गुरुवार, 17 मई 2018

👉 त्याग करो-और मिलेगा

🔷 सारपत नगर में एक विधवा स्त्री रहती थी। उसके केवल एक ही पुत्र था। एक बार उस नगर में भारी दुर्भिक्ष पड़ा। गाँव के गाँव उजड़ने लगे। भूख के मारे लोग काल के गाल में समा रहे थे।

🔶 एक दिन इलियाह नामक एक धर्मी पुरुष परमेश्वर की ओर से इस स्त्री के पास भेजा गया। इलियाह ने जाकर उससे रोटी माँगी। स्त्री ने उत्तर दिया कि उसके पास घड़े में केवल एक मुट्ठी आटा तथा कुप्पी में थोड़ा सा तेल है जिससे रोटी बनाकर एक ही बार भोजन करके वे दोनों माता-पुत्र मर जायेंगे, क्योंकि दूसरी बार के लिये एक दाना तक शेष नहीं है। इलियाह ने कहा- “जैसा मैं कहता हूँ, वैसा ही कर”, क्योंकि परमेश्वर कहता है कि “न तेरे घड़े का आटा और न तेरी कुप्पी में का तेल चुकेगा।” इसलिये परमेश्वर पर विश्वास करके अपनी चिन्ता उसी पर डाल और पहिले मुझे भोजन बनाकर खिला।

🔷 यह बड़ा ही टेढ़ा सवाल था। स्त्री ने सोचा कि यहाँ तो खुद भूखे मरने की नौबत है, अब क्या करूं। इतने ही में उसके हृदय से आवाज आई कि त्याग का प्रतिफल अवश्य ही मिलता है। उसने तुरन्त ही भोजन बनाया और उसे खिला दिया।

🔶 आश्चर्य की बात है कि वह जितना आटा निकालती थी उतना ही बढ़ता जाता था। उस दिन से उस स्त्री को मालूम हो गया कि भगवान हमारी कठिन से कठिन परिस्थिति में भी हमारा विश्वास बढ़ाता है। क्या हम भी इस विधवा स्त्री के सदृश्य त्याग करते हैं? और परमेश्वर पर विश्वास रखते हैं?

📖 अखण्ड ज्योति, अक्टूबर 1943 पृष्ठ 14
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1943/October/v1.14

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 18 May 2018


👉 आज का सद्चिंतन 18 May 2018


👉 कष्टों का निवारण (भाग 2)

🔷 सामयिक परिस्थितियों में भी अधिकाँश का कारण अपना स्वभाव ही होता है। मुहल्ले वाले तुम्हें बुरा बताते हैं, झगड़े लगाते हैं और दुर्व्यवहार करते हैं। उन सब से अलग-अलग लड़ोगे तो भी शायद इच्छित शाँति को प्राप्त न कर सकोगे। सोचना चाहिए कि मेरे अंदर वास्तव में वे दुर्गुण कौन से हैं जो इतने लोगों को मेरा विरोधी बनाये हुए है। तुम्हारे अंदर यदि कड़ुआ बोलने, अनुचित हस्तक्षेप करने, लोक विरोधी काम करने की आदतें हैं तो उन्हें सुधारो, बस, सारे शत्रु मिट जायेंगे। तुम्हें कोई नौकर नहीं रखता। तो मालिकों को मत कोसो। अपने अंदर वह योग्यता प्राप्त करो जिसके होने पर हर जगह से आमंत्रण मिलता है।

🔶 सद्गुण मनुष्य की वह सम्पत्ति हैं जिनके होने पर उसका हर जगह आदर होना चाहिए। हर किसी का प्रेम और सहानुभूति प्राप्त होनी चाहिए। जब साधु स्वभाव काले पुरुष भी तुम्हारा विरोध कर रहे हों तो देखो कि हमारे अंदर कौन-कौन से दुर्गुण आ छिपे हैं। कई लोगों में यह कमी होती है कि जन साधारण में फैले हुए झूठे भ्रम को दूर नहीं कर सकते और अकारण लोगों के कोप का भाजन बनते हैं। उन्हें चाहिए कि सत्य बात को लोगों के सामने प्रकट करके अपनी निर्दोषिता साबित करें।

🔷 भय करने डरने और घबरा जाने के दुर्गुण ऐसे हैं जो दूसरों को अपने ऊपर अत्याचार करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जिनका स्वभाव निर्भय रहने का, हर प्रकार की कठिनाइयों का मुकाबला करने का होता है उन पर ज्यादती करने वाले झिझकते हैं। कहते हैं कि हिम्मत के सामने तलवार की धार भी मुड़ जाती है। धनाभाव के बारे में भी यही बात है जिसका पूरा ध्यान और मनोयोग धन संचय के साधनों में लगा हुआ नहीं है वह धनपति नहीं हो सकता। स्वास्थ्य को बढ़ाने की जिसकी प्रबल मनोकामना नहीं है वह पहलवान कैसे बन सकेगा?

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1940 जुलाई पृष्ठ 2

👉 Awakening Divinity in Man (Part 4)

Our folly!
🔷 Man is an intelligent being but at times displays his foolishness more than his intelligence. Don’t know from where he has developed the notion that Gods fulfil all desires; they bestow the boons of wealth, son, job, victory… and what not. Unfortunately, this misconception has entered in the field of spirituality too. This single illusion has caused so great a loss and harm that the enormous benefits and bright possibilities of spirituality that would have beatified man with unlimited joy have been ruined completely.

🔶 Deities have given only one thing in the ancient times and will give only one thing in the future too. As long as deities survive, devotion (to God) is sustained and the regularity of worship is maintained, one thing will be granted – divine virtues. If you are endowed with the virtues of divinity, then you will acquire hundreds and thousands times more glorious success than what you dream and desire now.

🔷 What do you want from the blessings of a deity or a great saint or from the power of a mantra? A job of few thousand rupees in lieu of the invaluable treasure of divinity? If any deity bestows divinity upon you, then it will raise the worth of your job so much that you will be grateful forever. Vivekanand had gone to Swami Ramkrishna to ask for a job but he got what a great soul like him indeed deserved –divinity, true devotion (bhakti), strength (ïakti) and peace (ï³nti). What are these? These are divine virtues. When saints bless their kindness upon you, they inspire unique enthusiasm and optimism in your inner self, which pulls you towards enlightened values of morality.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 आप तुनकमिज़ाज तो नहीं हैं? (अन्तिम भाग)

🔷 जरा जरा सी बात में चिढ़ने, नाक भौं सिकोड़ने, डांटने डपटने और गाली गलौज देने की आदत छोड़ ही देनी चाहिए। भूल करने वालों को समझाना बुझाना तथा उत्साह दिलाना चाहिए। किसी के अवगुणों को न देखें वरन् उसके गुणों को देखकर प्रवृत्त रहने का उपदेश देते रहें। अपने घर में अपनी स्त्री तथा बच्चों के साथ प्रेम और सभ्यता का व्यवहार करें। कभी उन्हें अपशब्द न कहें और न उनसे कड़ाई का व्यवहार करें।

🔶 आपका घर प्रेम मन्दिर होना चाहिए। घर में जितने भी प्राणी हों प्रेम के उपासक हों। सहनशील हों। परस्पर सबमें प्रीति हो। बहुत से व्यक्ति दोहरी जिन्दगी जीने के अभ्यस्त हो गये हैं। बाहर तो वह बड़े ही सभ्य एवं विचारक और नीतिज्ञ बनते हैं किन्तु घर में घुसते ही उनकी जिह्वा वश में नहीं रहती। छोटी मोटी बातों पर ही बिगड़ पड़ते हैं। गाली बकते हैं, चिल्लाते हैं। ऐसे व्यक्ति न केवल असभ्य हैं, अपितु समाज के शत्रु भी हैं। उनसे कुटुम्ब पर तथा समाज पर बुरा प्रभाव पड़ता है। उनका घर दुखमय बना रहता है। ऐसा जीवन मृत्यु जैसा ही है।

🔷 अतएव सुख और शान्ति से जीवन बिताने के लिए मधुर भाषण एवं सद्व्यवहार परमावश्यक हैं। जिस समय आप काम पर से लौटें, तो घर में चरण रखते ही सबमें आनन्द की लहर फैल जावे। मुन्ना और मुन्नी आपको देखते ही आपसे चिपट जाएँ। धर्मपत्नी मधुर मुस्कान से आपका स्वागत करे। नौकर चाकर भी सच्चे हृदय से आपकी सेवा करने को तैयार हो जावें। तब समझ लीजिए कि आप तुनकमिज़ाज नहीं हैं।

.... समाप्त
📖 अखण्ड ज्योति, फरवरी 1955 पृष्ठ 18
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1955/February/v1.18

👉 भगवान कैसे दिखाई देंगे? (भाग 1)

🔷 भगवान की व्यक्तिगत सूरतों को ईश्वर, अल्लाह, हरि, जेंहोवाह, स्वर्गीय-पिता, विष्णु, शिव आदि कहा जाता है।

🔶 वेदान्ती- लोग उन्हें ब्रह्म कहते हैं। हर्वट-स्पेन्सर उन्हें “जो न जाना जा सके” ऐसा कहते हैं। सकोपेन हेनर उन्हें ‘इच्छा’ के नाम से पुकारते हैं। ‘पूर्ण’, ‘पुरुषोत्तम’ आदि नामों से भी कुछ लोग उन्हें पुकारते हैं और स्पिनोजा उन्हें ‘तत्व’ कहकर सम्बोधन करते हैं।

🔷 भगवान को पहचानने में, धर्म में, विश्वास और उनकी पूजा में निष्ठा होनी चाहिये। यह विषय किसी गोष्ठी या क्लब में बैठ कर बहस करने का नहीं है। यह तो सत्य-आत्म की प्राप्ति का विषय है। यह मानव की सबसे गहरी आवश्यकता की पूर्ति है।

🔶 अतः अपने जीवन को उच्च बनाने के लिये धर्म की शरण लो। उसकी प्राप्ति के लिये प्रति-क्षण उद्योग करो और प्रत्येक पल धार्मिक बनने के लिये जीवित रहो। बिना धर्म के जीवन से मृत्यु बहुत अच्छी है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्री स्वामी शिवानन्दजी सरस्वती
📖 अखण्ड-ज्योति 1946 नवम्बर पृष्ठ 5

👉 गुरुगीता (भाग 112)

👉 गुरू भक्ति की सिद्धि सर्वोपरि, सबसे बड़ी

🔷 गुरूगीता गुरूभक्त शिष्यों के लिए कल्पतरू है। इसकी छाँव तले सांसारिक सुख- सम्पदाएँ, आध्यात्मिक ऐश्वर्य, मोक्ष सभी कुछ मिलता है। गुरूगीता के सविधि अनुष्ठान से बड़े से बड़े दुस्तर संकट कटते हैं। असहनीय पीड़ाओं से छुटकारा मिलता है। श्रद्धा हो, शिष्यत्व हो, सद्गुरू का आश्रय हो, तो गुरूगीता से असम्भव- सम्भव बन पड़ते हैं। विन्घ- बाधाएँ सांसारिक हों या आध्यात्मिक गुरूगीता से सभी का निराकरण ,समाधान सम्भव है। इसी कारण सभी महासिद्धों, सत्पुरूषों ने इसे चमत्कारों का सारभूत पुंज कहा है। जो इसका आश्रय लेते हैं, उनके जीवन में निराशाएँ हटती हैं एवं आशाओं की किरणें झिलमिलाती हैं।

🔶 गुरूगीता के पिछले क्रम में इसी सत्य की सार प्रस्तुति की गयी है। भगवान् सदाशिव ने गुरूगीता के मर्म को बताने के साथ भगवती जगदम्बा को अनुष्ठान में आसन की महिमा से अवगत कराया है। शिव वचनों के अनुसार वस्त्रासन पर साधना करने से दरिद्रता आती है। पत्थर पर साधना करने से रोग होते हैं। धरती पर बैठकर साधना करने से दुःख होते हैं, काष्ठासन पर की गयी साधना निष्फल होती है। जबकि काले हरिण के चर्म पर साधना करने से ज्ञान मिलता है, व्याघ्र चर्म पर की गयी साधना मोक्षदायक है। कुश का आसन ज्ञान को सिद्ध करता है, जबकि कम्बल पर बैठकर साधना करने से सर्वसिद्धियाँ मिलती हैं। इस कथन के साथ ही भगवान् भोलेनाथ का उपदेश यह है- अपना कल्याण चाहने वाले साधक को गुरूगीता का अनुष्ठान कुश, दूर्वा अथवा श्वेत कम्बल के आसन पर बैठकर करना उचित है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 169

👉 कष्टों का निवारण (भाग 1)

🔶 ‘अखंड ज्योति’ के पाठकों में से अनेकों को कई प्रकार के शारीरिक तथा मानसिक कष्ट होंगे। बाहरी परिस्थितियाँ विपरीत होने या दूसरों के आक्रमण से चिन्तित होंगे। कइयों को भाग्य और ईश्वर से शिकायत होगी। कुछ घर वालों, मित्रों और अफसरों के व्यवहार से असंतुष्ट होंगे। वे यथा साध्य इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए प्रयत्न किया करते हैं। परन्तु फल कोई संतोषजनक नहीं होता। कठिनाइयाँ ज्यों की त्यों बनी रहती हैं।

🔷 इस समस्या पर विचार करने के लिए कुछ गहरा उतरना होगा। गहरा अन्वेषण करने पर पता चलता है कि बाह्य परिस्थितियों की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। वे आन्तरिक परिस्थितियों की छाया मात्र हैं। मनुष्य का बीज रूप वास्तविक जीवन, उसका आन्तरिक जीवन है। जैसा बीज होगा वैसा पौधा उगेगा, जैसी इच्छा होगी वैसा फल मिलेगा। विचार बीज है और परिस्थितियाँ उनके फल। पत्ते-पत्ते को सींचने पर भी जिस प्रकार सूखा हुआ पेड़ हरा नहीं होता उसी प्रकार बाहरी दुख शोकों को दूर करने के तात्कालिक उपाय करने पर भी उनकी जड़ नहीं कटती। तात्कालिक सहायता के बल पर क्षणिक शाँति मिल सकती है परन्तु जो रोग की पूरी चिकित्सा चाहते हैं उन्हें मूल कारण को तलाश करना पड़ेगा। मुरझाये हुए वृक्ष को हरा करने के लिए उसकी जड़ों का निरीक्षण करना होगा और खाद पानी द्वारा वहीं सिंचन करना पड़ेगा।

🔶 मानस तत्व वेत्ता जानते है कि कर्म भोग को छोड़ कर परिस्थितियाँ अपने आप नहीं आती वरन् वे जान-बूझ कर बुलाई जाती हैं। इसमें आश्चर्य की कुछ भी बात नहीं है। आप के कपड़ों पर गंदगी लगी होगी तो मक्खियाँ भिनभिनाएंगी, साफ होंगे तो वे पास भी नहीं फटकेंगी। नाली में यदि कीचड़ सड़ेगी तो कीड़े पैदा होंगे अन्यथा कुछ भी खराबी न होगी। मन की इच्छाओं की जब पूर्ति नहीं होती तभी दुख होता है। यदि जरूरतें ही कम रखी जायें तो दुख किस बात का? मन बहुत-सी चीजें माँगता है और वह नहीं मिल पातीं तो क्षोभ उत्पन्न होता है। उस अभाव की पूर्ति के लिए पाप कर्म किये जाते हैं। और पापों का निश्चित परिणाम दुख है। दूसरी बात यह भी है कि विचार अपने अनुकूल परिस्थितियों को ही आकर्षित करते हैं। जो भिखारी दो सेर आटा पाने की ही अन्तिम इच्छा करता है वह राजा नहीं हो सकता। महत्वाकाँक्षी ही महत्व को प्राप्त करते हैं। सेनापति होने का स्वप्न देखने वाला नेपोलियन ही एक महान विजेता हो सका था।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1940 जुलाई पृष्ठ 2

👉 Awakening Divinity in Man (Part 3)

🔶 The cultivation of these noble qualities has allowed great people to accomplish what sounds impossible for a normal human being. With the growth of divinity in personality, anybody can reach great heights of glory in the worldly as well as spiritual domains. It is only the adept usage of your virtues that is important; it does not matter whether they are used in the spiritual or material field. Your qualities, deeds and nature are sources of power in themselves. Where and how use them depends entirely upon your will.

🔷 Success is earned by determined courage. Courageous temper is a spiritual quality. A yogi accomplishes devout endeavours with its support; tantriks and great personalities also achieve grand successes because of their extraordinary courage. Everyone needs it for attempting and succeeding in something (significant), even if he is a dacoit or a terrorist. If you are a yogi, you will be able to perform difficult yoga practices with the backing of your inner valour. If you are a leader, a reformer, then also you will progress as per your courageous zeal. It is a divine quality by origin.

🔶 You may use it the way you want, it is up to you. What is noteworthy or specific in a person is the effect of his inner qualities. If deities bestow something upon someone, it will always be the wealth of virtuous qualities, virtuous potentials. Goddess Gayatri, whom you pray and worship through anusthanas , will also endow you with divine qualities. What will happen with the virtues (you acquire)? Well, virtuous qualities and potentials can bring you all that you want. Whether materialistic or spiritual, whenever someone has gained success it has been based on his virtuous potentials and talents only. Without the qualities of character and efficiency one cannot gain anything worthwhile – neither worldly nor spiritual.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 आप तुनकमिज़ाज तो नहीं हैं? (भाग 2)

🔶 उदाहरणार्थ कल्पना करें कि आप किसी कार्यालय में एकाउन्टेन्ट हैं। आपसे भूल हो गई। यदि आपका अफसर आपको एकान्त में बुलाकर कहे “मिस्टर! ऐसी भूल से हमारी और आपकी दोनों ही की बदनामी है तथा कार्य में भी हानि होती है। हो गया सो हो गया। भविष्य में अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है” तो इसका प्रत्यक्ष परिणाम यह होगा कि ‘अनायास ही आपके मुख से निकल पड़ेगा। जी हाँ! श्रीमन्! मुझे अपनी भूल पर खेद है। भविष्य में ऐसा अवसर दोबारा नहीं आयेगा।” और निस्सन्देह आपका सतत् प्रयास रहेगा कि कोई भूल न हो। किन्तु इसके विपरीत, यदि वह अवसर आपके साथी क्लर्क आदि के सम्मुख ही आपको फटकारे और कहे कि—आपने क्यों ऐसी भूल की? अब मैं तुम्हारी रिपोर्ट करता हूँ।” आदि आदि। तो आपको अपनी भूल पर पश्चाताप करना तो दूर रहा, उल्टे उस अवसर के ही दोष नजर आने लगेंगे। आपका सुधरना तो काफी दूर की बात रही। अतएव स्पष्ट है कि जितना प्रभाव समझाने बुझाने का पड़ता है उतना चीखने चिल्लाने व डाट डपटने का कदापि नहीं पड़ता। डाटना डपटना ही यदि अनिवार्य हो तो एकदम एकान्त में होना चाहिए न कि सबके सामने।

🔷 जहाँ तक दूसरों के दोष ढकने का प्रश्न है, इस संसार में कोई भी व्यक्ति निर्दोष नहीं है। वह तो अभी होना है। तब तक हमें दूसरों के दोष ढूंढ़ने की बुरी प्रवृत्ति को दूर करना चाहिये। किसी की भूल को सम्मुख उसे बताकर उसे ठीक कराना असम्भव ही है इसके दो प्रभाव अवश्य पड़ते हैं। एक तो दूसरों को बुरा लगता है और उसका जी दुखता है तथा दूसरे वे बिना बताये ही आपके शत्रु बन जाते हैं।

🔶 चिड़चिड़े स्वभाव के व्यक्ति आसानी से मिल सकते हैं जिनमें सहनशीलता नाममात्र को भी नहीं होती। जहाँ कोई बात अपने मन के विरुद्ध हुई बस बिगड़ पड़ेंगे। ऐसे व्यक्ति को झूठ मूठ ही बहकाकर विनोद किया जा सकता है। वह कभी भी प्रसन्न चित्त दिखाई नहीं पड़ता। कमरे में कहीं गन्दगी पड़ी रह गई तो नौकर पर फटकारों की वर्षा की जा रही है। बच्चे मेज पर रखे हुए कागजात को यदि थोड़ा−बहुत इधर उधर कर गये तो न केवल उनकी, वरन् उनकी माँ तक की खैर नहीं। ऐसे तुनकमिज़ाजी व्यक्ति न स्वयं सुख से रह पाते हैं और न उनके सम्बन्धित तथा संपर्क में आने वाले। सब कुछ होते हुए भी उनके लिए, इस संसार में, कुछ नहीं है।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति, फरवरी 1955 पृष्ठ 18
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1955/February/v1.18

👉 शक्ति संचय के पथ पर (अन्तिम भाग)

🔶 क्षमा वीरों का धर्म है, अशक्तों का नहीं। जो पूर्ण स्वस्थ है उसके लिए खीर, पुआ मोहनभोग, घी, रबड़ी का सेवन लाभदायक है पर जो रोग से चारपाई पे रहा है, उठकर खड़े होने की शक्ति जिसमें नहीं, उसके लिए वे पौष्टिक पदार्थ लाभदायक नहीं है, उसके लिए तो वे अहित कर परिणाम ही उपस्थित करेंगे। वे निर्बल जो अपने न्यायोचित अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकते, अपनी आत्म रक्षा में सफल नहीं होते, यदि शान्ति और क्षमा की रट लगाते हैं तो समझना चाहिए कि अपनी निर्बलता और कायरता छिपाने का एक थोथा बहाना ढूँढ़ते हैं। मुकाबला करने को धर्म ग्रन्थों और राजकीय कानूनों का समर्थन प्राप्त है।

🔷 हमें अपनी दुर्गति को रोकना है तो बकरी की स्थिति से ऊँचा उठना होगा। किसी पर आक्रमण करने का किसी को सताने का उद्देश्य कदापि न रखते हुए भी आत्मरक्षा के लिए हमें शक्ति सम्पन्न बनना चाहिए आतताइयों के आक्रमण का मुँह तोड़ उत्तर देने की क्षमता हमारे अन्दर जैसे उत्पन्न होती जायगी वैसे ही वैसे अकारण सिर के ऊपर टूटते रहने वाले अनर्थों से छुटकारा मिलने लगेगा।

🔶 अंग्रेजी की एक कहावत है कि शक्ति का प्रदर्शन, शक्ति के प्रयोग को रोकता है। जिसके पास शक्ति होती है उसको उसका प्रयोग बहुत कम करना पड़ता है उसका परिचय पाकर ही दुष्ट लोग दहल जाते हैं और दुष्टता का दुस्साहस करने की हिम्मत नहीं पड़ती। पर जहाँ वह निधड़क होते हैं कि न तो हमारे आक्रमण का मुकाबला किया जायगा और न पीछे कोई दण्ड मिलेंगे वहाँ उनकी दुष्टता नंगे रूप में नाचने लगती है। ऐसी विषम स्थिति से बचने का एक मात्र उपाय शक्ति का परिचय देना ही है। बकरे की माँ कब तक दुआ माँगती रहेगी निर्बल की रक्षा बातूनी जमा खर्च से नहीं हो सकती।

🔷 धन कमाने और धर्म चर्चा करने की ओर आज हमारे समाज की प्रवृत्तियाँ विशेष रूप से हैं पर यह दोनों कार्य भी तब तक ठीक प्रकार नहीं हो सकते, जब तक अमन चैन का वातावरण न हो। अशान्त वातावरण का कारण शक्ति सन्तुलन का बिगड़ जाना है। इसे ठीक किये बिना जीवन की कोई दिशा स्थिर नहीं रह सकती, आज समय का तकाजा है कि हम अपनी निर्बलता और कायरता को निकाल फेंके। संगठन करें, शारीरिक बल बढ़ावें, आत्मरक्षा के लिए लाठी आदि की शिक्षा प्राप्त करें और मुसीबत के समय एक दूसरे की सहायता करते हुए आततायियों के आक्रमण को विफल बनाने की तैयारी करें। हम आत्मरक्षा के साधनों से जब सुसज्जित हो जायेंगे तभी बकरी की स्थिति से छुटकारा पा सकेंगे। बाहर से और भीतर से होने वाले आक्रमण से बचने के लिए शक्ति संचय के पथ पर अग्रसर होना चाहिए। शक्ति से ही शान्ति स्थापित होती है।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड-ज्योति 1946 नवम्बर पृष्ठ 4
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1946/November/v1.4

👉 गुरुगीता (भाग 111)

👉 साधना से सिद्धि में आसन व दिशा का भी महत्त्व

🔶 गुरूगीता के इन मंत्रों की रहस्य वाणी उनके लिए अति उपयोगी है, जो साधना विज्ञान पर विशेष अनुसंधान के उत्सुक हैं। इसकी वैज्ञानिकता को वे अपने प्रयोगों से चरितार्थ कर सकते हैं। इस संदर्भ में महाराष्ट्र के संत वामन पण्डित का प्रसंग बड़ा ही मर्मस्पर्शी है। वामन पण्डित समर्थ रामदास के समकालीन थे। इनका जन्म बीजापुर में हुआ था एवं विद्याध्ययन काशी में। काशी में रहते ही भगवान् विश्वनाथ की कृपा से इनकी साधना रूचि तीव्र हुई। परन्तु साधना की तीव्र इच्छा के बावजूद इनका संकल्प बार- बार टूट जाता था। मन भी सदा अशान्त रहता। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें? कई बार तो ये अपनी स्थिति से इतना खिन्न हो जाते कि अंतस् हताशा से भर जाता। मन सोचता कि जो जीवन उद्देश्य प्राप्ति में निरर्थक है, उसे रखकर ही क्या करें। इस निराशा के कुहासे में कोई मार्ग न सूझता था। जप तो करते, पर मन न लगता, साधना बार- बार भंग हो जाती। लिए गये संकल्प दीर्धकाल न चल पाते। एक- दो दिन में ही इनकी इतिश्री हो जाती। कुछ प्रारब्ध भी विपरीत था और कुछ निराशा का असर इनका शरीर भी रोगी रहने लगा। आखिर एक दिन इनका धैर्य विचलित हो गया और इन्होंने सोचा कि आज अपने आपको माँ गंगा में समर्पित कर देंगे।

🔷 इस निश्चय के साथ ही वे गंगा के मणिकर्णिका घाट पर आ विराजे। बस, अंधकार की प्रतीक्षा थी कि अँधेरा हो और चुपके से देह का विसर्जन कर दें। अपने इन चिंतन में डूबे वे भगवान् से प्रार्थना कर रहे थे- हे प्रभो! मैं चाहकर भी इस देह से तप न कर सका। हे प्रभु ! अगले जन्म में ऐसा शरीर देने की कृपा करना, जो साधना करने में समर्थ हो। ऐसा मन देना हे मेरे स्वामी ! जिसकी वृत्तियाँ तप में विध्नकारी न हों। श्री वामन पण्डित अपनी प्रार्थना के इन्हीं भावों में लीन थे। उनकी आँखों से निरन्तर अश्रुपात हो रहा था। सूर्यास्त कब अँधेरे में बदल गया, उन्हें पता ही न चला। उनकी चेत तो तब आया, जब एक वृद्ध संन्यासी ने उन्हें सचेत किया।

🔶 उन संन्यासी महाराज के चेताने से इनकी आँखें खुलीं। आँखें खुलने पर इन्होंने देखा कि उन वयोवृद्ध संन्यासी का दाया हाथ इनके सिर पर था और वे कह रहे थे कि धैर्य रखो वत्स ! साधना में बाधाएँ आना स्वाभाविक है, पर तुम्हें परेशान होने की आवश्यकता नहीं है। मैं तुम्हें बीजमंत्र का उपदेश देता हूँ। इसका नियमित जप करो। परन्तु यह जप तुम्हें कुश के आसन पर बैठकर उत्तर दिशा की ओर मुख करके करना होगा। इस तरह से जप करने से न केवल तुम्हें शान्ति मिलेगी, बल्कि ज्ञान की प्राप्ति भी होगी। श्री वामन पण्डित ने उन संन्यासी महाराज के निर्देश के अनुसार साधना प्रारम्भ की। शीघ्र ही उनकी साधना सिद्धि में बदल गयी। उन्होंने अध्यात्म तत्त्व पर अनेक ग्रंथों का सृजन किया। अंतस् के सभी विक्षेप स्वतः ही गहन शान्ति में बदल गये। उन्हें साधना के उपचार की महत्ता के साथ गुरू के महत्त्व का बोध हो गया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 167

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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