बुधवार, 24 अगस्त 2022

👉 झूठी भावुकता एक अभिशाप है:-

दूसरों से व्यवहार करने में ठंडा दिमाग चाहिए। अनेक अवसर ऐसे आयेंगे, जब दूसरे तैश में, क्रोध के उफान में, या ईर्ष्या की अग्नि में आप उत्तेजित हो उठेंगे। उत्तेजना और क्रोध का आवेश तीव्रता से आग की ज्वाला की भाँति बढ़ता है। यदि उसे दूसरी ओर से अर्थात् आपकी तरफ से भी वैसा ही वातावरण प्राप्त हो जाय, तो तमाम लौकिक व्यवहार टूट-फूट जायेंगे, आप अनाप शनाप कह बैठेंगे। गुस्से में ऐसी-2 गुप्त बातें आपके मुख से प्रगट हो जायेंगी, जो कदाचित आप कभी उच्चारण करना पसन्द न करते।

उद्वेग एक तेजी से आने वाले तूफान की तरह है, जिसमें मनुष्य अन्धा हो जाता है। उसे नीर क्षीर का विवेक नहीं रहता। दूसरे को जोश में आया देखकर आप शान्त रहिए। उसकी उत्तेजना को ठंडा होने का अवसर दीजिए। ठंडे दिमाग का महत्व आप स्वयं देखेंगे जब दूसरा अपनी जल्दबाजी, आवेश की उत्तेजना, क्रोध, के आवेश पर क्षमा चाहेगा। आवेश में बुद्धि पंगु हो जाती है। हमें अपनी शक्ति का ज्ञान नहीं रहता।

इसी प्रकार झूठी भावुकता के पंजे में फँसकर दयार्द्र, या सहानुभूति में इतने द्रवित न हो जाइये कि दूसरे की आफत आपके गले आ पड़े। भावुकता में बह कर लोग बड़े-2 दान देने का वचन दे बैठते हैं; छात्र वृति के वायदे करते है; संस्थाओं की सहायता का वचन पक्का कर लेते हैं। दीन दुखियों, घर परिवार वालों की सहायता करना ठीक है किन्तु झूठी भावुकता के कारण अपनी मर्यादा या आर्थिक स्थिति से बाहर न निकल जाइये।

यदि क्रोध, प्रतिहिंसा, तैश बुरे हैं, तो अधिक भावुकता, नर्मी, सहानुभूति, दया आदि भी अधिक अच्छे नहीं हैं। ये दो सीमाएँ हैं। चतुर व्यक्ति को इन दोनों के मध्य में शान्त चित्त होकर अपना दृष्टिकोण स्वभाव तथा आदतें निर्माण करनी चाहिए। न इतने कठोर ही बनिये कि दूसरे आपसे मिलना, बातें करना सलाह लेना पसन्द न करें, न इतने सरल दयावान, भावुक ही बन जाइये कि आपका कोई अस्तित्व ही न रह जाय और उपेक्षा की जाय।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड  ज्योति जनवरी 1952

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👉 क्षुद्र हम, क्षुद्रतम हमारी इच्छाएँ (भाग 4)

🔴  समुद्र में पहुँचे भगवान्

इस बार भगवान् वहाँ से भागकर समुद्र में जा पहुँचे। और कहा कि देखें अब यहाँ मनुष्य कहाँ से आ जायेंगे? द्वारिका के पास बेट द्वारिका नाम की एक जगह है, बस भगवान् वहाँ जा पहुँचे। वह चारों ओर से समुद्र से घिरा हुआ पड़ा था। चारों ओर समुद्र था और बीच में एक टापू था। बस, भगवान् जी वहाँ बैठ गये और वहीं रहने लगे। उन्होंने कहा कि देखें अब हमारे पास मनुष्य कहाँ से आ जायेगा? अब वह हमको खामख्वाह तंग नहीं करेगा। एक बार उनका मन आया कि अपने घर चलना चाहिए लक्ष्मी जी के पास, पर यह अपना वीक प्वाइंट था, क्योंकि लक्ष्मी जी से यह कह करके आये थे कि हम मनुष्यों के पास रहेंगे। और लक्ष्मी जी ने कह दिया था कि आपको वहाँ नहीं जाना चाहिए। मनुष्य बड़े निकम्मे हो गये हैं और अपने ही धंधे में फँस गये हैं। वे अपने जीवन के लक्ष्य को भूल गये हैं। वे आपकी बात सुनेंगे नहीं। एक बार उन्होंने फिर सोचा कि चलो लक्ष्मी जी के पास चलें, मनुष्यों को छोड़ दें। फिर उन्होंने कहा कि भाई! यह तो बड़े शर्म की बात है और उनके सामने नाक नीची करने से क्या फायदा? यहीं रहना चाहिए। भगवान् जी बेट द्वारिका में रहने लगे।

🔵 पशोपेश में भगवान्

मित्रो! लोगों को जब यह पता चला कि भगवान् जी द्वारिका में निवास करते हैं, तो उन्होंने नावें बना लीं, बोट बना लिए और भाग- भागकर वहीं जा पहुँचे। भगवान् ने कहा- ‘‘अब क्या करना चाहिए? पहाड़ पर वे छोड़ने वाले नहीं, जमीन पर वे छोड़ने वाले नहीं। समुद्र में भागकर आये तो भी इनसे पिण्ड नहीं छूटा। अब क्या करना चाहिए।’’ भगवान् जी बहुत दुःखी हो रहे थे, परेशान हो रहे थे और उनकी आँखों से बहुत आँसू आ रहे थे। उन्होंने कहा- ‘‘भाइयो! घर जाते हैं तो ठिकाना नहीं और इनके पास रहते हैं, तो ठिकाना नहीं। अब क्या करना चाहिए? अपनी कोई जगह बनानी चाहिए, जहाँ हम पृथ्वी पर भी बने रहें और लक्ष्मी जी के सामने बेइज्जती भी न हो। हम जमीन पर भी बने रहें और जो अच्छे मनुष्य हमको पाना चाहें, तो आसानी से पा भी सकें। ऐसी जगह भी न चुनी जाय कि कोई अच्छा मनुष्य चाहता हो कि हमको भगवान् मिल जायँ और हम उसे मिल न सकें। ऐसी जगह कहाँ तलाश करें।’’

🔴 विवेक का हो जागरण, तो हो कल्याण

इससे पूर्व के अंक में आप पढ़ चुके हैं कि साहस और विवेक, पात्रता संवर्धन तथा आत्म चिन्तन, जिसने इन चार पर गंभीरता पूर्वक ध्यान दिया, उसका जीवन बदलता चला गया। जिसने इनकी उपेक्षा की, वह पिछड़ता चला गया। हम गहराई तक प्रवेश करें और ढूँढ़ें अनन्त शक्ति एवं शान्ति के स्रोत को। इस सम्बन्ध में परम पूज्य गुरुदेव ने एक रोचक कथानक सुनाया है जिसका आधा हिस्सा आप पढ़ चुके हैं। भगवान् ज्ञान बाँटने धरती पर आए पर मनोकामनाओं की लिस्ट लिए आदमी उनसे आशीर्वाद माँगने लगा। घबराए वे पहाड़ पर पहुँचे, मनुष्य वहाँ भी चला गया। क्षुद्र मनुष्य समुद्र में भी पहुँच गया, जब उसे पता चला कि अब भगवान् का डेरा वहाँ है। असमंजस में पड़े भगवान् को अब एक ही सहारा था। इस कथानक का व इस व्याख्यान का भी, अब उत्तरार्द्ध आगे पढ़ें।

🔵 देवर्षि से भेंट

मित्रो! भगवान् जी ऐसी एकांत जगह तलाश करने के लिए सिर खुजला रहे थे, जहाँ कोई पहुँच न सके। इतनी देर में वीणा बजाते हुए कहीं से नारद जी आ गये। उन्होंने कहा कि महाराज जी! आज आपको क्या हुआ? कोई जुकाम, बुखार हो गया है क्या? भगवान् जी ने कहा- ‘‘नहीं नारद जी! जुकाम- बुखार तो कुछ नहीं हुआ।’’ फिर क्या हुआ? कोई लड़ाई- झगड़ा हुआ? नहीं, कोई लड़ाई- झगड़ा नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि लड़ाई- झगड़ा भी नहीं हुआ, तो फिर किस्सा क्या है? आप दुःखी क्यों बैठे हुए हैं? भगवान् ने कहा कि हम लोगों के पास आये थे और उन्हें कल्याण का रास्ता बताना चाहते थे। उन्हें सुख और शान्ति का मार्ग बताना चाहते थे। उनको स्वर्ग और मुक्ति का आनन्द देना चाहते थे और उनको महामानव बनाना चाहते थे। हम उनको यह बताना चाहते थे कि इन्सान भगवान् का बेटा है और भगवान् के तरीके से उसको दुनिया में शान से रहना चाहिए। भगवान् के पास जो आनन्द है, उसका पूरा- पूरा लाभ उठाना चाहिए।

🔴 सही स्थान की तलाश

भगवान् ने कहा ‘‘नारद जी! हम इनको यही सिखाने के लिए आये थे, लेकिन ये मनुष्य बड़े निकम्मे हैं और बड़े स्वार्थी हैं। ये केवल छोटी- छोटी चीजों के लिए ख्वाहिश करते हैं और बड़ी- बड़ी चीजों के लिए इनका मन नहीं है। मैं इनके पास नहीं रहूँगा। भाग जाऊँगा और इनसे दूर रहूँगा; लेकिन मैं अपने घर नहीं जाना चाहता। नारद जी! मैं ऐसी जगह तलाश करना चाहता हूँ, जहाँ मैं बना भी रहूँ, पृथ्वी पर भी रहूँ और मेरा मनुष्यों से सम्बन्ध भी बना रहे। लेकिन मैं दिखाई भी न पड़ूँ। ऐसी जगह मुझे चाहिए, जो दिखाई न पड़े, समुद्र में गया, तो वहाँ भी लोगों ने पकड़ लिया, यहाँ भी लोगों ने पकड़ लिया। पहाड़ पर गया, तो वहाँ भी लोगों ने पकड़ लिया और जमीन पर था, तो वहाँ भी मुझे पकड़ लिया। अब अगर तुम्हारे दिमाग में हो, तो ऐसी जगह बताओ- जहाँ मैं आराम से छिपा बैठा रहूँ और कोई आदमी चाहे, तो आसानी से वह मुझ तक पहुँच सके। ऐसा भी न हो जाये कि चाहने वाला कोई आदमी पहुँच भी न सके और ऐसा भी न हो कि लोग मुझे आसानी से पकड़ लें और तंग करने लगें। ऐसा स्थान बता दीजिए।’’

🔵 आज तक वहीं पर हैं भगवान्

नारद जी ने कहा- ‘‘वाह! भगवन्! आपको इतना भी नहीं मालूम? इतनी बढ़िया जगह है, मैं अभी आपको बताता हूँ। भगवान् जी को नारद जी ने जगह बता दी और भगवान् जी उस दिन के बाद से आज तक उसी जगह पर विराजमान हैं। न वहाँ से हटे, न वहाँ से चले, बिलकुल वहीं बैठे रहते हैं। जमीन पर रहते हैं और वहाँ आसानी से आदमी पहुँच सकता है और जो भी चाहे प्राप्त कर सकता है। भगवान् से वार्तालाप कर सकता है और भगवान् के पास रहने का बहुत फायदा उठा सकता है। तब से लेकर अब तक भगवान् वहीं बैठे हुए हैं। आप पूछना चाहेंगे गुरु जी! हमें भी बता दीजिये। बता दूँ आपको? नहीं, आप किसी से कहना मत। कहेंगे तो नहीं किसी से? कह देंगे, तो नहीं बताऊँगा। कहना मत। नहीं तो सबको मालूम पड़ जायेगा। वे सब वहीं पहुँच जायेंगे और भगवान् जी बहुत नाराज होंगे। वे कहेंगे कि हमने तो अपने को छिपाकर ऐसी जगह रखा था, जहाँ नारद जी ने हमसे कहा था, उन्होंने कहा था कि कोई आदमी आप तक नहीं आएगा। लोग दुनिया में चक्कर काटते रहेंगे और कोई आप तक पहुँच ही नहीं सकेगा।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 आत्मचिंतन के क्षण 24 Aug 2022

🔸 बातें बनाना बड़ा सरल है, दूसरों को उपदेश देने में बहुतेरे कुशल होते हैं, किन्तु वास्तविक तथ्य तो यह है कि जो बात अंतरात्मा को लगे उसे कार्य रूप में परिणत कर प्रत्यक्ष किया जाय। कर्म ही संसार में मुख्य तत्त्व है। सफलता के लिए यदि कोई आवश्यक चीज है तो वह कठोर कर्म ही है। बातें बनाना तो शेखचिल्लियों-ढपोरशंखों का काम है। असली मनुष्य वही है जो बात कम करता है, किन्तु काम बहुत अधिक करता है।

◼️ हमारा जीवन भी हर घड़ी थोड़ा-थोड़ा करके मर रहा है। इस दीपक का तेल शनैः-शनैः चूकता चला जा रहा है। भविष्य की ओर हम चल रहे हैं और वर्तमान को भूत की गोदी में पटकते जाते हैं। यह सब देखते हुए भी हम नहीं सोचते कि क्या वर्तमान का कोई सदुपयोग हो सकता है? जो बीत गया सो गया, जो आने वाला है वह भविष्य के गर्भ में है। वर्तमान हमारे हाथ में है। हम चाहें तो उसका सदुपयोग करके इस नश्वर जीवन में से कुछ अनश्वर लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

🔹 सच्ची कमाई है उत्तम से उत्तम सद्गुणों का संग्रह। संसार का प्रत्येक प्राणी किसी न किसी सद्गुण से संपन्न है, परन्तु आत्म गौरव का गुण मनुष्यों के लिए प्रभु की सबसे बड़ी देन है। इस गुण से विभूषित प्रत्येक प्राणी को संसार के समस्त जीवों को अपनी आत्मा की भाँति ही देखना चाहिए। सदैव उसकी ऐसी धारणा रहे कि उसके मन, वचन एवं कर्म किसी से भी जगत् के किसी जीव को क्लेश न हो। ऐसी प्रकृति वाला अंत में परब्रह्म को पाता है।

🔸 चाहे किसी भी धर्म को न मानना, परन्तु मनुष्य बनकर रहना बहुत अच्छा है। मूढ़ धर्म को मानना अच्छा नहीं है। मूढ़ धर्म का अर्थ है-धर्म का सत्य, सुंदर और शिव रूप नष्ट करके अथवा धर्म में से मनुष्यता निकालकर उसे मिथ्याचार, पशुता और क्रूरता से जोड़ देना। आजकल वास्तविक धर्म का स्थान इसी मूढ़ धर्म ने ले लिया है और निस्संदेह यह घृणा करने के योग्य है।

🔹 जब कभी आपको क्रोध आवे तो मन ही मन कहिए-दूसरों से गलती हो ही जाती है, मुझे दूसरों की गलतियों पर कु्रद्ध नहीं होना चाहिए। यदि दूसरे गलती करते हैं तो उसका यह मतलब नहीं कि मैं और भी बड़ी गलती कर उसका प्रतिशोध लूँ। मैं शुभ संकल्प वाला साधक हूँ। शुभ संकल्प के फलित होने के लिए उद्विग्न मन होना उचित नहीं। हम सहिष्णु बनेंगे। दूसरे स्वयं अपनी गलती का अनुभव करेंगे।

◼️ जब भाइयों-भाइयों, मित्रों-मित्रों में भी सभी बातें समान नहीं होती तो साधारण मनुष्यों में तो सदा विचारों का मेल खाते जाना असंभव ही है। यदि विवाद में सफल होना चाहते हो तो विवाद निष्कर्ष के लिए करो, केवल बकवास के लिए नहीं। यदि अपनी बात की सच्चाई में तुम्हें विश्वास हो तो उस पर अड़े मत रहो। दूसरों को उसे समझाने का प्रयत्न करो। अपने पक्ष को स्थापित करना चाहते हो तो युक्तियों से काम लो, अपने अभिमान  के कारण उसे थोपने का प्रयत्न न करो।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...