से स्वर लहरियाँ इसी तरह निकलती हैं। जंगलों में घने बाँसों के बीच से अक्सर बाँसुरी जैसी ध्वनियाँ निकलती सुनाई देती हैं। इसका कारण बाँसों में कीड़ों द्वारा किए गये छेदों में वायु की वेगपूर्वक टकराहट से उत्पन्न स्वर प्रवाह ही है। वृक्षों को झकझोर कर बहने वाली हवा से भी इसीलिए कभी-कभी सनसनाहट सुनाई पड़ती है। नासिका छिद्र भी बाँसुरी के छेदों जैसे ही है। साधारण श्वास-प्रश्वास के समय भी इनमें वायु गुजरते समय ध्वनि उत्पन्न होती है, पर वह धीमी बहुत होती है। प्राणयोग की साधना में गहरे श्वास-प्रश्वास के कारण यह ध्वनि प्रवाह तीव्रतर हो जाता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि खुले कानों से भी ये ध्वनि-प्रवाह सुने जा सकते हैं। उन्हें तो कर्णेन्द्रियों की सूक्ष्म चेतना में ही अनुभव किया जाता है।

श्वास क्रिया पर चित्त को एकाग्र कर ‘सो’ के साथ परमात्म चेतना के अन्तःप्रवेश की अनुभूति तथा ‘हम’ के साथ जीव-भाव की काय-कलेश्वर से विसर्जन की अनुभूति करनी चाहिए। इसमें प्रत्येक श्वास-प्रश्वास में परमात्मा सत्ता का अपने शरीर और मन पर अधिकाधिक आधिपत्य होते चलने की धारणा बलवती होती जाती है। यह भाव-चेतना जागृत होने पर शरीर और मन से लोभ-मोह, वासना-तृष्णा के आधिपत्य की समाप्ति तथा उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व की, ब्रह्म-सत्ता की प्रतिष्ठापना की अनुभूति गहरी होती जाती है। अनुभूति की गहनता ही परिणामकारी होगी। अन्यथा यह सब उथली कल्पनाओं की मनोरंजक क्रीड़ा ही सिद्ध होगी। सार्थकता उन्हीं विचारों-संकल्पों की है, जो क्रिया रूप में परिणत हैं। अन्यथा सब मनमोदक मात्र है। शेखचिल्लीपन से कोई उपलब्धि सम्भव नहीं है।

शरीर-मन से अवाँछनीय इन्द्रिय लिप्साओं का निष्कासन और दिव्य चेतना के शासन की प्रक्रिया ही सोऽहम् साधना को सार्थक बनाती है। चिन्तन जीवन-प्रवाह बन जाए, तभी वह चिन्तन है। अन्यथा मानसिक रति-विनोद ही कहा जाएगा।

यों सोऽहम् साधना का चमत्कारी परिणाम भी अतुल है। यह प्राणयोग की विशिष्ट साधना है। दस प्रधान और चौवन गौण, कुल चौंसठ प्राणायामों का विधि-विधान साधना विज्ञान के अन्तर्गत है। इनके विविध लाभ हैं। इन सभी प्राणायामों में सोऽहम् साधना रूपी प्राणयोग सर्वोपरि है। यह अजपा गायत्री जप प्राणयोग के अनेक साधना-विधानों में सर्वोच्च है। इस एक के ही द्वारा सभी प्राणायामों का लाभ प्राप्त हो सकता है।

षट्चक्र वेधन में प्राणतत्व का ही उपयोग होता है। नासिका द्वारा प्राण-तत्व खींचे जाने पर आज्ञाचक्र तक तो एक ही ढंग से कार्य चलता है, पर पीछे उसके भावपरक तथा शक्तिपरक ये दो भाग हो जाते हैं। भावपरक हिस्से में फेफड़े में पहुँचा हुआ प्राण शरीर के समस्त अंग-प्रत्यंगों में समाविष्ट होकर सत् का संस्थापन और असत का विस्थापन करता है। शक्तिपरक प्राणधारा आज्ञाचक्र से पिछले मस्तिष्क को स्पर्श करती है। मेरुदण्ड से निकल जाती है, जहाँ ब्रह्मनाड़ी का महानद है। इसी ब्रह्म-नद में इड़ा-पिंगला दो विद्युतधाराएँ प्रवाहित हैं, जो मूलाधार चक्र तक जाकर सुषुम्ना-सम्मिलन के बाद लौट आती हैं। मेरुदण्ड स्थित ब्रह्मनाड़ी के इस महानद में ही षट्चक्र भँवर की तरह स्थित है। इन्हीं षटचक्रों में लोक-लोकान्तरों से सम्बन्ध जोड़ने वाली रहस्यमय कुंजियाँ सुरक्षित रखी हुई हैं। जो जितने रत्न-भण्डारों से सम्बन्ध स्थापित कर ले, वह उतना ही महान।
कुण्डलिनी शक्ति भौतिक एवं आत्मिक शक्तियों की आधारपीठ है। उसका जागरण षट्चक्र बेधन द्वारा ही सम्भव है। चक्रवेधन प्राणतत्व पर आधिपत्य के बिना सम्भव नहीं। प्राणतत्व के नियन्त्रण में सहायक प्राणायामों में सोऽहम् का प्राण योग सर्वश्रेष्ठ व सहज है।

सोऽहम् साधना द्वारा एक अन्य लाभ है। दिव्य गन्धों की अनुभूति । गन्ध वायु तत्व की तन्मात्रा है। इन तन्मात्रा द्वारा देवतत्वों की अनुभूति का माध्यम है। नासिका सोऽहम् साधना, गन्ध तन्मात्रा को विकसित करती है, परिणामस्वरूप दिकगन्धों की अनायास अनुभूति समय-समय पर होती रहती है। इन गन्धों को कुतूहल या मनोविनोद की दृष्टि से नहीं लेना चाहिए। अपितु इनमें सन्निहित विभूतियों का उपयोग कर दिव्य शक्तियों की प्राप्ति का प्रयास किया जाना चाहिए। उपासना स्थल में धूपबत्ती जलाकर, गुलदस्ता सजाकर, चन्दन, कपूर आदि के लेपन या इत्र -गुलाबजल के छिड़काव द्वारा सुगन्ध पैदा की जाती है और उपासना अवधि में उसी की अनुभूति को सहज बनाया जाता है। यह अनुभूति गहरी होती चले, तो साधना स्थल से बाहर निकलने पर, बिना किसी गन्ध-उपकरण के भी दिकगन्ध आती रहेगी। ऐसी दिकगन्ध, एकाग्रता की अभिरुचि का चिन्ह है। विभिन्न पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों में घ्राण-शक्ति का महत्व सर्वविदित है। उसी के सहारे वे रास्ता ढूँढ़ते शत्रु को भाँपते और सुरक्षा का प्रबन्ध करते, प्रणय-सहचर को आमंत्रित करते, भोजन की खोज करते तथा मौसम की जानकारी प्राप्त करते हैं। इसी घ्राण-शक्ति के आधार पर प्रशिक्षित कुत्ते अपराधियों को ढूँढ़ निकालते हैं। मनुष्य अपनी घ्राण-शक्ति को विकसित कर अतीन्द्रिय संकेतों तथा अविज्ञात गतिविधियों को समझ सकते हैं। दिव्य-शक्तियों से सम्बन्ध का भी गन्धानुभूति एक महत्वपूर्ण माध्यम है। सोऽहम् साधना इसी शक्ति को विकसित करती है।

सोऽहम् साधना का एक अन्य विशिष्ट पक्ष स्वर साधना का है। शरीर और मन की स्थिति में ऋण एवं धन विद्युत आवेशों की घट-बढ़, इड़ा तथा पिंगला, नाड़ी के माध्यम से चलने वाले चन्द्र-सूर्य स्वर के प्रभाव अनुसार होती रहती है। स्वर स्थिति का सही ज्ञान अपनी अन्तः-क्षमता की दशा को जानने में सहायक होता है और तब किस समय कौन सा काम हाथ में लेना अधिक उचित होगा, यह निर्णय लेना भी सरल हो जाता है। सामान्यतः अविज्ञात जानकारियाँ भी स्वरयोग के द्वारा अधिक अच्छी तरह समझी जा सकती हैं।
स्वरयोग अपने आप में एक स्वतन्त्र शास्त्र है। उसकी साधना के अनेक अभ्यास हैं, पर सोऽहम् साधना उनमें सर्वाधिक सरल व सफल है। इस प्राणयोग द्वारा षट्चक्र वेधन सरल होता है। पंचकोशों के अनावरण हेतु अपेक्षित प्रखर प्राण-शक्ति भी इसी प्राणयोग के द्वारा सहज प्राप्त होती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर १९७६

👉 Live with Dignity

What could be more abominable and disdainful than a human life spend like that of bees or dogs buzzing and sticking around the rubbish of sinful tendencies or running madly in greed to lick the dirt of sensual lust. That ascent or ‘success’ of human life is useless and scornful which grows like a tree of dates, offering no shadow or shelter to anyone. What to say of the prosperous life, which is spent like a snake in guarding the possessions, which is all the time occupied in fulfilling selfish ambitions? They are really pitiable who are ignorant and wasters the precious opportunities of being born as humans – which even gods aspire to attain… Their acts are like selling invaluable pearls for mere pieces of colored glass and shining stones. The will have nothing but the sufferings of the sins and flaws and repenting in the end…

So, awaken ‘O’ human being, and recognize the greatness of your life. Live a life worth its dignity; do something that leaves out glorious marks behind you, which others could follow with grace. Do something, which could provide some light to the future generations. Truthfulness, honesty, loving and kind attitude, benevolence, tolerance, firmness, fairness, self-retrain, are the virtues of humanity which every human being could adopt irrespective of his or her intellectual level or social circumstances etc. These are the real treasure, real beauty and real honors of human life.

📖  Akhand Jyoti, Aug. 1946

👉 विचारों का प्रतिफल कर्म

कर्म जो आँखों से दिखाई देता है वह अदृश्य−विचारों का ही दृश्य रूप है। मनुष्य जैसा सोचता है वैसा करता है। चोरी, बेईमानी, दगाबाजी, शैतानी, बदमाशी कोई आदमी यकायक कभी नहीं कर सकता, उसके मन में उस प्रकार के विचार बहुत दिनों से घूमते रहते हैं। अवसर न मिलने से वे दबे हुए थे, समय पाते ही वे कार्य रूप में परिणत हो गये। बाहर के लोगों को किसी के द्वारा यकायक कोई दुष्कर्म होने की बात सुनकर इसलिए आश्चर्य होता है कि वे उसकी भीतरी स्थिति को नहीं जानते थे। इसी प्रकार कोई अधिक उच्चकोटि का सत्कर्म करने का भी आकस्मिक समाचार भले ही सुनने को मिले पर वस्तुतः उसकी तैयारी वह मनुष्य भीतर ही भीतर बहुत दिनों से कर रहा होता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति आज उन्नतिशील एवं सफलता सम्पन्न दिखाई पड़ते हैं वे अचानक ही वैसे नहीं बन गये होते वरन् चिरकाल से उनका प्रयत्न उसके लिए चल रहा होता है। भीतरी पुरुषार्थ को उनने बहुत पहले जगा लिया होता है। उनने अपने मनःक्षेत्र में भीतर ही भीतर वह अच्छाइयाँ जमा कर ली होती हैं जिनके द्वारा बाह्य जगत में दूसरों का सहयोग एवं उन्नति का आधार निर्भर रहता है। बाह्य−जीवन हमारे भीतरी जीवन का प्रतिबिम्ब मात्र है। पर्दे के पीछे दीपक जल रहा है तो उसका कुछ प्रकाश बाहर भी परिलक्षित होता है। इसी प्रकार भीतरी पर्दे में जिनमें कुछ अच्छाइयाँ हैं वे ही उनकी कीमत पर बाह्य−जगत में सुख साधनों को खरीद लेते हैं।

अनैतिक प्रकृति के लोग बहुधा अपनी चालाकी से धन कमा लेते या कोई उन्नति कर लेते देखे जाते हैं। इससे उस कमाई का सारा श्रेय अनैतिकता को नहीं दिया जा सकता। माना कि लोगों की कमजोरी और भोलेपन का लाभ कई शैतान उठा लेते हैं पर इस शैतानी के पीछे भी उनकी चतुरता, तीव्र−बुद्धि, तत्परता, सावधानी, लगन, हिम्मत, कष्ट सहिष्णुता आदि अनेक गुण छिपे रहते हैं। डाकुओं में भी पुरुषार्थ, हिम्मत, बहादुरी, कष्ट−सहिष्णुता, चतुरता, सावधानी अपने साथियों के प्रति वफादारी आदि अनेक मानसिक गुण भी होते हैं। यदि यह गुण किसी में न हों और वह केवल बेईमानी से ही कुछ लाभ उठाना चाहे तो उसका प्रयास एक कदम भी सफल नहीं हो सकता। अनैतिक लोगों की सफलता से चकित होकर कई लोग अनैतिकता को लाभ और सफलता का हेतु मानने लगते हैं यह भूल है। अनैतिकता के फलस्वरूप तो उन्हें सर्वत्र अविश्वास, घृणा, तिरस्कार, असहयोग एवं यथा अवसर राजकीय एवं ईश्वरीय दंड ही मिलता है। लाभ का श्रेय तो उस मनोभूमि को है जो प्रयत्नपूर्वक इतनी जल्दी बनाई गई कि अनैतिकता के दंड एवं लोगों की पकड़ से बचते हुए एक प्रकार की सफलता प्राप्त कर ली गई। बेवकूफ एवं आलसी, लापरवाह एवं अड़ियल प्रकृति के लोग अनैतिकता को अपनाकर भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकते। यदि पाप से ही कमाई होती हुई होती तो हर दुरात्मा को सफलता मिली होती। फिर जो लाखों अनैतिक मनोभूमि वाले भीख−टूक पर गुजारा करते दिखाई देते हैं वे सब के सब मालदार ही हो गये होते।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962

👉 विरोध न करना पाप का परोक्ष समर्थन (अंतिम भाग)

“चोर-चोर मौसेरे भाई” की उक्ति हर क्षेत्र में लागू होते देखते हैं। एक का पर्दाफाश होते ही-दूसरे अन्य मठकटे उसकी सहायता के लिए आ धमकते हैं। सोचते हैं संयुक्त मोर्चा बनाकर ही जन आक्रोश से बचा जा सकता है अन्यथा पाप के प्रति उभरा हुआ रोष आज एक साथी को दबोच रहा है तो कल दूसरे पर आ चढ़ेगा। इसलिए संयुक्त रूप से बचाव के उपाय करने चाहिए।

देखा गया है कि एक जेबकट पकड़ा जाय तो वह दो-चार चांटे पड़ते ही दहाड़ मारकर रोने-चिल्लाने लगता है मानो किसी ने उसकी गरदन काट ली हो। गिड़गिड़ाते, रोते-काँपते माफी माँगता है और दीनता की दुहाई देता है। इतने में अन्य साथी भले आदमियों के रूप में बीच-बिचाव करने आ पहुँचते हैं। वे तरह-तरह के ऐसे तर्क उपस्थित करते हैं मानो सज्जनता और साधुता के साक्षात् अवतार हैं। दस-बीस और भोले आदमी इकट्ठे होते हैं तो सज्जनतावादी तर्क उन्हें भी प्रभावित करते हैं और जेबकट को छुड़ा देते हैं। वह चाण्डाल चौकड़ी अपनी उस्ताद पर खूब प्रसन्न होती है और आपस में कहते हैं यह हथकण्डा कितना सस्ता और बढ़िया है कि पकड़े जाने पर बिना दण्ड भोगे इस तरकीब के सहारे सहज ही जान छुड़ाई जा सकती है। दुष्ट लोग आवश्यकतानुसार पकड़े जाने पर फिर इसी फार्मूले का उपयोग करते हैं और देखते हैं कि सज्जनता की आड़ में दुष्टता को पोषण देने का कैसा विचित्र और सरल हथकण्डा है।

करुणा और दया अच्छे गुण हैं, किन्तु उनका उपयोग हर जगह कल्याणकारी रूप में नहीं किया जा सकता। सीता छद्मवेशी रावण पर दया करके ही स्वयं विपत्ति में फंसी थी। बिना विवेक कुपात्र को भी दया-करुणा का लाभ पहुँचाना उन सत्प्रवृत्तियों को अपमानित करना है। ऐसा करना देवताओं के हथियार दुष्टों को सौंप देने जैसा मूर्खता और अनीति भरा कार्य है। यदि ‘पात्र-कुपात्र’ उचित-अनुचित का विवेक न किया गया तो दयालुता और उदारता का जो लाभ सत्प्रवृत्तियों को मिलना चाहिए वह न मिल सकेगा और दुष्ट प्रवृत्तियाँ अनायास ही उनका शोषण करने में सफल हो जावेंगी। अस्तु अनीति करने वाले के प्रति इस प्रकार की सम्वेदनाओं का प्रयोग नहीं किया जाना उचित है।

कहने का मतलब है, धर्म के प्रति जिसे जितना प्रेम हो वह अधर्म के प्रति उतना ही द्वेष रखे। जिसे ईश्वर भक्ति और आस्तिकता पर विश्वास हो वह ईश्वर विरोधी नास्तिकता के एकमात्र आधार अनाचार से बचे और बचावे। इसके बिना ईश्वर और शैतान को पाप और पुण्य को एक ही समझने की भूल होती रहेगी और भीतर तथा बाहर पनपता हुआ असुरत्व आत्मिक प्रगति की दिशा में एक कदम भी आगे न बढ़ने देगा।

अनीति को देखते हुए भी चुप बैठे रहना, उपेक्षा करना, आँखों पर पर्दा डाल लेना जीवित-मृतक का चिन्ह है। जो उसका समर्थन करते हैं, वे प्रकारान्तर से स्वयं ही दुष्कर्मकर्ता हैं। स्वयं न करना किन्तु दूसरों के दुष्ट कर्मों में सहायता, समर्थन, प्रोत्साहन, पथ-प्रदर्शन करना एक प्रकार से पाप करना है। इन दोनों ही तरीकों से दुष्टता का अभिवर्धन होता है।

मानवी साहसिकता और धर्मनिष्ठा का तकाजा है कि जहाँ भी अनीति पनपती देखें वहाँ उसके उन्मूलन का प्रयत्न करें। यह न सोचें कि जब अपने ऊपर सीधी विपत्ति आवेगी तब देखा जायेगा। आग अपने छप्पर में लगे तभी उसे बुझाया जाय, इसकी अपेक्षा यह अधिक उत्तम है कि जहाँ भी आग लगी है वहाँ बुझाने को आत्मरक्षा का अग्रिम मोर्चा मानकर तुरन्त विनाश से लड़ पड़ा जाय। यदि सीधे टकराने की सामर्थ्य अथवा स्थिति न हो तो कम से कम असहयोग एवं विरोध की दृष्टि से जितना कुछ बने पड़े उतना तो करना ही चाहिए। असुरता को निरस्त करने और देवत्व को बलिष्ठ बनाने के लिए हमें अपना अनीति विरोधी रुख तो अपनाये ही रखना चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति १९७६ नवम्बर ६४

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