सभी में गुरु ही है समाया
इस सूत्र को वही समझ सकते हैं, जो अपने गुरुदेव के प्रेम में डूबे हैं। जो इस अनुभव के रस को चख रहे हैं, वे जानते हैं कि जब प्रेम गहरा होता है तो प्रेम करने वाले खो जाते हैं, बस प्रेम ही बचता है। जब भक्त अपनी पूरी लीनता में होता है, तो भगवान् और भक्त में कोई फासला नहीं होता। अगर फासला हो तो भक्ति अधूरी है, सच कहें तो भक्ति है ही नहीं। वहाँ भक्त और भगवान् परस्पर घुल- मिल जाते हैं। दोनों के बीच एक ही उपस्थिति रह जाती है। ये दोनों घोर लीन हो जाते हैं और एक ही अस्तित्व रह जाता है। प्रेम और भक्ति में अद्वैत ही छलकता एवं झलकता है।
सच यही है कि सारा अस्तित्व एक है और हममें से कोई उस अस्तित्व से अलग- थलग नहीं है। हम कोई द्वीप नहीं है, हमारी सीमाएँ काम चलाऊ हैं। हम किन्हीं भी सीमाओं पर समाप्त नहीं होते। सच कहें तो कोई दूसरा है ही नहीं तो फिर दूसरे के साथ जो घट रहा है, वह समझो अपने ही साथ घट रहा है। थोड़ी दूरी पर सही, लेकिन घट अपने ही साथ रहा है।
भगवान् महावीर, भगवान् बुद्ध अथवामहर्षी पतंजलि ने जो अहिंसा की महिमा गायी, उसके पीछे भी यही अद्वैत दर्शन है। इसका कुल मतलब इतना ही है कि शिष्य होते हुए भी यदि तुम किसी को चोट पहुँचा रहे हो, या दुःख पहुँचा रहे हो अथवा मार रहे हो तो दरअसल तुम गुरु घात या आत्म घात ही कर रहे हो, क्योंकि गुरुवर की चेतना में तुम्हारी अपनी चेतना के साथ समस्त प्राणियों की चेतना समाहित है।
क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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