दुर्भावनापूर्ण व्यक्ति अपने निजी सुख के लिये कुछ ऐसे काम भी करने की कामना कर सकता है जो शासन तथा समाज की दृष्टि में अवांछनीय हों। दुर्भावनायें प्रायः होती ही समाज विरोधिनी हैं। ऐसी दशा में जब वह दण्ड के भय से उन्हें नहीं कर पाता तो मन ही मन दुःखी होता रहता है और उसके पाले हुये अविचारों के अतृप्त प्रेत उसे प्रति क्षण पीड़ा देते रहते हैं। अविचारी का अपना कोई मित्र नहीं होता। सारा मानव समाज ऐसे व्यक्ति से घृणा किया करता है और ऐसी दशा में किसी का दुःखी न होना किस प्रकार सम्भव हो सकता है?
इसके विपरीत जो व्यक्ति सद्भावना पूर्ण है, जिसके हृदय में दूसरों के लिये हितकर भाव है, जो सबको अपना समझता है, सबके हित में अपना हित मानता है, वही डाह तथा ईर्ष्या द्वेष से सर्वथा मुक्त रहता है। जिसका हृदय स्वच्छ है, निर्मल है उसके हृदय में मलीनताजन्य कीटाणु उत्पन्न ही न होंगे। निर्विकार हृदय व्यक्ति को न ईर्ष्या के सर्प डसते हैं और न डाह के बिच्छू डंक मारते हैं। वह सदा सुखी तथा प्रसन्न रहता है।
सबके प्रति सद्भावना रखने वाला बदले में सद्भावना ही पाता है जो उसे सब प्रकार से शीतल और शांत रखती है। सब के हित में अपना हित देखने वाला प्रत्येक के अभ्युदय से प्रसन्न ही होता है। दूसरों की उन्नति में सहायता करता है और बदले में सहयोग पाकर सुखी वह सन्तुष्ट होता है। दुर्भावना तथा सद्भावना रखने वाले दो व्यक्तियों की स्थिति में वही अन्तर रहता है जो विष से मरणासन्न और अमृत से परितृप्त तथा प्रसन्न व्यक्ति में।
सुख की अत्यधिक चाह भी दुःख का कारण है। हर समय हर क्षण तथा हर परिस्थिति में सुख के लिये लालायित रहना एक निकृष्ट हीन भावना है। इस क्षण-क्षण परिवर्तनशील तथा द्वन्द्वात्मक संसार में हर समय सुख कहां? जो सम्भव नहीं उसकी कामना करना असंगत ही नहीं अबुद्धिमत्ता भी है। दुःख उठाकर ही सुख पाया जा सकता है। साथ ही दुःख के अत्यन्ताभाव में सुख का कोई मूल्य महत्व भी नहीं है। विश्रांति के बाद ही विश्राम का मूल्य है। भूख प्यास से विकल होने पर ही भोजन का स्वाद है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य