शनिवार, 25 अप्रैल 2020

👉 Yah Sansaar Kya Hai यह संसार क्या है?

एक दिन एक शिष्य ने गुरु से पूछा, 'गुरुदेव, आपकी दृष्टि में यह संसार क्या है?

इस पर गुरु ने एक कथा सुनाई।

'एक नगर में एक शीशमहल था। महल की हरेक दीवार पर सैकड़ों शीशे जडे़ हुए थे। एक दिन एक गुस्सैल कुत्ता महल में घुस गया। महल के भीतर उसे सैकड़ों कुत्ते दिखे, जो नाराज और दुखी लग रहे थे। उन्हें देखकर वह उन पर भौंकने लगा। उसे सैकड़ों कुत्ते अपने ऊपर भौंकते दिखने लगे। वह डरकर वहां से भाग गया कुछ दूर जाकर उसने मन ही मन सोचा कि इससे बुरी कोई जगह नहीं हो सकती।

कुछ दिनों बाद एक अन्य कुत्ता शीशमहल पहुंचा। वह खुशमिजाज और जिंदादिल था। महल में घुसते ही उसे वहां सैकड़ों कुत्ते दुम हिलाकर स्वागत करते दिखे। उसका आत्मविश्वास बढ़ा और उसने खुश होकर सामने देखा तो उसे सैकड़ों कुत्ते खुशी जताते हुए नजर आए।

उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। जब वह महल से बाहर आया तो उसने महल को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ स्थान और वहां के अनुभव को अपने जीवन का सबसे बढ़िया अनुभव माना।  वहां फिर से आने के संकल्प के साथ वह वहां से रवाना हुआ।'

कथा समाप्त कर गुरु ने शिष्य से कहा..

'संसार भी ऐसा ही शीशमहल है जिसमें व्यक्ति अपने विचारों के अनुरूप ही प्रतिक्रिया पाता है। जो लोग संसार को आनंद का बाजार मानते हैं, वे यहां से हर प्रकार के सुख और आनंद के अनुभव लेकर जाते हैं।

जो लोग इसे दुखों का कारागार समझते हैं उनकी झोली में दुख और कटुता के सिवाय कुछ नहीं बचता.....।'

👉 Bhagwan Ka Hastakshep बेकाबू स्थिति में भगवान का हस्तक्षेप

यदि दैवी शक्तियाँ रोकथाम करने में समर्थ हैं, तो समय रहते वह सब क्यों नहीं करती। इतनी हैरानी उत्पन्न होने के बाद क्यों चेतती हैं? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि प्रत्येक घटनाक्रम के पीछे मनुष्य को सीखने लायक बहुत कुछ होता है। किस मार्ग पर चलने का क्या परिणाम हो सकता है इसे देखने अनुभव करने से भी मनुष्य बहुत कुछ सीखता है। अस्तु दैवी शक्तियों का हस्तक्षेप तभी चलता है जब जन सामान्य की अपनी क्षमताएं चूक जाती हैं।

आशा यही की जाती है कि जब मनुष्य बिगाड़ कर सकता है, तो उसी को बनाना या सुधारना भी चाहिए। बनाने, सुधारने के उपाय पिछले दिनों मनुष्य करता रहा है। इन दिनों भी कर रहा है, पर वे इस स्तर के नहीं जितने के होने चाहिए। ऐसी दशा में जब स्थिति हर दृष्टि से बेकाबू हो जाती है तभी भगवान हस्तक्षेप करते हैं। अन्यथा यही आशा करते हैं कि बिगाड़ने वाले सुधारें भी। सुधारने की प्रक्रिया इन दिनों परोक्ष जगत में चल रही है। समय आने पर सामान्यजन उसका प्रत्यक्ष रूप भी देखेंगे।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- जुलाई 1984 पृष्ठ 9

👉 Soul: The Identity of Truth

If we want to know the meaning, the purpose, the nature of our life, we must know our own self, our soul. Without that we keep wandering in the infinite trap of illusion and the immensity of worldly circumstances without even having the sight of our goal.
If you want to see the light of wisdom, want to excel in the truest sense, you must first accept and ponder over the preeminence of your soul. If you want to live respectful life, learn to respect your soul. Spiritual evolution would begin and eventually lead to unification of your soul (individual self) with the Supreme Soul (God) only if you purify, enlighten your self up to virtuous levels. For that, you will have to recognize and experience the divinity hidden in your soul.

Refinement and rise from inferior to superior, evil to nobility, is possible only if you realize that your soul, your inner self is originally a reflection of the divine. Respecting your inner self, your soul-reality does not mean that you become egotist or arrogant or have some superiority complex. In fact, that would be just a contrary act, a blunder of your ignorance. So be careful and understand that the respect of your own self means honor of your soul, your eternal impersonal self.

You should attempt to see the light of divinity indwelling in it, see the presence of God in it and worship it by sublime illumination of your heart, mind and conduct. Remembering it every moment should remind you that you are breathing in the presence of God and should edify your aspirations, your thoughts, your deeds accordingly.

📖 Akhand Jyoti, June 1942

👉 Chintan Ke Kshan चिंतन के क्षण 25 April 2020

स्वार्थी व्यक्ति यों किसी का कुछ प्रत्यक्ष बिगाड़ नहीं करता, किन्तु अपने लिए सम्बद्ध व्यक्तियों की सद्भावना खो बैठना एक ऐसा घाटा है, जिसके कारण उन सभी लाभों से वंचित होना पड़ता है जो सामाजिक जीवन में पारस्परिक स्नेह-सहयोग पर टिके हुए हैं।

ईश्वर को इस बात की इच्छा नहीं कि आप तिलक लगाते हैं या नहीं, पूजा-पत्री करते हैं या नहीं, भोग-आरती करते हैं या नहीं, क्योंकि उस सर्वशक्तिमान् प्रभु का कुछ भी काम इन सबके बिना रुका हुआ नहीं है। वह इन बातों से प्रसन्न नहीं होता, उसकी प्रसन्नता तब प्रस्फुटित होती है जब अपने पुत्रों को पराक्रमी, पुरुषार्थी, उन्नतिशील, विजयी, महान् वैभव युक्त, विद्वान्, गुणवान्, देखता है और अपनी रचना की सार्थकता अनुभव करता है।

आनंद का सबसे बड़ा शत्रु है- असंतोष। हम प्रगति के पथ पर उत्साहपूर्वक बढ़ें, परिपूर्ण पुरुषार्थ करें। आशापूर्ण सुंदर भविष्य की रचना के लिए संलग्न रहें, पर साथ ही यह भी ध्यान रखें कि असंतोष की आग में जलना छोड़ें। इस दावानल में आनंद ही नहीं, मानसिक संतुलन और सामर्थ्य का स्रोत भी समाप्त हो जाता है। असंतोष से प्रगति का पथ प्रशस्त नहीं, अवरुद्ध ही होता है।

किसी को यदि परोपकार द्वारा सुखी करते हैं और किसी को अपने क्रोध का लक्ष्य बनाते हैं, तो एक ओर का पुण्य दूसरी ओर के पाप से ऋण होकर शून्य रह जायेगा। गुण, कर्म, स्वभाव तीनों का सामंजस्य एवं अनुरूपता ही वह विशेषता है, जो जीवन जीने की कला में सहायक होती है।

ऐसे विश्वासों और सिद्धान्तों को अपनाइये जिनसे लोक कल्याण की दिशा में प्रगति होती हो। उन विश्वासों और सिद्धान्तों को हृदय के भीतरी कोने में गहराई तक उतार लीजिए। इतनी दृढ़ता से जमा लीजिए कि भ्रष्टाचार और प्रलोभन सामने उपस्थित होने पर भी आप उन पर दृढ़ रहें, परीक्षा देने एवं त्याग करने का अवसर आवे तब भी विचलित न हों। वे विश्वास श्रद्धास्पद होने चाहिए, प्राणों से अधिक प्यारे होने चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 Rachnatmak Jeevan Ki Sadhna रचनात्मक जीवन की साधना

नया वर्ष नयी साधना के स्वरों को लेकर हम सबके द्वार-देहरी तक आया है। इन स्वरों में रचनात्मक जीवन का मधुर गीत पिरोया है। चेतो! चेतो!! जागो! जागो!! की मीठी धुन को हम सभी इस नव वर्ष के नए विहान पर सुन सकते हैं। बहुत सोये,  अब और नहीं! बहुत खोया अब और नहीं!! की प्रभाती नव वर्ष की प्रभात बेला में गायी जा रही है। प्रकृति, परमेश्वर एवं सद्गुरु की सम्मिलित चेतना से उपजे इन साधना स्वरों की अनसुनी न करें।
  
ध्यान रहे, साधना से ही जीवन संवरता है। रचनात्मकता की कोपलें फूटती हैं, नव सृजन के अंकुर निकलते हैं। साधना के अभाव में जीवन यूँ ही बंटता, बिखरता और बरबाद होता रहता है। बरबादी की इस टीस को हममें से हर एक कहीं न कहीं अपनी अन्तर्चेतना में अनुभव करता है। जिन्दगी की बरबादी का दर्द हम सभी को सालता है। रचनात्मक जीवन की साधना में ही इसका समाधान है।
  
किन्तु सावधान! यह साधना कुछ इने-गिने कर्मकाण्डों तक सीमित नहीं है। किसी तरह की पूजा-पत्री, पाठ, होम से इसे पूरा नहीं किया जा सकता। यह तो सजगता, सक्रियता एवं शुचिता से ही सधती है। इन्हीं तीन के मिलन और मिश्रण से जीवन में सार्थकता का समावेश होता है। इसी संयोग से जीवन में वैभव एवं विभूतियों के अनुदान-वरदान बरसते हैं। व्यक्ति धनवान् ही नहीं, पुण्यवान्, बलवान्, ओजवान् एवं कीर्तिवान् भी बनता है। सभी तरह की सफलताएँ स्वयं ही उसका वरण करती हैं।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २२०

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