सोमवार, 15 नवंबर 2021

👉 जीवन साधना के त्रिविध पंचशील (अन्तिम भाग)

समाज निर्माणः-
    
(१) हममें से हर व्यक्ति अपने को समाज का एक अविच्छिन्न अंग मानें। अपने को उसके साथ अविभाज्य घटक मानें। सामूहिक उत्थान और पतन पर विश्वास करें। एक नाव में बैठे लोग जिस तरह एक साथ डूबते या पार होते हैं, वैसी ही मान्यता अपनी रहे। स्वार्थ और परमार्थ को परस्पर गूँथ दें। परमार्थ को स्वार्थ समझें और स्वार्थ सिद्धि की बात कभी ध्यान में आये तो वह संकीर्ण नहीं उदात्त एवं व्यापक हो। मिल जुलकर काम करने और मिल बाँटकर खाने की आदत डाली जाय।
    
(२) मनुष्यों के बीच सज्जनता, सद्भावना एवं उदार सहयोग की परम्परा चले। दान विपत्ति एवं पिछड़ेपन से ग्रस्त लोगों को पैरों पर खड़े होने तक के लिए दिया जाय। इसके अतिरिक्त उसका सतत प्रवाह सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए ही नियोजित हो। साधारणतया मुफ्त में खाना और खिलाना अनैतिक समझा जाय। इसमें पारिवारिक या सामाजिक प्रीति भोजों का जहाँ औचित्य हो, वहाँ अपवाद रूप से छूट रहे। भिक्षा व्यवसाय पनपने न दिया जाय। दहेज, मृतक भोज, सदावर्त धर्मशाला आदि ऐसे दान जो मात्र प्रसन्न करने भर के लिये दिये जाते हैं और उस उदारता के लाभ समर्थ लोग उठाते हैं, अनुपयुक्त माने और रोके जायें। साथ ही हर क्षेत्र का पिछड़ापन दूर करने के लिए उदार श्रमदान और धनदान को अधिकाधिक प्रोत्साहित किया जाय।
    
(३) किसी मान्यता या प्रचलन को शाश्वत या सत्य न माना जाय, उन्हें परिस्थितियों के कारण बना समझा जाय। उनमें जितना औचित्य, न्याय और विवेक जुड़ा हो उतना ग्राह्य और जो अनुपयुक्त होते हुए भी परम्परा के नाम पर गले बंधा हो, उसे उतार फेंका जाय। समय- समय पर इस क्षेत्र का पर्यवेक्षण होते रहना चाहिये और जो असामयिक, अनुपयोगी हो उसे बदल देना चाहिये। इस दृष्टि से लिंग भेद, जाति भेद के नाम पर चलने वाली विषमता सर्वथा अग्राह्य समझी जाय।
    
(४) सहकारिता का प्रचलन हर क्षेत्र में किया जाय। अलग- अलग पड़ने की अपेक्षा सम्मिलित प्रयत्नों और संस्थानों को महत्त्व दिया जाय। संयुक्त परिवार से लेकर संयुक्त राष्ट्र, संयुक्त विश्व को लक्ष्य बनाकर चला जाय। विश्व परिवार का आदर्श कार्यान्वित करने का ठीक समय यही है। सभी प्रकार के विलगावों को निरस्त किया जाय। व्यक्ति की सुविधा की तुलना में समाज व्यवस्था को वरिष्ठता मिले। प्रशंसा ऐसे ही प्रयत्नों की हो जिन्हें सर्वोपयोगी कहा जाय। व्यक्तिगत समृद्धि, प्रगति एवं विशिष्टता को श्रेय न मिले। उसे कौतूहल मात्र समझा जाय।
    
(५) अवांछनीय मूढ़ मान्यताओं और कुरीतियों को छूत की बीमारी समझा जाय। वे जिस पर सवार होती है उसे तो मारती ही हैं, अन्यान्य लोगों को भी चपेट में लेती और वातावरण बिगाड़ती हैं। इसलिए उनका असहयोग, विरोध करने की मुद्रा रखी जाय और जहाँ सम्भव हो उनके साथ समर्थ संघर्ष भी किया जाय। समाज के किसी अंग पर हुआ अनीति का हमला समूचे समाज के साथ बरती गई दुष्टता माना जाय और उसे निरस्त करने के लिए जो मीठे- कड़ुवे उपाय हो सकते हों, उन्हें अपनाया जाय। अपने ऊपर बीतेगी तब देखेंगे, इसकी प्रतीक्षा करने की अपेक्षा कहीं भी हुए अनीति के आक्रमण को अपने ऊपर हमला माना जाय और प्रतिकार के लिए दूरदर्शितापूर्ण रणनीति अपनायी जाय।
   
व्यक्तिगत परिवार और समाज क्षेत्र के उपरोक्त पाँच- पाँच सूत्रों को उन- उन क्षेत्रों के पंचशील माना जाय और उन्हें कार्यान्वित करने के लिए जो भी अवसर मिले उन्हें हाथ से जाने न दिया जाय।

आवश्यक नहीं कि इस सभी का तत्काल एक साथ उपयोग करना आरम्भ कर दिया जाय। उनमें से जितने जब जिस प्रकार कार्यान्वित किये जाने सम्भव हों, तब उन्हें काम में लाने का अवसर भी हाथ से न जाने दिया जाय। किन्तु इतना काम तो तत्काल आरम्भ कर दिया जाये कि उन्हें सिद्धान्त रूप से पूरी तरह स्वीकार कर लिया जाये। आदर्शवादी महानता से गौरवान्वित होने वाले जीवन इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर जिये जाते हैं। अनुकरणीय प्रयास करने के लिए जिन्होंने भी श्रेय पाया है, उनने त्रिविधि पंचशीलों में से किन्हीं सूत्रों को अपनाया और अन्यान्यों द्वारा अपनाये जाने का वातावरण बनाया है।

.....समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 भक्तिगाथा (भाग ८५)

दुर्लभ है महापुरुषों का संग

महर्षि अंगिरा की वाक्य वीथियों में गुजरते हुए सभी के अन्तर्मन भक्तिसुधा में निमज्जित होते रहे। उनके विचारों में यह सतत स्पन्दित होता रहा कि भक्ति से न केवल भावनाएँ परिशोधित होती हैं, बल्कि सम्पूर्ण जीवन रूपान्तरित होता है। दस्यु दुर्दम्य हो या फिर कोई और, जिसके भी हृदय में भक्ति का अंकुरण हुआ, वहाँ रूपान्तरण के पुष्प खिले बिना नहीं रहते। इन विचार स्पन्दनों ने पहले से ही सुरभित एवं सुवासित हिमवान के आंगन को और भी सुरभित एवं सुवासित कर दिया। वहाँ एक मीठी सी सुगन्ध बिखर गयी जिसे हिमालय के श्वेत शिखर अपने में समेट लेने के लिए प्रयत्नशील हो गए। हिमालय का यह दिव्य क्षेत्र परम पावन एवं अति अलौकिक था और आज भी है। यह वह अतिगुह्य क्षेत्र है, जो स्वः महः जनः तपः आदि ऊर्ध्व लोकों को धरती से जोड़ता है। इसकी विशेषताएँ अनूठी एवं अनोखी हैं। यह सम्पूर्ण क्षेत्र सदा ही एक शक्तिशाली आध्यात्मिक चुम्बकत्व से आच्छादित रहता है। यही वजह है कि सामान्य जन यहाँ पहुँचकर भी नहीं पहुँच पाते हैं। उनकी दृष्टि इसे देखने एवं पहचानने में सदा असमर्थ रहती है।

यहीं इसी दिव्य भूमि में ऋषियों एवं देवों का भक्तिसमागम पिछले काफी समय से चल रहा था। अब तो इसकी चर्चा सुदूर लोकों में भी होने लगी थी। देव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, जनः एवं तपः लोकों के महर्षि भी यहाँ आने के लिए हमेशा उत्सुक रहते थे क्योंकि उन्हें यह ज्ञात था कि केवल भक्ति से ही मनुष्य को सम्पूर्ण शान्ति एवं परमतृप्ति मिलती है। आज भी यहाँ पर एक परम दुर्लभ विभूति के आने के संकेत मिल रहे थे। प्रातः उदीयमान सूर्य की अरूण किरणें उनके स्वागत में सुवर्ण वर्षा करने लगी थीं। वह देवों के लिए भी पूज्य थे। भक्तजन तो उन्हें अपना आदर्श मानते ही थे। उनका कठोर तप त्रिलोकविख्यात था। उन्होंने विश्व का सर्वप्रथम काव्य ग्रन्थ लिखा था। आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने ऊर्ध्वलोकों से अपने आगमन के संकेत दिए थे। उनके आगमन के इन संकेतों ने सभी को एक अपूर्व प्रसन्नता एवं पुलकन दी थी। ब्रह्मर्षि वसिष्ठ एवं ब्रह्मर्षि विश्वामित्र तो विशेष आनन्दित थे, क्योंकि इनकी अनेकों यादें उन महान् विभूति से जुड़ी थीं।

इन यादों के सघन होते ही सभी ने एक स्वर्णिम प्रकाशपुञ्ज को गगन से धरा पर अवतीर्ण होते देखा। इसकी प्रभा एवं प्रकाश के सामने उदय हो रहे भगवान भुवनभास्कर का प्रकाश मद्धम पड़ गया था। इस अनोखे प्रकाशपुञ्ज से बिखर रही प्रकाश रश्मियों के साथ एक दिव्य सुगन्ध चहुं ओर बिखर रही थी जिससे सभी के तन, मन एवं आत्मा स्नात हो रहे थे। थोड़े ही पलों में यह प्रकाशपुञ्ज मानवाकृति में बदल गया। उन गौरवर्णीय दिव्य महापुरुष की छवि अवर्णनीय थी। माथे पर श्वेत केशराशि लहरा रही थी। मुख पर श्वेत दाढ़ी-मूंछें उनकी आभा को गौरवपूर्ण बना रहे थे। उनके नेत्र तो जैसे तरल प्रकाश का स्रोत थे। उनकी सम्पूर्ण देहयष्टि एक अनोखे प्रकाश वलय से घिरी थी।

उन्हें सबसे पहले ब्रह्मर्षि वशिष्ठ एवं ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने पहचाना। देवर्षि का उन्होंने स्वयं अभिवादन किया। प्रत्युत्तर में देवर्षि ने उन्हें हृदय से लगा लिया। महर्षियों में भी सर्वपूज्य वाल्मीकि को अपने बीच पाकर सभी आह्लादित थे। काफी समय तक सभी इस दैवी आनन्द में डूबे रहे। फिर परम तेजस्वी विश्वामित्र ने देवर्षि की ओर साभिप्राय देखा। उनकी दृष्टि के मर्म को  देवर्षि नारद ने तुरन्त पहचान लिया और मुस्कराते हुए उन्होंने सभी की ओर देखा। सभी की आँखों में नवीन भक्तिसूत्र के श्रवण की आतुर जिज्ञासा दिखी। देवर्षि ने भी बिना देर लगाए अपना नवीन भक्तिसूत्र उच्चारित किया-

‘महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च’॥३९॥
महापुरुषों का सङ्ग दुर्लभ, अगम्य और अमोघ है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १५७

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