सोमवार, 30 अक्तूबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 28 Oct 2023

🔶 उत्तरदायित्वों की जो बोझ मानकर उपेक्षा करता है। उस अच्छे परिणामों से वंचित रह जाना पड़ता है। प्रत्येक मानव की आजीविका कमाने में शर्म, संकोच का भाव नहीं रखना चाहिये। आत्म-निर्भरता तो जीवनोत्कर्ष के पथ पर अग्रसर करती है। परिस्थितियों से सामंजस्य बिठाने का अद्भुत गुण मनुष्य में है। इसलिये अपने प्रत्येक कार्य की पूरी शक्ति से करना चाहिये। प्रत्येक कार्य ईश्वर का है, अतः उसे आत्म समर्पित भाव से करना चाहिये। कार्य में सद्भावना का प्रभाव उज्ज्वल चरित्र निर्माण के विकास के लिये होता है। कार्य करने का सौंदर्य, रुचिकर ढंग सफलता की निशानी है। कार्य की श्रेष्ठता में जीवन की श्रेष्ठता निहित है।

🔷 आत्म-विश्वास और परिश्रम के बल पर जीवन को सार्थकता प्रदान की जा सकती है। भाग्य का निर्माणकर्ता मनुष्य स्वयं है। ईश्वर निर्णयकर्ता और नियामक है। मनुष्य परिश्रम से चाहे तो अपने भाग्य की रेखाओं को बना सकता है-परिवर्तित कर सकता है। हैनरी स्ल्यूस्टर कहता है कि-“जिसे हम भाग्य की कृपा समझते हैं, वह और कुछ नहीं। वास्तव में हमारी सूझ-बूझ और कठिन परिश्रम का फल है।” विश्वास रखें परिश्रम और आत्मविश्वास एक दूसरे के बिना अधूरे है। दोनों मिलकर के ही लक्ष्य तक पहुँचने में समर्थ हो पाते हैं। संकल्प करें-बाधाओं को हमेशा हँस-हँस स्वीकार करना है। डर कर मार्ग से हटाना नहीं है। लक्ष्य विहीन नहीं होना है। हमेशा गतिमान रहना हैं-गतिहीन नहीं होना है।       
                                                
🔶 परिश्रम और सफलता की आशा करते हुए हमें लक्ष्य प्राप्ति के बीच आने वाले दुष्परिणामों को भी सामान्य करने का साहस करना चाहिये। “सर्वश्रेष्ठ के लिये प्रयत्न कीजिये मगर निकृष्टतम के लिये तैयार रहिये।” अँग्रेजी की यह कहावत बड़ी सार्थक है। हैनरी फोर्ड से एक व्यक्ति ने उनकी सफलता का रहस्य पूछा, तो उन्होंने कहा, “सफलता का सबसे पहला रहस्य है, हर परिस्थिति के लिए तैयार रहना।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

 

👉 मन को सुधारा जाय

मनुष्य के अस्तित्व पर गंभीरता पूर्वक विचार किया जाय, तो उसकी एक मात्र विशेषता उसका मनोबल ही दृष्टिगोचर होता है। शरीर की दृष्टि से वह अन्य प्राणियों की तुलना बहुत गया-गुजरा है। मनोबल की विशेषता के कारण ही मनुष्य सृष्टि का मुकुटमणि है। मन वस्तुत: एक बड़ी शक्ति है। अनन्त चेतना के केन्द्र परमात्मा का प्रकाश इस जड़ प्रकृति में जो पड़ता, तो उसका प्रतिबिम्ब मन के रूप में ही सामने आता है। जड़ पदार्थ कितने ही उत्कृष्ट क्यों न हो, चेतना के बिना वे निरर्थक है।

इस पृथ्वी के गर्भ में रत्नों की खान, स्वर्ण-भण्डार और न जाने क्या-क्या बहुमूल्य सम्पदाएँ भरी पड़ी हैं। पर वे तब तक प्रकाश में नहीं आतीं, जब तक कोई चेतना सम्पन्न मनुष्य उनसे सम्पर्क स्थापित नहीं करता है। स्वर्ण और रत्न का मूल्य चेतन प्राणी की चेतना के कारण ही है अन्यथा वे मिट्टी कंकड़ के समान ही पड़े रहते हैं। इस देह को ही लीजिए। कितनी बहुमूल्य, प्रिय एवं उपयोगी लगती है पर यदि चेतना नष्ट हो जाय-मूर्छा उन्माद या मृत्यु की स्थिति आ जाय, तो यह देह किसी काम का नहीं रह जाती। मानव-जीवन में जो कुछ श्रेष्ठता एवं महत्ता है, वह केवल उसकी मानसिक स्थिति-मनोभूमि के कारण ही है।
  
आलसी और उत्साही, कायर और वीर, दीन और समृद्ध, पापी और पुण्यात्मा, अशिक्षित और विद्वान्ï, तुच्छ और महान, तिरस्कृत और प्रतिष्ठित का जो आकाश पाताल जैसा अन्तर मनुष्यों के बीच में दीख पड़ता है, उसका प्रधान कारण उस व्यक्ति की मानसिक स्थिति ही है। परिस्थितियाँ भी एक सीमा तक इन भिन्नताओं में सहायक होती है। पर उनका प्रभाव पाँच प्रतिशत ही होता है, पचानवे प्रतिशत कारण मानसिक। बुरी से बुरी परिस्थितियों पड़ा हुआ मनुष्य भी अपनी कुशलता और मानसिक विशेषताओं के द्वारा उन पर बाधाओं को पार करता हुआ, देर-सबेर में अच्छी स्थिति प्राप्त कर लेगा। अपने सद्गुणों, सद्विचारों एवं सत्प्रयत्नों द्वारा कोई भी मनुष्य बुरी से बुरी परिस्थिति को पार करके ऊँचा उठ सकता है। पर जिसकी मनोभूमि निम्न श्रेणी की है, जो दुर्बुद्धि से, दुर्गुणों से, दुष्प्रवृत्तियों से ग्रसित है, उसके पास यदि कुबेर जैसी सम्पदा और इन्द्र जैसी सुविधा हो, तो भी वह अधिक दिन ठहर न सकेगी, कुछ ही दिन में नष्ट हो जायगी।
  
कर्म जो आँखों से दिखाई देता है, वह अदृश्य विचारों का ही दृश्य रूप है। मनुष्य जैसा सोचता है वैसा करता है। चोरी, बेईमानी, दगाबाजी, शैतानी, बदमाशी कोई आदमी यकायक कभी नहीं कर सकता। उसके मन में उस प्रकार के विचार बहुत दिनों से झूमते रहते हैं। अवसर न मिलने से वे दबे हुए थे, समय पाते ही वे कार्यरूप में परिणित हो जाते हैं। बाहर के लोगों को किसी दुष्कर्म होने की बात सुनकर इसलिए आश्चर्य होता है कि वे उसकी भीतरी स्थिति को नहीं जानते थे। इसी प्रकार कोई अधिक उच्चकोटि का सत्कर्म करने का भी आकस्मिक समाचार भले ही सुनने को मिले पर वस्तुुत: उसकी तैयारी वह मनुष्य भीतर ही भीतर बहुत दिनों से कर रहा होता है। इसी तरह जो व्यक्ति आज उन्नतिशील एवं सफलता सम्पन्न दिखाई पड़ते हैं, वे अचानक ही वैसे नहीं बन गये, वरन् चिरकाल से उनका प्रयत्न उसके लिए चल रहा होता है। भीतरी पुरुषार्थ को उन्होंने बहुत पहले जगा लिया होता है। उन्होंने अपने मन:क्षेत्र में भीतर ही भीतर वह अच्छाइयाँ जमा कर ली होती हैं, जिनके द्वारा बाह्य जगत में दूसरों का सहयोग एवं उन्नति का आधार निर्भर रहता है। बाह्य जीवन हमारे भीतरी जीवन का प्रतिबिम्ब मात्र है। पर्दे के पीछे दीपक जल रहा है, तो कुछ प्रकाश बाहर भी परिलक्षित होता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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