सोमवार, 8 जनवरी 2018

👉 शासक और फल

🔶 वाराणसी के राजा ब्रह्मदत को अपने अवगुणों और दोषों के बारे में जानने की बहुत इच्छा थी। उसने राजभवन के अंदर रहने वाले लोगो से लेकर प्रजा के आम लोगो तक हर किसी से प्रश्न किये। किन्तु किसी को भी उस राजा में कोई त्रुटी नहीं दिखी।

🔷 राजा निराश हो गया। वो हिमालय की छोटी में पहुंचा। किसी घने जंगल के शांत और रमणीय इलाके में एक साधू का आश्रम था। राजा जब वंहा गया तो साधू ने उसका स्वागत किया और भोजन में उसे कंदमूल और फल भेंट किये। राजा मुग्ध होकर बोला महाराज इन फलों का स्वाद तो दिव्य है। ये फल इतने मीठे किस वजह से है। साधू ने सहज स्वर में जवाब दिए ये फल इसलिए इतने मीठे है क्योंकि शासक धर्मिनिष्ठ है इस पर राजा को भरोसा नहीं हुआ। राजा ने पूछा शासक अधर्मी हो तो क्या फल मीठे नहीं होते।

🔶 साधू ने कहा ‘नहीं वत्स फल ही क्या शर्करा घी तेल सब अपना स्वाद खो देते है अगर शासक अधर्मी हो जाये तो उनका रस सूख जाता है। इस पर राजा संतुष्ट तो नहीं हुआ लेकिन फिर भी साधू से विदा लेकर वापिस अपने महल पंहुचा उसके मन में वही बात घूम रही थी। उसने निर्णय करने की ठानी और प्रजा पर भयंकर अत्याचार शुरू कर दिया और अपना स्वाभाव भी क्रूर कर लिया।

🔷 कुछ दिनों बाद फिर से वह उसी साधू के पास पहुंचा और फिर उसी सत्कार के साथ साधू ने उसे फल भेंट किये तो राजा ने पाया कि फल अब उस भांति मीठे नहीं है जितने पिछली बार थे तो राजा ने ये बात साधू से कही तो साधू गंभीर हो गया।

🔶 साधू बोला तब तो अवश्य ही शासक पानी और अधर्मी हो गया है जो फलों ने अपना स्वाद खो दिया है क्योंकि ये उसी के अधर्म का परिणाम है।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 9 Jan 2018


👉 आज का सद्चिंतन 9 Jan 2018


👉 प्रत्येक परिस्थिति में प्रसन्नता का राजमार्ग (भाग 2)

🔶 मधुमक्खी गुलाब के फूल पर बैठती है और आक के फूलों पर भी। जंगली करील से लेकर सेमर, कचनार, गुलबास, बेला, चमेली और कमल सबमें मधुमक्खी बैठती है। किसी में कांटे हैं या चुभन, कोई जंगली है या शहरी, किसी को लोग खाते हैं किसी को नहीं, यह न देखने वाली मधुमक्खी केवल पराग चूसने के ही मतलब से मतलब रखती है। अपनी इसी लगन के कारण मधुमक्खी थोड़े ही दिनों में मधु का छत्ता भर लेती है, कुछ आप पीती है कुछ संसार को बांट देती है।

🔷 मनुष्य को चाहिये कि वह सदा ही किसी न किसी भले काम, भले व्यक्ति और भलाई के गुण का चिन्तन किया करे, इससे उसके अन्तःकरण से अपने आप भलाई की शक्ति जन्मती है। उसे प्रेरणा और पुलक प्रदान करती है। इस तरह निरन्तर पुलकित रहने का जिसका स्वभाव बन जाता है, संसार में उसके लिये न तो कुछ अमंगल रह जाता है न अहितकर। उसके संसार में सर्वत्र अच्छाइयां ही अच्छाइयां, आनन्द ही आनन्द, प्रेम ही प्रेम, पुलक ही पुलक शेष रह जाती है। केवल अपने मन को गुण—ग्रहण की दिशा में लगा देने का चमत्कार मात्र है।

🔶 ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार चक्षु और मन क्रमशः मित्र और वरुण कहे गये हैं। चक्षु उपलक्षण से पंच ज्ञानेन्द्रियों का वाचक है। इनको संयत करके मन को शुद्ध भावों से उपेत करना वशिष्ठ का लक्षण है। वशिष्ठ का अर्थ श्रेष्ठ होना बताया गया है और लिखा गया है कि इस प्रकार व्यावहारिक दृष्टि से शुद्ध भावोपेत होना और केवल गुणों का संग्रह करते रहना वशिष्ठ होने का प्रथम लक्षण है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- फरवरी 1971 पृष्ठ 32
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/February/v1.32

👉 Significance of Birthday (Part 2)

🔷 So much are the possibilities in this human life that if a good and proper use of this human life could be made, the man can excel both in material and in spiritual quarters of life. All doors of success are just open to him with only condition for a man being realization of the significance of his existence and that how precious thing he has in his possession. How much costly is our corporeal body, our brain and of course the immense specifications of temperament, action and merit induced within it, If these could be used properly and effectively. If we could not do that then even a diamond may be proved to be worthless lying idle in our hands.
                                       
🔶 The most important job in this world is to identify the dignity and the majesty of a man, as is the importance of identifying and finding out the preciousness of a diamond in hand because only then a exultation can emerge from within us to be benefitted by putting the same to a proper and good use.

🔷 The birthday provides us a day, an opportunity as well as a platform to exclusively think in this direction to evaluate the cost, the usefulness and the dignity of our life besides taking some purposeful decision in that direction. To achieve all these objects, the celebration of birthday of at least one member in the family, has been mandatory. Some shrewd ones may question this mandate. Only answer to such people is that it provides an enthusiastic and sentimental atmosphere facilitating conveyance of some important things.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 ध्यान का दार्शनिक पक्ष (भाग 3)

🔶 आत्मा और परमात्मा एक है। यह थोड़ा सा सीमाबद्ध है तो वह असीम है। यह अणु है और वह विभु है। यह मायाग्रस्त है तो वह मुक्त है। बस इतना ही फर्क है। अगर हम अपने आप को साफ कर लें तो हम उसको प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए हम प्रकाश का ध्यान करते हैं, भीतर वाले का ध्यान करते हैं। अपने लक्ष्य का ध्यान करते हैं, जीवन का ध्यान करते हैं तो गुरुजी आपने इसीलिए सूरज का ध्यान बता दिया है? हाँ बेटे, वह तो हमने प्रतीक बता दिया है। उसकी चमक देखकर अगर आप यह अंदाजा लगाते हों कि हमारे ध्यान में चमक आ जाती हैं या नहीं आती हैं अथवा आपके ध्यान में गायत्री माता आ जाती हैं, या नहीं आती हैं, तो उससे बनता-बिगड़ता नहीं है। उससे केवल यह बात साबित होती है कि आपके दिमाग की परिपक्व अवस्था आई कि नहीं।

🔷 प्रकाश से मेरा मतलब वह नहीं है जो आप समझते है। प्रकाश को अध्यात्म में जिस अर्थ में लिया गया है, उस अर्थ से मेरा मतलब है। प्रकाश 'डिवाइन लाइट' लेटेंट लाइट या जान के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यह चमक के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। चमक का अर्थ ज्ञान है। जिस प्रकाश के लिए हमने कहा है, वह है जिसके लिए भगवान से हमने प्रार्थना की है 'तमसो मा ज्योतिर्गमय'। हे भगवान! हमको अंधकार की ओर नहीं प्रकाश की ओर ले चलिए। अध्यात्म में प्रकाश शब्द कहीं भी प्रयुक्त हुआ है, वहाँ ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
 
🔶 ध्यान के लिए जो हमने यह बताया कि आप प्रकाश का ध्यान किया कीजिए, तो कहाँ-कहाँ प्रकाश का ध्यान किया करें? अभी स्वर्ण जयंती साधना वर्ष में हमने आपको तीन जगह ध्यान करने के लिए कहा है। एक आप मस्तिष्क में ध्यान किया कीजिए। दूसरा अंतरात्मा में हृदय स्थान पर और तीसरा नाभि स्थान पर ध्यान किया कीजिए। हमारे तीन शरीर हैं और तीनों शरीरों के ये तीन केंद्र हैं। इन तीनों के भीतर प्रकाश चमकना चाहिए। प्रकाश हमारे तीनों शरीरों के भीतर प्रविष्ट होना चाहिए। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि प्रकाश जब हमारी नसों में आए, नाड़ियों में आए, शरीर में आए तो नाभि में होकर आए। नाभि में से होकर इसलिए कि माता और बच्चे का जो संबंध-सूत्र है, वह नाभि से जुड़ा होता है। इसलिए स्थूलशरीर का केन्द्र नाभि को माना गया है।

🔷 जिस प्रकार माता के शरीर में से उसका रक्त नाभि से होकर हमारे शरीर में आता था और दोनों का संबंध जुड़ा हुआ था, उसी प्रकार भगवान का प्रकाश नाभि में से होकर हमारे शरीर के भीतर आता है। जब वह प्रकाश आएगा, तब आपकी हड्डियाँ चमकेगी, रक्त चमकेगा, माँस चमकेगा। चमकने से मेरा मकसद यह है कि तब आपके भीतर कर्मनिष्ठा, स्फूर्ति, साहसिकता, श्रम के प्रति प्यार, कर्मों के प्रति प्यार, कर्मयोग के प्रति प्यार, कर्तव्य-परायणता के प्रति प्यार उभरेगा। यह कर्मयोग है। कर्मयोग शरीर का रोग है। प्रकाश का ध्यान करने वाला कभी खाली बैठ नहीं सकता। वह सतत सत्कर्मरत ही रहेगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 12)

👉 परमसिद्धि का राजमार्ग

🔶 अपरिमित आनन्द और उल्लास से भरकर मैं घर लौटा। नित्य की ही भांति उस रात्रि भी मैं ध्यान के लिए बैठा। बस फर्क थोड़ा था, आज सद्गुरु के चरण मेरी ध्यानस्थ चेतना का केन्द्र थे। वे चरण कब अनन्त विराट् परब्रह्म बन गए पता ही नहीं चला। बस उसी रात मैंने जीवन की चिरप्रतीक्षित परमसिद्धि प्राप्त कर ली। उस दिन से माया का कोई भी परदा उस परमानन्दमय जगत् स्रष्टा की छवि को मेरे नेत्रों से ओझल नहीं कर सका है। यह कहते हुए स्वामी प्रणवानन्द का मुखमण्डल प्रसन्नता से दमक उठा। स्वामी योगानन्द लिखते हैं कि गुरु महिमा की यह कथा सुनकर मेरा भय भी नष्ट हो गया।
  
🔷 योगानन्द द्वारा कही गयी यह योगकथा गुरुचरणों की महिमा को प्रकट करती है। गुरुचरण ही अपने तात्त्विक रूप में परब्रह्म का स्वरूप है। लेकिन इसे जाना और समझा तभी जा सकता है- जब साधक अपनी गुरुभक्ति की साधना के शिखर पर आरूढ़ हो गया है। एक सन्त कवि ने इस तथ्य को एक पंक्ति में कहने की कोशिश की है- ‘श्री गुरुचरणों में नेह। साधन और सिद्धि है येह।’ अर्थात् गुरुचरणों में अनुराग साधना भी है और सिद्धि भी। साधना के रूप में इसका प्रारम्भ होता है, तो इसके तात्त्विक स्वरूप के दर्शन में इसकी सिद्धि की चरम परिणति होते हैं। हममें से अनेक गुरुपद अनुरागी यह जानना चाहेंगे की इस साधना की शुरुआत कैसे करें? तो इसका सरल उत्तर है कि गुरुचरणों के भाव भरे ध्यान से। भाव भरे ध्यान का मतलब इस अटल विश्वास से है कि सद्गुरु का स्थूल रूप ही और कुछ नहीं परब्रह्म का ही घनीभूत प्राकट्य है।
  
🔶 वही भक्तवत्सल भगवान् हमारे कल्याण के लिए शिष्यवत्सल गुरुदेव के रूप में प्रकट हुए हैं। बिना किसी शर्त के, बिना किसी मांग के, बिना किसी अधिकार के, स्वयं को उनके श्री चरणों में न्यौछावर कर देना ही गुरुचरणों की सच्ची सेवा है। इससे हमारे जन्म-जन्मान्तर के सारे पाप धुल जाते हैं और आत्मा का विशुद्ध स्वरूप निखरने लगता है। साथ ही अन्तर्चेतना में अयमात्मा ब्रह्म की अनुभूति प्रकट और प्रत्यक्ष हो जाती है। इस कथन में तर्कपूर्ण कल्पना का जाल नहीं, बल्कि असंख्य साधकों की साधनात्मक अनुभूति सँजोयी है। सद्गुरु के चरणों का प्रभाव एवं प्रताप ही ऐसा है। इसकी महिमा कथा का और अधिक विस्तार अगले मंत्रों में है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 23

👉 रोज भूखे सोते हैं 19 करोड़, फिर भी

बर्बाद हो रहा ₹244 Cr का खाना

🔷 देश ने भले ही मंगल ग्रह तक पहुंच बना ली हो लेकिन अब भी भारत की बड़ी आबादी को भूखा सोना पड़ता है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि भारत में कम अनाज पैदा होता है, बल्कि यह जरूरतमंदों तक पहुंच ही नहीं पाता। युनाइटेड नेशन की फूड एंड एग्रिकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (FAO) ने इससे जुड़ी एक रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट में क्या है जानिए -
 

🔶 FAO ने रिपोर्ट में बताया है कि भारत हर साल 244 करोड़ रुपये का खाना बर्बाद कर देता है जो कि सालाना के हिसाब से 88,800 करोड़ रुपये बैठता है। वहीं दूसरी तरफ भारत में ही रोजाना 19 करोड़ चालिस लाख लोग भूखे रहते हैं।
 
 🔷 बर्बाद सामान में 21 मिलियन टन गेहूं संबंधी उत्पादन होता है। वहीं फसल कटाई के बाद होने वाला नुकसान एक लाख करोड़ रुपये के करीब बैठता है। कुल उत्पादित होने वाली खाद्य सामग्री का चालिस प्रतिशत हर साल बर्बाद हो जाता है।
 
 🔶 रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की जनसंख्या को खिलाने के लिए हर साल 225-230 मिलियन टन खाने की जरूरत है। वहीं 2015-16 में 270 मिलियन टन का उत्पादन हुआ था।

🔷 वैश्विक भूख सूचकांक में भारत की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। 119 देशों में भारत 100वें नंबर पर है। बता दें कि 2016 में भी एक रिपोर्ट आई थी। उसमें कहा गया था कि ब्रिटेन के लोग जितना खाना खाते हैं उतना भारतीय बर्बाद कर देते हैं।

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...