तीव्र प्रयासों से मिलेगी, समाधि में सफलता
परम पूज्य गुरुदेव इस बारे में एक कहानी सुनाते थे। एक साधु थे बनारस में, नाम था हरिबाबा। उनके एक शिष्य ने उनसे पूछा कि मैं बहुत जप-तप करता हूँ, पर सब अकारण जाते हैं। भगवान् है भी या नहीं मुझे संदेह होने लगा है। हरिबाबा ने इस बात पर जोर का ठहाका लगाया और बोले- चल मेरे साथ आ, थोड़ी देर गंगा में नाव चलायेंगे और तेरे सवाल का जवाब भी मिल जायेगा।
बाढ़ से उफनती गंगा में हरिबाबा ने नाव डाल दी। उन्होंने पतवार उठाई, पर केवल एक। नाव चलानी हो तो दोनों पतवारें चलानी होती हैं, पर वह एक ही पतवार से नाव चलाने लगे। नाव गोल-गोल चक्कर काटने लगी। शिष्य तो डरा-पहले तो बाढ़ से उफनती गंगा उस पर से गोल-गोल चक्कर। वह बोला-अरे आप यह क्या कर रहे हैं, ऐसे तो हम उस किनारे कभी भी न पहुँचेंगे। हरिबाबा बोले- तुझे उस किनारे पर शक आता है या नहीं? शिष्य बोला-यह भी कोई बात हुई, जब यह किनारा है तो दूसरी भी होगा। आप एक पतवार से नाव चलायेंगे, तो नाव यूँ ही गोल चक्कर काटती रहेगी। यह एक दुष्चक्र बनकर रह जायेगी।
हरिबाबा ने दूसरी पतवार उठा ली। अब तो नाव तीर की तरह बढ़ चली। वह बोले-मैं तुझसे भी यही कह रहा हूँ कि तू जो परमात्मा की तरफ जाने की चेष्टा कर रहा है-वह बड़ी आधी-अधूरी है। एक ही पतवार से नाव चलाने की कोशिश हो रही है। आधा मन तेरा इस किनारे पर उलझा है, आधा मन उस किनारे पर जाना चाहता है। तू आधा-आधा है। तू बस यूँ ही कुनकुना सा है। जबकि साधना में साधक की जिन्दगी खौलती हुई होनी चाहिए।
गुरुदेव कहते थे- साधना भी और वासना भी, बस आधा-आधा हो गया। यह आधापन छोड़ना ही पड़ेगा। साधना करनी है, तो पूरी साधना करो। तीव्र, प्रगाढ़ और सच्ची। साधक की साधना धुएँ से घुधुँआती आग नहीं, धधकती हुई ज्वालाएँ होनी चाहिए। साधना जिस किसी तरह न करके उसे तीव्रतम और प्रचण्डतम होना चाहिए। कुछ इस तरह जैसा कि शायर ने कहा है-
लज्जते-काम और तेज करो
तल्खि-ए जाम और तेज करो
जेरे दीवार आँच कम-कम है
शोला-ए बाम और तेज करो
उस तपिश को जो खूँ रुलाती है
सहर-ओ-शाम और तेज करो
परा-तक्पीले-पुख्ताकशी-ए शौक
हवसे-खाम और तेज करो
हम पे हो जाये खत्म नाकामी
सई-ए नाकाम और तेज करो
ज्वदा खुद ही है साजिशे खमो पेच
साजिशे गाम और तेज करो
सुस्त-गामी हमें पसन्द नहीं
रक्से अय्याम और तेज करो
गर्दिशे वक्त ले न डूबे कहीं
गर्दिशे-जाम और तेज करो॥
बड़ी ही प्रेरणाप्रद हैं ये पंक्तियाँ। जो इसके मूल को नहीं समझ पा रहे हैं, उनके लिए इसका संक्षिप्त भाव है कि अपने प्रयासों में तेजी लाओ, समग्रता लाओ। अगर इच्छा की है, तो इच्छा के स्वाद को और तीव्र करो। अगर उस तरफ बढ़े ही हो, तो फिर डरो मत तिक्त स्वाद से। उन्माद की परिपक्वता के लिए-पागलपन पूरा होना चाहिए। कच्ची चाहत से काम चलने वाला नहीं है; चाहत पक्की होनी चाहिए। भला ऐसे धीरे-धीरे क्या चलना? एक पाँव इधर, तो एक पाँव उधर। समय के नृत्य को और तेज करो। अब समय ज्यादा नहीं है, चूको मत- जल्दी करो तेजी लाओ। साधना अपनी पूरा त्वरा पर ही होनी चाहिए। सौ डिग्री पर पानी उबलता है, तो भाप बन पाता है। साधना भी जब सौ प्रतिशत होती है, तो अहंकार विलीन हो जाता है। सम्पूर्णता में पहुँचना ही होगा। इसके सिवा कोई अन्य मार्ग नहीं है।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ९१
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या