जीवन के उद्देश्यों को समझने का प्रयत्न कीजिए और किसी भी भांति उस लक्ष्य, इष्ट से इसकी उपासना कीजिए। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जब हम कोई बुरा काम करते हैं जिससे किसी को दुख होता है, हम अशांत हो उठते हैं क्योंकि हमारी आत्मा हमें कोसती है। इसी प्रकार जब हम सच्चाई के मार्ग पर चलते हैं, किसी की भलाई करते हैं तो मन प्रसन्न शांत रहता है, उसी समय हम देवत्व का अनुभव करते हैं क्योंकि अशांत मन में शैतान रहा करता है। वेदांत के अनुसार इसी धरती पर स्वर्ग नर्क दोनों हैं। वेदांत की आधारशिला कर्म सिद्धांत है। कर्मयोग का जितना सुंदर विवेचन वेदांत में है, वह कहीं और देखने को नहीं मिलता।
ईसा, मंसूर, शंकराचार्य, रामकृष्ण, दयानन्द तथा अरविन्द आदि अनेकों ईश्वर परायण देवदूत हैं। ईश्वर की कृपा के फलस्वरूप उन्होंने सामान्य व्यक्तियों से उच्चतर सिद्धियाँ प्राप्त कीं। यह ईश्वर उपासना का अर्थ एकाँगी लाभ उठाना रहा होता तो इन महापुरुषों ने भी या तो किसी एक स्थान में बैठकर समाधि से ली होती या भौतिक सुखों के लिये बड़े से बड़े साधन एकत्र कर शेष जीवन सुखोपभोग में बिताते। पर उनमें से किसी ने भी ऐसा नहीं किया। उन्होंने अन्त में मानव मात्र की ही उपासना की। सिद्धि से उन्हें सन्तोष नहीं हुआ तो लौटकर वे फिर समाज में आये और प्राणियों की सेवा को अपनी उपासना का आधार बनाया।
अध्यात्म का मूल मन्त्र प्रेम ही बताया गया है। भक्ति साधना से मुक्ति का मिलना निश्चित है। जिस भक्त को परमात्मा से सच्चा प्यार होता है, वह भक्त भी परमात्मा को प्यारा होता है। उपनिषद् का यह वाक्य ‘रसो वै सः’ इसी एक बात की पुष्टि करता है− परमात्मा प्रेम रूप है, इसका स्पष्ट तात्पर्य यही है कि जिसने प्रेम की सिद्धि कर ली है, उसने मानो परमात्मा की प्राप्ति कर ली है अथवा जहाँ प्रेमपूर्ण परिस्थितियाँ होंगी वहाँ परमात्मा का बास माना जायेगा। परमात्मा की प्राप्ति ही आनन्द का हेतु होता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
All World Gayatri Pariwar Official Social Media Platform
Shantikunj WhatsApp
8439014110
Official Facebook Page
Official Twitter
Official Instagram
Youtube Channel Rishi Chintan
Youtube Channel Shantikunjvideo
Official Telegram