बुधवार, 30 जनवरी 2019

👉 आदतों के जंजाल

आदतों के जंजाल से नि‍कलेंगे तभी समझेंगे मुक्ति के मायने

एक बार मिस्र में कुछ कैदि‍यों को उम्रकैद की सजा देकर कि‍ले में रखा गया था। सारे कैदी अपनी जवानी में पकड़े गए थे और जेल में ही बूढ़े हो गए थे। बाद में जब राज्यय की सरकार का तख्ता पलटा, तो इन उम्रकैदियों को आजाद कर दि‍या गया। पर वे तो आजादी भूल चुके थे। उनके लिए जेल ही घर और बेड़ियां जेवर बन चुकी थीं। उन्हों।ने किले के बाहर जाने से इनकार कर दि‍या। उनके इनकार के बावजूद उन सबको जबरदस्ती जेल से निकाल दि‍या गया। उस वक्तए तो वह चले गए, लेकिन शाम को आधे से ज्यादा कैदी जेल के दरवाजे आकर कहने लगे कि हमे अंदर आने दो, हमारा यही घर है।

दरअसल ये कैदी रोज वहां जीवन व्यतीत करते-करते वहीं के हो गए थे। जेल ही उनका घर बन गया था। वह बाहर की दुनिया भूल चुके थे। जेल में समय से खाना मिल जाता था। समय से सो जाते थे। आपस में बातचीत कर लेते थे। जिंदगी व्यतीत हो ही रही थी। बाहर उन कैदियों ने यह कहा कि हमें नींद नहीं आएगी। बेड़ियां न होने से हमारे हाथ-पैर हलके हो गए हैं। हमसे चला नहीं जाता। बेड़ियों के बिना हमें अपने पैर हलके लगते हैं। उन्हें इसकी आदत बन गई थी।

ऐसे ही गुलामी की भी आदत हो जाती है। ठीक ऐसे ही अवगुणों में रहने की भी आदत हो जाती है। और इस आदत में रमा इंसान समय और तकदीर की भी परवाह नहीं करता। समय यदि उनकी तकदीर बदल भी देता है, तो भी वह उन अवगुणों को नहीं छोड़ पाता। आदतों के जंजाल में फंसा इंसान न तो तकदीर की उंगली पकड़कर चल पाता है और न ही समय देख भविष्यम का फैसला ले पाता है। यह तो प्रत्यक्ष है कि वह कैदी याचना कर रहे थे कि उन्हें अंदर आने दिया जाए। हकीकत यह है कि जिन अवगुणों में मनुष्य जी रहा होता है, वह अवगुण उसको अवगुणों की तरह नहीं दिखाई देते। इसलिए उस अवगुण को तोड़ने की जरूरत ही नहीं महसूस होती, क्योंकि अवगुण दिखाई ही नहीं देते। जेल ही जब घर लगता है, तो आजादी उनके लिए क्या मायने रख सकती है? किसको आजाद करना है, जब जेल ही उसका घर है अवगुण ही रस हैं, अवगुण ही जीवन हैं? इन अवगुणों से बचना बड़ी मुश्किल बात है। व्यक्ति अवगुणों के साथ जीवनपर्यंत रहते हैं।

महात्मा गांधी ने कहा है कि, 'आपके विचार आपके शब्द बन जाते हैं, आपके शब्द आपके कर्म बन जाते हैं, आपके कर्म आपकी आदतें बन जाती हैं, आपकी आदतें आपके मूल्य बन जाते है और आपके मूल्य आपकी तकदीर बन जाते है।' बेहतर जीवन शैली आदतों की विवेचना कर मूल्यांकन करने की सलाह देगी। तय हमें करना होगा कि हम आदतों के कभी दास न बनें और कभी भी गलत आदतों को फलने-फूलने न दें।

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👉 चेतना की स्वतंत्रता

एक संध्या एक पहाड़ी सराय में एक नया अतिथि आकर ठहरा। सूरज ढलने को था, पहाड़ उदास और अंधेरे में छिपने को तैयार हो गए थे। पक्षी अपने निबिड़ में वापस लौट आए थे। तभी उस पहाड़ी सराय में वह नया अतिथि पहुंचा। सराय में पहुंचते ही उसे एक बड़ी मार्मिक और दुख भरी आवाज सुनाई पड़ी। पता नहीं कौन चिल्ला रहा था?

पहाड़ की सारी घाटियां उस आवाज से...लग गई थीं। कोई बहुत जोर से चिल्ला रहा था--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।

वह अतिथि सोचता हुआ आया, किन प्राणों से यह आवाज उठ रही है? कौन प्यासा है स्वतंत्रता को? कौन गुलामी के बंधनों को तोड़ देना चाहता है? कौनसी आत्मा यह पुकार कर रही? प्रार्थना कर रही?

और जब वह सराय के पास पहुंचा, तो उसे पता चला, यह किसी मनुष्य की आवाज नहीं थी, सराय के द्वार पर लटका हुआ एक तोता स्वतंत्रता की आवाज लगा रहा था।
वह अतिथि भी स्वतंत्रता की खोज में जीवन भर भटका था। उसके मन को भी उस तोते की आवाज ने छू लिया।

रात जब वह सोया, तो उसने सोचा, क्यों न मैं इस तोते के पिंजड़े को खोल दूं, ताकि यह मुक्त हो जाए। ताकि इसकी प्रार्थना पूरी हो जाए। अतिथि उठा, सराय का मालिक सो चुका था, पूरी सराय सो गई थी। तोता भी निद्रा में था, उसने तोते के पिंजड़े का द्वार खोला, पिंजड़े के द्वार खोलते ही तोते की नींद खुल गई, उसने जोर से सींकचों को पकड़ लिया और फिर चिल्लाने लगा--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।

वह अतिथि हैरान हुआ। द्वार खुला है, तोता उड़ सकता था, लेकिन उसने तो सींकचे को पकड़ रखा था। उड़ने की बात दूर, वह शायद द्वार खुला देख कर घबड़ा आया, कहीं मालिक न जाग जाए। उस अतिथि ने अपने हाथ को भीतर डाल कर तोते को जबरदस्ती बाहर निकाला। तोते ने उसके हाथ पर चोटें भी कर दीं। लेकिन अतिथि ने उस तोते को बाहर निकाल कर उड़ा दिया।

निश्चिंत होकर वह मेहमान सो गया उस रात। और अत्यंत आनंद से भरा हुआ। एक आत्मा को उसने मुक्ति दी थी। एक प्राण स्वतंत्र हुआ था। किसी की प्रार्थना पूरी करने में वह सहयोगी बना। वह रात सोया और सुबह जब उसकी नींद खुली, उसे फिर आवाज सुनाई पड़ी, तोता चिल्ला रहा था--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।

वह बाहर आया, देखा, तोता वापस अपने पिंजड़े में बैठा हुआ है। द्वार खुला है और तोता चिल्ला रहा है--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। वह अतिथि बहुत हैरान हुआ। उसने सराय के मालिक को जाकर पूछा, यह तोता पागल है क्या? रात मैंने इसे मुक्त कर दिया था, यह अपने आप पिंजड़े में वापस आ गया है और फिर भी चिल्ला रहा, स्वतंत्रता?

सराय का मालिक पूछने लगा, उसने कहा, तुम भी भूल में पड़ गए। इस सराय में जितने मेहमान ठहरते हैं, सभी इसी भूल में पड़ जाते हैं। तोता जो चिल्ला रहा है, वह उसकी अपनी आकांक्षा नहीं, सिखाए हुए शब्द हैं। तोता जो चिल्ला रहा है, वह उसकी अपनी प्रार्थना नहीं, सिखाए हुए शब्द हैं, यांत्रिक शब्द हैं। तोता स्वतंत्रता नहीं चाहता, केवल मैंने सिखाया है वही चिल्ला रहा है। तोता इसीलिए वापस लौट आता है। हर रात यही होता है, कोई अतिथि दया खाकर तोते को मुक्त कर देता है। लेकिन सुबह तोता वापस लौट आता है।

मैंने यह घटना सुनी थी। और मैं हैरान होकर सोचने लगा, क्या हम सारे मनुष्यों की भी स्थिति यही नहीं है? क्या हम सब भी जीवन भर नहीं चिल्लाते हैं-- मोक्ष चाहिए,
स्वतंत्रता चाहिए, सत्य चाहिए, आत्मा चाहिए, परमात्मा चाहिए? लेकिन मैं देखता हूं कि हम चिल्लाते तो जरूर हैं, लेकिन हम उन्हें सींकचों को पकड़े हुए बैठे रहते हैं जो हमारे बंधन हैं।

हम चिल्लाते हैं, मुक्ति चाहिए, और हम उन्हीं बंधनों की पूजा करते रहते हैं जो हमारा पिंजड़ा बन गया, हमारा कारागृह बन गया। कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह मुक्ति की प्रार्थना भी सिखाई गई प्रार्थना हो, यह हमारे प्राणों की आवाज न हो? अन्यथा कितने लोग स्वतंत्र होने की बातें करते हैं, मुक्त होने की, मोक्ष पाने की, प्रभु को पाने की। लेकिन कोई पाता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। और रोज सुबह मैं देखता हूं, लोग अपने पिंजड़ों में वापस बैठे हैं, रोज अपने सींकचों में, अपने कारागृह में बंद हैं। और फिर निरंतर उनकी वही आकांक्षा बनी रहती है।

सारी मनुष्य-जाति का इतिहास यही है। आदमी शायद व्यर्थ ही मांग करता है स्वतंत्रता की। शायद सीखे हुए शब्द हैं। शास्त्रों से, परंपराओं से, हजारों वर्ष के प्रभाव से सीखे हुए शब्द हैं। हम सच में स्वतंत्रता चाहते हैं? और स्मरण रहे कि जो व्यक्ति अपनी चेतना को स्वतंत्र करने में समर्थ नहीं हो पाता, उसके जीवन में आनंद की कोई झलक कभी उपलब्ध नहीं हो सकेगी। स्वतंत्र हुए बिना आनंद का कोई मार्ग नहीं है।

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👉 आत्म निर्माण-जीवन का प्रथम सोपान (भाग 4)

मन को, मस्तिष्क को अस्त-व्यस्त उड़ने की छूट नहीं देनी चाहिए। शरीर की तरह उसे भी क्रमबद्ध और उपयोगी चिन्तन के लिए सधाया जाना चाहिए। कुसंस्कारी मन बनैले सुअर की तरह कहीं भी किधर भी दौड़ लगाता रहता है शरीर भले ही विश्राम करे पर मन तो कुछ सोचेगा ही। यह सोचना भी शारीरिक श्रम की तरह ही उत्पादक होता है। समय की बर्बादी की तरह ही अनुपयोगी और निरर्थक चिन्तन भी हमारी बहुमूल्य शक्ति को नष्ट करता है। दुष्ट चिन्तन तो आग से खेलने की तरह है। आज परिस्थितियों में जो सम्भव नहीं वैसी आकाश पाताल जैसी कल्पनाएँ करते रहने, योजनाएँ बनाते रहने से मनुष्य अव्यावहारिक बनता जाता है।

व्यभिचार, आक्रमण, षड्यन्त्र जैसी कल्पनाएँ करते रहने से मन निरन्तर कलुषित होता चला जाता है और उपयोगी योजनायें बनाने के लिए गहराई तक प्रवेश कर सकना उसके लिए सम्भव नहीं रहता। उद्धत आचरण शरीर को नष्ट करते हैं और उद्धत विचार मन मस्तिष्क का सत्यानाश करके रख देते हैं। मनोनिग्रह का योगाभ्यास में बहुत माहात्म्य गाया गया है। उस चित्त निरोध का व्यावहारिक स्वरूप यही है कि जिस दिशा को हम उपयोगी मानते हैं और जिस सन्दर्भ में सोचना आवश्यक समझते हैं उसी निर्देश पर हमारी विचारणा गतिशील रहे। वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों और योगाभ्यासियों में यही विशेषता होती है कि वे अपने मस्तिष्क को निर्धारित प्रयोजन पर ही लगाये रहते है। अस्त-व्यस्त उड़ानों में उसे तनिक भी नहीं भटकने देते।

यह आदत हमें डालनी चाहिए कि चिन्तन का क्षेत्र निर्धारित करके उस पर मन को केन्द्रित करने की आदत यदि डाली जा सके तो मस्तिष्कीय प्रखरता का, मनोबल सम्पादन का द्वार खुल जायेगा और मन्दबुद्धि जैसी मस्तिष्कीय बनावट रहते हुए भी अपने चिन्तन क्षेत्र में निष्णात बन जायेंगे। समय की दिनचर्या में बाँधकर शरीर का श्रेष्ठतम उपयोग किया जा सकता है। मन का महत्त्व शरीर से कम नहीं अधिक है। उसका भटकाव रोककर उसे उपयोगी निर्दिष्ट चिन्तन में यदि सधाया जाना सम्भव हो सके तो मस्तिष्क की विचारशक्ति से बहुमूल्य लाभ उठाया जा सकता है। समुन्नत जीवन विकास में यह शरीर और मन पर बन्धन लगाने की साधना सही रूप से तप तितीक्षा का, व्रत संयम का उच्चस्तरीय लाभ दे सकती है।

ऊपर की पंक्तियों में कुछ मोटे सुझाव संकेत भर हैं। विचार करने पर अनेकों प्रसंग ऐसे सामने आते हैं जिनमें विधि निषेध की आवश्यकता पड़ती है। क्या छोड़ना, क्या अपनाना इसका महत्त्वपूर्ण निर्णय करना पड़ता है। यह हर दिन प्रस्तुत परिस्थितियों और आवश्यकताओं को देखते हुए किया जाना चाहिए। यह मान्यता हृदयंगम की जानी चाहिए कि आत्म-निर्माण का महान लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अवांछनीयताओं का क्रमशः परित्याग करना ही पड़ेगा और उपयोगी गुण, कर्म, स्वभाव को व्यावहारिक जीवन में समाविष्ट करने का साहसपूर्ण प्रयास करना ही होगा। विधि और निषेध के दो कदम क्रमबद्ध रूप से निरन्तर उठाते चलने की व्रतशीलता ही हमें आत्मिक प्रगति के उच्च लक्ष्य तक पहुँचा सकने में समर्थ हो सकती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)


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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Jan 2019


👉 बादलों की तरह बरसते रहो

वे लोग अगले जन्म में दु:ख भोगेंगे जो किसी को कुछ नहीं देते और पैसे को जोड़कर जमा करते जाते हैं। जिसने अपने घर में दौलत के ढेर जोड़ रख हैं मगर उसका सदुपयोग नहीं करता उसे एक प्रकार का चौकीदार ही कहना चाहिए। उसका जीवन पृथ्वी के लिए भार रूप है जो वेश की परवाह किए बिना निरंतर धन के लिए ही हाय-हाय करते हैं। जो न तो खुद खा सकता है और न दूसरों को दे सकता, चाहे वह करोड़पति ही क्यों न हो, मामूली गरीब आदमी से उसमें कुछ विशेषता नहीं है। उचित-अनुचित तरीकों से पेट पर पट्टी बाँध कर जो धन जोड़ा या है, वह उसके किसी काम न आएगा, उसका उपयोग तो दूसरे ही करेंगे। वह मनुष्य बुद्धिमान् है, जिसने अपना धन शुभ कार्यों में खर्च कर दिया है। असल में वह बरसने वाले बादलों के समान है, जो आज खाली होता है, तो कल फिर भर जाएगा।

मिलनसारी, भलमनसाहत का व्यवहार और दूसरों के हितों का ख्याल रखना, ये ऐसे गुण हैं, जिनसे दुनिया अपनी हो सकती है। संसार उनको भुला नहीं सकता, जो अपने से छोटे और बड़ों के साथ शिष्टता का व्यवहार करते हैं।

कटुभाषी और निष्ठुर स्वभाव के मनुष्य का जीवन लोहे और काठ की तरह नीरस होता है चाहे वे भले ही आरी की तरह तेज हों। जिस कर्महीन मनुष्य को इतने लम्बे चौड़े विश्व में हँसने और मुस्कराने योग्य कुछ दिखाई नहीं देता और सारे दिन कुड़ कुढ़ता रहता है, उसे उस रोगी की तरह समझना चाहिए जिस दिन में भी नहीं दीखता। बद-मिज़ाज व्यक्ति के पास चाहे कितनी ही विद्या और सम्पत्ति क्यों न हों, वह उस दूध के समान निकम्मा है जो गन्दे पात्र में रखा होने से दूषित हो गया है।

📖 अखण्ड ज्योति -फरवरी 1943

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👉 Generous Like the Clouds

Stingy fellows, who keep their resources only to themselves and remain apathetic to others’ sufferings, are in fact accounting sins for their future destiny. Those who have stocked heaps of wealth in their possession but never use it are mere ‘guards’ of money. Such fellows are burden on this earth that can do nothing for anyone. Even materialistically, they don’t enjoy anything; the thirst of gaining more, the worries and tensions of safeguarding the possession and the miserly attitude do not let them live in peace; they neither eat well nor can give anything to others. Despite having millions or billions of riches, they remain poor, beggars… Thirst for more and more of selfish possession does not even let one see what are the right or wrong means of piling the stocks of wealth. Prosperity earned by unfair means cannot let one prosper… One dies empty handed and later one all that ‘dead property’ possessed by him does no good to even to those who grabs it afterwards…

On the contrary, those who earn honestly and spend magnanimously and wisely in good, constructive and auspicious activities are always prospering. They are like clouds, which enshower generously; even if emptied today, the clouds are filled again and return back tomorrow with same dignity.

Integrity, benevolence, caring and helping sociability – are virtues of greatness, which can make the entire world your own. No one can forget the warmth of meeting such amicable personalities. But, the selfish fellows, howsoever talented and affluent they might be, remain aloof and virtually isolated; their state is like that of milk kept in a dirty pot, which is thrown without use…

📖 Akhand Jyoti, Feb. 1943

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👉 आत्मचिंतन के क्षण 30 Jan 2019

◾ किसी विचारधारा का परिणाम तभी प्राप्त हो सकता है, जब वह कार्यरूप में परिणत हो। मानसिक व्यसन के रूप में कुछ पढ़ते-सुनते और सोचते रहें, कार्यरूप में उसे परिणत न करें तो उस विचार विलास मात्र से कितना उद्देश्य पूर्ण हो सकेगा। आध्यात्मिक विचारधारा का लम्बा स्वाध्याय मन पर एक हलकी सी सतोगुणी छाप तो छोड़ता है, पर जब तक क्रिया में वे विचार न उतरें तब तक यह स्वाध्याय भी एक विनोद व्यसन ही बना रहता है।

◾ अनावश्यक दुर्भावनाओं को मन में स्थान देना, दूसरों के लिए अशुभ सोचते रहना, औरों के लिए उतना हानिकारक नहीं होता, जितना अपने लिए। उचित यही है कि हम सद्भाव संपन्न रहें। जिनमें वस्तुतः दोष-दुर्गुण हों उन्हें चारित्रिक रुग्णता से ग्रसित समझकर सुधार का भरसक प्रयत्न करें, पर उस द्वेष-दुर्बुद्धि  से बचे रहें, जो अंततः अपने ही व्यक्तित्व को आक्रामक असुरता से भर देती है और दूसरों को ही नहीं अपना भी सर्वनाश प्रस्तुत करती है।

◾ ऊँचा उठना ही मनुष्य जीवन की सफलता का चिह्न है। मन को निग्रहीत, बुद्धि को परिष्कृत, चित्त को उदात्त और अहंकार को निर्मल बनाकर इसी शरीर में दिव्य शक्तियों का अवतरण किया जा सकता है और उन विभूतियों से लाभान्वित हुआ जा सकता है, जो देवताओं में सन्निहित मानी जाती हैं।

◾ यदि तुम भलाई का अनुकरण करके कष्ट सहन करो तो कुछ समय पश्चात् कष्ट तो चला जाता है,  पर भलाई बनी रहती है। पर यदि तुम बुराई का अनुकरण करके सुखोपभोग करो तो समय आने पर सुख तो चला जायेगा और बुराई बनी रहेगी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...