शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2016
👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 3)
चित्रगुप्त का परिचय
🔴 आधुनिक शोधों ने उपरोक्त अलंकारिक कथानक में से बड़ी ही महत्वपूर्ण सच्चाई को खोज निकाला है, डॉक्टर फ्राइड ने मनुष्य की मानसिक रचना का वर्णन करते हुए बताया है कि जो भी भले या बुरे काम ज्ञानवान प्राणियों द्वारा किए जाते हैं, उनका सूक्ष्म चित्रण अंतः चेतना में होता रहता है। ग्रामोफोन के रिकार्डों में रेखा रूप में गाने भर दिए जाते हैं। संगीतशाला में नाच-गाना हो रहा है और साथ ही अनेक बाजे बज रहे हैं, इन अनेक प्रकार की ध्वनियों का विद्युत शक्ति से एक प्रकार का संक्षिप्त एवं सूक्ष्म एकीकरण होता है और वह रिकार्ड में जरा-सी जगह में रेखाओं की तरह अंकित होता जाता है।
🔵 तैयार किया हुआ रिकार्ड रखा रहता है वह तुरंत ही अपने आप या चाहे जब नहीं बजने लगता वरन तभी उन संग्रहीत ध्वनियों को प्रकट करता है, जब ग्रामोफोन की मशीन पर उसे घुमाया जाता है और सुई की रगड़ उन रेखाओं से होती है। ठीक इसी प्रकार भले और बुरे जो भी काम किए जाते है, उनकी सूक्ष्म रेखाएँ अंतः चेतना के ऊपर अंकित होती रहती हैं और मन के भीतरी कोने में धीरे-धीरे जमा होती जाती हैं। जब रिकार्ड पर सुई का आघात लगता है, तो उसमें भरे हुए गाने प्रकट होते हैं। इसी प्रकार गुप्त मन में जमा हुई रेखाएँ किसी उपयुक्त अवसर का आघात लगने पर ही प्रकट होती हैं। भारतीय विद्वान् ‘कर्म रेखा’ के बारे में बहुत प्राचीनकाल से जानकारी रखते आ रहे हैं। ‘कर्म रेख नहिं मिटे, करे कोई लाखन चतुराई’ आदि अनेक युक्तियाँ हिंदी और संस्कृत साहित्य में मौजूद हैं, जिनसे प्रकट होता है कि कर्मों की कई रेखाएँ होती हैं,जो अपना फल दिए बिना मिटती नहीं।
🔴 भाग्य के बारे में मोटे तौर से ऐसा समझा जाता है कि सिर की अगली मस्तक वाली हड्डी पर कुछ रेखाएँ ब्रह्मा लिख देता है और विधि के लेख को मेंटनहारा अर्थात् उन्हें मिटाने वाला कोई नहीं है। डॉक्टर वीबेन्स ने मस्तिष्क में भरे हुए ग्रे मैटर (भूरा चर्बी जैसा पदार्थ) का सूक्ष्म दर्शक यंत्रों की सहायता से खोज करने पर वहाँ के एक-एक परमाणु में अगणित रेखाएँ पाई हैं, यह रेखाएँ किस प्रकार बनती हैं, इसका कोई शारीरिक प्रत्यक्ष कारण उन्हें नहीं मिला, तब उन्होंने अनेक मस्तिष्कों के परमाणुओं का परीक्षण करके यह निष्कर्ष निकाला की अक्रिय, आलसी एवं विचार शून्य प्राणियों में यह रेखाएँ बहुत ही कम बनती हैं, किंतु कर्मनिष्ठ एवं विचारवानों में इनकी संख्या बहुत बड़ी होती है। अतएव यह रेखाएँ शारीरिक और मानसिक कार्यों को संक्षिप्त और सूक्ष्म रुप से लिपिबद्ध करने वाली प्रमाणित हुईं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/chir.1
🔴 आधुनिक शोधों ने उपरोक्त अलंकारिक कथानक में से बड़ी ही महत्वपूर्ण सच्चाई को खोज निकाला है, डॉक्टर फ्राइड ने मनुष्य की मानसिक रचना का वर्णन करते हुए बताया है कि जो भी भले या बुरे काम ज्ञानवान प्राणियों द्वारा किए जाते हैं, उनका सूक्ष्म चित्रण अंतः चेतना में होता रहता है। ग्रामोफोन के रिकार्डों में रेखा रूप में गाने भर दिए जाते हैं। संगीतशाला में नाच-गाना हो रहा है और साथ ही अनेक बाजे बज रहे हैं, इन अनेक प्रकार की ध्वनियों का विद्युत शक्ति से एक प्रकार का संक्षिप्त एवं सूक्ष्म एकीकरण होता है और वह रिकार्ड में जरा-सी जगह में रेखाओं की तरह अंकित होता जाता है।
🔵 तैयार किया हुआ रिकार्ड रखा रहता है वह तुरंत ही अपने आप या चाहे जब नहीं बजने लगता वरन तभी उन संग्रहीत ध्वनियों को प्रकट करता है, जब ग्रामोफोन की मशीन पर उसे घुमाया जाता है और सुई की रगड़ उन रेखाओं से होती है। ठीक इसी प्रकार भले और बुरे जो भी काम किए जाते है, उनकी सूक्ष्म रेखाएँ अंतः चेतना के ऊपर अंकित होती रहती हैं और मन के भीतरी कोने में धीरे-धीरे जमा होती जाती हैं। जब रिकार्ड पर सुई का आघात लगता है, तो उसमें भरे हुए गाने प्रकट होते हैं। इसी प्रकार गुप्त मन में जमा हुई रेखाएँ किसी उपयुक्त अवसर का आघात लगने पर ही प्रकट होती हैं। भारतीय विद्वान् ‘कर्म रेखा’ के बारे में बहुत प्राचीनकाल से जानकारी रखते आ रहे हैं। ‘कर्म रेख नहिं मिटे, करे कोई लाखन चतुराई’ आदि अनेक युक्तियाँ हिंदी और संस्कृत साहित्य में मौजूद हैं, जिनसे प्रकट होता है कि कर्मों की कई रेखाएँ होती हैं,जो अपना फल दिए बिना मिटती नहीं।
🔴 भाग्य के बारे में मोटे तौर से ऐसा समझा जाता है कि सिर की अगली मस्तक वाली हड्डी पर कुछ रेखाएँ ब्रह्मा लिख देता है और विधि के लेख को मेंटनहारा अर्थात् उन्हें मिटाने वाला कोई नहीं है। डॉक्टर वीबेन्स ने मस्तिष्क में भरे हुए ग्रे मैटर (भूरा चर्बी जैसा पदार्थ) का सूक्ष्म दर्शक यंत्रों की सहायता से खोज करने पर वहाँ के एक-एक परमाणु में अगणित रेखाएँ पाई हैं, यह रेखाएँ किस प्रकार बनती हैं, इसका कोई शारीरिक प्रत्यक्ष कारण उन्हें नहीं मिला, तब उन्होंने अनेक मस्तिष्कों के परमाणुओं का परीक्षण करके यह निष्कर्ष निकाला की अक्रिय, आलसी एवं विचार शून्य प्राणियों में यह रेखाएँ बहुत ही कम बनती हैं, किंतु कर्मनिष्ठ एवं विचारवानों में इनकी संख्या बहुत बड़ी होती है। अतएव यह रेखाएँ शारीरिक और मानसिक कार्यों को संक्षिप्त और सूक्ष्म रुप से लिपिबद्ध करने वाली प्रमाणित हुईं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/chir.1
👉 मैं क्या हूँ ? What Am I ? (भाग 3)
🔴 पहला अध्याय
🔵 जब वह समझ जाता है कि मैं क्या हूँ तब उसे वास्तविक ज्ञान हो जाता है और सब पदार्थों का रूप ठीक से देखकर उसका उचित उपयोग कर सकता है। चाहे किसी दृष्टि से देखा जाय आत्मज्ञान ही सर्वसुलभ और सर्वोच्च ठहरता है।
🔴 किसी व्यक्ति से पूछा जाय कि आप कौन हैं? तो वह अपने वर्ण, कुल, व्यवसाय, पद या सम्प्रदाय का परिचय देगा। ब्राह्मण हूँ, अग्रवाल हूँ, बजाज हूँ, तहसीलदार हूँ, वैष्णव हूँ आदि उत्तर होंगे। अधिक पूछने पर अपने निवास स्थान, वंश व्यवसाय आदि का अधिकाधिक विस्तृत परिचय देगा। प्रश्न के उत्तर के लिए ही यह सब वर्णन हों सो नहीं, उत्तर देने वाला यथार्थ में अपने को वैसा ही मानता है। शरीर-भाव में मनुष्य इतना तल्लीन हो गया है कि अपने आपको वह शरीर ही समझने लगा है।
🔵 वंश, वर्ण, व्यवसाय या पद शरीर का होता है। शरीर मनुष्य का एक परिधान, औजार है। परन्तु भ्रम और अज्ञान के कारण मनुष्य अपने आपको शरीर ही मान बैठता है और शरीर के स्वार्थ तथा अपने स्वार्थ को एक कर लेता है। इसी गड़बड़ी में जीवन अनेक अशान्तियों, चिन्ताओं और व्यथाओं का घर बन जाता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part1
👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 56)
और तब गुरुदेव की वाणी ने कहा:-
🔵 वत्स! स्वयं को अन्तरतम में निविष्ट करो। बाह्य वस्तुएँ तीर और बर्छी के समान हैं जो आत्मा में खरोंचें लगाती हैं। अपनी अन्तरात्मा को अपना निवास स्थान बनाओ। सोलोमन महान ने ठीक ही कहा है - निस्सार वस्तुओं का अभिमान! सभी कुछ निस्सार है। सचमुच ऐसा ही है। मृत्यु के क्षणों में समस्त संसार का धन किस काम का है? उपनिषद के प्रसिद्ध नचिकेता ने कितना अच्छा कार्य किया। त्याग से प्राप्त होने वाली विजय के द्वारा उसने स्वयं यम को जीत लिया। सभी कुछ, जिनका रूप है अवश्य नष्ट होंगे। यही सभी रूपों की नियति है। मन भी एक रूप है इसका भी परिवर्तन तथा विघटन अनिवार्य है। इसलिये तुम नाम रूप के परे जाओ।
🔴 सर्वोच्च दृष्टिकोण से किसी भी वस्तु का उतना मूल्य नहीं है। सर्वोच्च अर्थ में एक बार यदि तुमने अपने हृदय को प्रभु को समर्पित कर दिया तो फिर तुम्हें कोई भी वस्तु बाँध नहीं सकती। इससे तुम्हारे मन में स्वाधीनता तथा विस्तार का भाव आना चाहिये। प्रेम सबसे बड़ी शक्ति है। प्रेम की शक्ति के द्वारा प्रेमास्पद को ढाँकने वाले सभी पर्दों को चीर दिया जा सकता है।
🔵 मन को शुद्ध करो। मन को शुद्ध करो!! यही धर्म का सर्वस्व है। धर्म का यही एक मात्र अर्थ है। सर्वोच्च दिशा में विचारों के सतत प्रवाह का अभ्यास करो। लक्ष्य की स्थिरता का अधिकाधिक विकास करो, तब कोई भी वस्तु तुम्हारा सामना नहीं कर सकेगी। जिस प्रकार चील उड़ती है उसी सरलता से तुम अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सकोगे। अहो! यदि कोई सतत परमात्मा का चिन्तन कर सके तो वह स्वयं अपने आप में मुक्ति होगी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर
🔵 वत्स! स्वयं को अन्तरतम में निविष्ट करो। बाह्य वस्तुएँ तीर और बर्छी के समान हैं जो आत्मा में खरोंचें लगाती हैं। अपनी अन्तरात्मा को अपना निवास स्थान बनाओ। सोलोमन महान ने ठीक ही कहा है - निस्सार वस्तुओं का अभिमान! सभी कुछ निस्सार है। सचमुच ऐसा ही है। मृत्यु के क्षणों में समस्त संसार का धन किस काम का है? उपनिषद के प्रसिद्ध नचिकेता ने कितना अच्छा कार्य किया। त्याग से प्राप्त होने वाली विजय के द्वारा उसने स्वयं यम को जीत लिया। सभी कुछ, जिनका रूप है अवश्य नष्ट होंगे। यही सभी रूपों की नियति है। मन भी एक रूप है इसका भी परिवर्तन तथा विघटन अनिवार्य है। इसलिये तुम नाम रूप के परे जाओ।
🔴 सर्वोच्च दृष्टिकोण से किसी भी वस्तु का उतना मूल्य नहीं है। सर्वोच्च अर्थ में एक बार यदि तुमने अपने हृदय को प्रभु को समर्पित कर दिया तो फिर तुम्हें कोई भी वस्तु बाँध नहीं सकती। इससे तुम्हारे मन में स्वाधीनता तथा विस्तार का भाव आना चाहिये। प्रेम सबसे बड़ी शक्ति है। प्रेम की शक्ति के द्वारा प्रेमास्पद को ढाँकने वाले सभी पर्दों को चीर दिया जा सकता है।
🔵 मन को शुद्ध करो। मन को शुद्ध करो!! यही धर्म का सर्वस्व है। धर्म का यही एक मात्र अर्थ है। सर्वोच्च दिशा में विचारों के सतत प्रवाह का अभ्यास करो। लक्ष्य की स्थिरता का अधिकाधिक विकास करो, तब कोई भी वस्तु तुम्हारा सामना नहीं कर सकेगी। जिस प्रकार चील उड़ती है उसी सरलता से तुम अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सकोगे। अहो! यदि कोई सतत परमात्मा का चिन्तन कर सके तो वह स्वयं अपने आप में मुक्ति होगी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर
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