रविवार, 21 मई 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 21 May 2023

बाढ़, भूकम्प, दुर्भिक्ष, महामारी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, युद्ध आदि दैवी प्रकोपों को मानव जाति के सामूहिक पापों का परिणाम माना गया है। निर्दोष व्यक्ति भी गेहूँ के साथ घुन की तरह पिसते हैं। वस्तुतः वे भी निर्दोष नहीं होते। सामूहिक दोषों को हटाने का प्रयत्न न करना, उनकी ओर उपेक्षा दृष्टि रखना भी एक पाप है। इस दृष्टि से निर्दोष दीखने वाले व्यक्ति भी दोषी सिद्ध होते हैं और उन्हें सामूहिक दण्ड का भागी बनना पड़ता है।

मनुष्य को चाहिए कि झूठ से कामना सिद्धन करे। निन्दा, स्तुति तथा भय से भी झूठ न बोले और न लोभवश। चाहे राज्य भी मिलता हो तो झूठ, अधर्म को न अपनावे। भोजन-जीविका बिना भी चाहे प्राण जाते हों, तो भी धर्म का त्याग न करे, क्योंकि जीव और धर्म नित्य है। वे मनुष्य धन्य हैं जो धर्म को किसी भी भाव नहीं बेचते।

समझदारी का तकाजा है कि संसार चक्र के बदलते क्रम के अनुरूप अपनी मनःस्थिति को तैयार रखें। लाभ, सुख, सफलता, प्रगति, वैभव, पद आदि मिलने पर अहंकार से ऐंठने की जरूरत नहीं है। कहा नहीं जा सकता वह स्थिति कब तक रहेगी। स्थिति कभी भी बदल और उलट सकती है, ऐसी दशा में रोने, झींकने, खीजने, निराश होने में शक्ति नष्ट करना व्यर्थ है। परिवर्तन के अनुरूप अपने को ढालने में, विपन्नता को सुधारने में, उपाय सोचने, हल निकालने और तालमेल बिठाने में यदि मस्तिष्क को लगाया जाय तो वह प्रयत्न रोने, सिर धुनने की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर होगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 समर्थ और प्रसन्न जीवन की कुँजी (भाग 2)

चूल्हा बिलकुल ठंडा हो, नाम मात्र की गर्मी हो तो रसोई पकने की प्रतीक्षा में ही बैठा रहना पड़ेगा। इसके विपरीत यदि ईंधन अन्धाधुन्ध जलने लगे तो जो पकाया जा रहा है, उबल कर नीचे गिरेगा अथवा जल भुन कर राख हो जाएगा। रसोई सही समय पर सही ढंग से पके इसके लिए आवश्यक है कि चूल् की आग समतुल्य बनी रहे। मस्तिष्क ऐसा ही चूल्हा है जिस पर उपयोगी सामान सही तरह से पकने के लिए तापमान संतुलित रहना चाहिए। सही तरह से सोचना और करना इससे कम में बन ही नहीं सकता।

 कठिनाई या असफलता के लक्षण देखने ही हड़बड़ा जाना बुरी बात है। सफलता की हल्की सी झलक झाँकी देखने ही फूले न समाने जैसी अहंकारी स्थिति बना लेना ओछेपन का लक्षण है। ऐसे आदमी बड़े काम कभी पूरा नहीं कर पतों। उन्हें आधी अधूरी स्थिति में ही काम की इति श्री समझनी पड़ती है। शेष मंजिल को छोड़कर बीच में ही बैठे रहते है। बिगड़ा हुआ संतुलन पूरी बात सोचने और मंजिल के अन्तिम चरण तक पहुँचने की स्थिति ही नहीं बनने देता।

कछुए और खरगोश की दौड़ में खरगोश इसलिए बाजी हरा कि ओछेपन ने उसे लगातार श्रम नहीं करने दिया और थोड़ी सी सफलता को ही काम बन जाना मान बैठा कछुआ इसलिए जाता कि अपनी धीमी चाल और लम्बी मंजिल की बात को भली प्रकार समझते हुए भी निराश नहीं हुआ और लगातार हिम्मत के साथ चलते रहने में ढीला नहीं पड़ा। धीरज और हिम्मत बनाए रहने वाला हर कछुआ बाजी जीतता है तब कि उतावले खरगोश सक्षम होते हुए भी मात खाते है।

जीवन कर्मभूमि है। इसमें खिलाड़ी का मन लेकर ही उतरा जाता है। खिलाड़ियों के सामने पग पग पर हार जीत भी उछलती कूदती रहती है। अभी लगता है कि हार अभी दीखता है कि जीते। दोनोँ ही परिस्थितियों में वे समान मन से जुटे रहते है। हार जाने पर जीतने वाले से लड़ने मरने पर उतारू नहीं होते वरन् हाथ मिलाते और बधाई देते है। जीत जाने पर इस तरह इठला कर नहीं चलते मानों कोई किला जीत कर आये हो। हारने वालों का तिरस्कार करना बेहूदों का काम है। वे कुशल खिलाड़ी नहीं माने जाते।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1988 पृष्ठ 56


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