शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

👉 समुद्र मंथन के तीन दिव्य रत्न

🔸 जीवन समुद्र का मंथन करने पर हमारे हाथ तीन रत्न ही लगते हैं (1) प्रेम की साध (2) ज्ञान की खोज और (3) पीड़ित मानवता के प्रति असह्य करुणा। इन तीनों के जितने अमृत कण हमारे हाथ लगते हैं हम उतने ही धन्य बनते हैं।

🔹 एकाकीपन की ऊब— कठोर परिश्रम की थकान और उतार−चढ़ावों के विक्षोभों से भरी इस जिन्दगी में सरसता केवल प्रेम में है। समस्त सुख सम्वेदनाओं की अनुभूति एकदम एक ही केंद्र पर एकत्रित है। प्रेम की पुलकन ही आनन्द भरे उल्लास में परिणत होती है। प्रेमी बनकर भले ही हमें कुछ खोना पड़े पर जो पाते हैं वह खोने से लाख करोड़ गुना अधिक होता है।

🔸 सत्य महान् है। मनुष्य क्रमशः उसके उच्च शिखर पर चढ़ता जाता है। जो अब तक जाना जा सका वह अद्भुत है, पर इससे क्या जो जानने को शेष पड़ा है वह अनन्त है। सत्य को जानने खोजने और पाने के प्रयासों में ही अब तक की विविध उपलब्धियां प्राप्त हुई हैं। आगे इसी प्रयास में खुले मस्तिष्क से लगे रहेंगे तो उसे भी प्राप्त कर सकेंगे जो अब तक प्राप्त नहीं किया जा सका।

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🔹 संसार में सुख न हो सो बात नहीं, पर पीड़ाएँ भी बहुत हैं। अज्ञान और पतन की भटकन कितनी कष्टकर है इस पर जो सहृदयतापूर्वक विचार करेगा उसकी करुणा उमड़े बिना न रहेगी। आत्मा स्वर्ग से उतर कर इस पृथ्वी पर रहने के लिए इसीलिए तो आया है कि वह करुणार्द्र होकर कष्ट पीड़ितों की सेवा करते हुए मानव जीवन का आनन्द ले सके।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति सितम्बर 1974 पृष्ठ 1

👉 बाहर नहीं, भीतर देखते हैं।

तारापीठ (बंगाल) में द्वारका नदी के सुरम्य तट पर भगवती तारादेवी का मन्दिर है। उस दिन उसका मेला या कोई विशेष पूजन-पर्व था। पास के ही गाँव का जमींदार भी तारादेवी के दर्शनों के लिये आया। दर्शन करने से पूर्व, उसने सोचा-स्नान करके यहीं पूजा-पाठ भी समाप्त कर लिया जाय, सो उसने द्वारका के तट पर ही अपना सामान रख दिया।

वस्त्र उतार कर जमींदार ने स्नान किया। अनन्तर आसन बिछाकर पूर्वाभिमुख पूजा-पाठ के लिये बैठकर ध्यान करने लगे। एक सन्त भी स्नान के लिये उसी समय वहाँ आये। उन्हें बड़ी प्रसन्नता थी कि भारतीय जीवन में अभी आस्तिकता का अभाव नहीं हैं। तभी तो लोग न जाने कहाँ-कहाँ से देव-दर्शन और तीर्थ-यात्राओं के लिये आते-जाते रहते हैं। इस आस्तिकता का ही असर है कि भारतीय जीवन में अभी भी शान्ति, सन्तोष और पवित्रता की पर्याप्त मात्रा बची हुई है, जबकि शेष विश्व इससे सर्वथा विपरीत है। भले ही वे कितने ही सुखी और समृद्ध क्यों न हों।

यह महात्मा बंगाल के असाधारण ताँत्रिक वामक्षेप थे। उधर वे स्नान कर रहे थे, इधर जमींदार भगवान् के ध्यान में निमग्न। जो सन्त अभी थोड़ी देर पहले इतनी प्रसन्नता अनुभव कर रहे थे, सुन्दर विचारों में डूबे हुए थे, न जाने क्या कौतुक सूझा कि एकाएक जमींदार पर पानी के छींटे मारने लगे। जमींदार ने आँखें खोलीं-आँखों में गुस्सा भरा स्पष्ट दिखाई दिया। सन्त वामक्षेप शरीर रगड़ने लगे, ठीक बालकों जैसी मुद्रा-मानों उन्होंने जल के छींटे मारे ही न हों और उन्हें पता तक न हो कि अभी कुछ हुआ भी है।

जमींदार ने दुबारा आँखें मूँद लीं और फिर ध्यान में मग्न दिखाई दिये। उधर उन्होंने आँख मींची, इधर वामक्षेप फिर जल उलीचने लगे और जमींदार के दुबारा आँख खोल देने के बाद भी जल उलीचते ही गये जैसे उनके मन में भय नाम की कोई वस्तु ही न हो।

जमींदार गरजे- ओरे! साधु, अन्धा हो गया है। दिखाई नहीं देता, मेरे ऊपर पानी उलीच रहा है? मेरा ध्यान टूट गया, साधु होकर भी उपासना में विघ्न डालते तुझे लाज नहीं आती?

वामक्षेप को हँसी आ गई। बोले- उपासना को कलंकित न करो महाराज। भगवान् का ध्यान कर रहे हो या ‘मूर एण्ड कम्पनी’ कलकत्ता की दुकान से चमड़े के जूते खरीद रहे हो?

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जमींदार का उबलता हुआ क्रोध जहाँ-का-तहाँ ऐसे बैठ गया जैसे उफनते दूध में जल के छींटे मारने से उफान रुक जाता है। उनके आश्चर्य का ठिकाना न था। यह उठे और साधु के चरण पकड़कर बोले- ‘महाराज! सचमुच मैं ध्यान में यही सोच रहा था। मूर एण्ड कम्पनी से जूते पहनने हैं, वही सोच रहा था, कौन-सा जूता ठीक रहेगा। मुझे आश्चर्य है आपने मेरे मन की बात कैसे जान ली?

स्वामी रामदास कथामृत से उद्भूत यह घटना बताती है कि योगाभ्यासी साधु हो या कोई और वह अपनी अन्तरंग को पहचानने वाली क्षमताओं को जागृत कर सकता है। चमत्कार भले ही न दिखा सके, पर उससे आत्मकल्याण का मार्ग तो प्रशस्त किया ही जा सकता है।

📖 अखण्ड ज्योति, अक्टूबर १९७० पृष्ठ १६

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1970/July/v1.16

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 14 Aug 2024

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