सोमवार, 25 मई 2020

👉 Man Ka Samadhan मन का समाधान

उपासना का अर्थ मात्र देवालय बना देना नहीं है। वैसा जीवन भी जीना होता है, तभी वह सफल है।

चित्रगुप्त अपनी पोथी के पृष्ठों को उलट रहे थे। यमदूतों द्वारा आज दो व्यक्तियों को उनके सम्मुख पेश किया गया था। यमदूतों ने प्रथम व्यक्ति का परिचय कराते हुए कहा, “यह नगर सेठ हैं। धन की कोई कमी इनके यहाँ नहीं। खूब पैसा कमाया है और समाज हित के लिये धर्मशाला, मन्दिर, कुआँ और विद्यालय जैसे अनेक निर्माण कार्यों में उसका व्यय किया है।” अब दूसरे व्यक्ति की बारी थी। उसे यमदूत ने आगे बढ़ाते हुए कहा, "यह व्यक्ति बहुत गरीब है। दो समय का भोजन जुटाना भी इसके लिए मुश्किल है।

एक दिन जब ये भोजन कर रहे थे, एक भूखा कुत्ता इनके पास आया। इन्होंने स्वयं भोजन न कर सारी रोटियाँ कुत्ते को दे दीं। स्वयं भूखे रहकर दूसरे की क्षुधा शान्त की। अब आप ही बतलाइये कि इन दोनों के लिये क्या आज्ञा है?" चित्रगुप्त काफी देर तक पोथी के पृष्ठों पर आँखें गड़ाये रहे। उन्होंने बड़ी गम्भीरता के साथ कहा-धनी व्यक्ति को नरक में और निर्धन व्यक्ति को स्वर्ग में भेजा जाये।"

चित्रगुप्त के इस निर्णय को सुनकर यमराज और दोनों आगन्तुक भी आश्चर्य में पड़ गये। चित्रगुप्त ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा-धनी व्यक्ति ने निर्धनों और असहायों का बुरी तरह शोषण किया है। उनकी विवशताओं का दुरुपयोग किया है और उस पैसे से ऐश और आराम का जीवन व्यतीत किया। यदि बचे हुये धन का एक अंश लोकेषणा की पूर्ति हेतु व्यय कर भी दिया, तो उसमें लोकहित का कौन सा कार्य हुआ?

निर्माण कार्यों के पीछे यह भावना कार्य कर रही थी कि लोग मेरी प्रशंसा करें, मेरा यश गायें। गरीब ने पसीना बहाकर जो कमाई की, उस रोटी को भी समय आने पर भूखे कुत्ते के लिए छोड़ दी। यह साधन-सम्पन्न होता, तो न जाने अभावग्रस्त लोगों की कितनी सहायता करता? पाप और पुण्य का सम्बन्ध मानवीय भावनाओं से है, क्रियाओं से नहीं। अतः मेरे द्वारा पूर्व में दिया गया निर्णय ही अंतिम है।" सबके मन का समाधान हो चुका था।

अखण्ड ज्योति – अक्टूबर 1995 पृष्ठ 32

👉 Prem Aur Permeshwar प्रेम और परमेश्वर

प्रत्येक प्राणी में परमात्मा का निवास है। इस घट-घट वासी परमात्मा का जो दर्शन कर सके समझना चाहिए कि उसे ईश्वर का साक्षात्कार हो चुका। प्राणियों की सेवा करने से बढ़कर दूसरी ईश्वर भक्ति हो नहीं सकती। कल्पना के आधार पर धारणा-ध्यान द्वारा प्रभु को प्राप्त करने की अपेक्षा सेवा-धर्म अपना कर इसे साकार ब्रह्म-अखिल विश्व को सुन्दर बनाने के लिए संलग्न रहना-साधना का श्रेष्ठतम मार्ग है। अमुक भजन ध्यान से केवल ईश्वर को ही प्रसन्नता हुई या नहीं? इसमें सन्देह हो सकता है, पर दूसरों को सुखी एवं समुन्नत बनाने के लिए जिसने कुछ किया है उसे आत्म-सन्तोष, सहायता द्वारा सुखी हुए जीवों का आशीर्वाद और परमात्मा का अनुग्रह मिलना सुनिश्चित है।

प्रेम से बढ़कर इस विश्व में और कुछ भी आनन्दमय नहीं है। जिस व्यक्ति या वस्तु को हम प्रेम करते हैं वह हमें अतीव सुन्दर प्रतीत होने लगती है। इस समस्त विश्व को परमात्मा का साकार मान कर उसे अधिक सुन्दर बनाने के लिए यदि उदार बुद्धि से लोक मंगल के कार्यों में निरत रहा जावे तो यह ईश्वर के प्रति तथा उसकी पुण्य वृत्तियों के प्रति प्रेम प्रदर्शन करने का एक उत्तम मार्ग होगा। इस प्रकार की हुई ईश्वर उपासना कभी भी व्यर्थ नहीं जाती। इसकी सार्थकता के प्रमाणस्वरूप तत्काल आत्मसन्तोष मिलता है। श्रेय की भावनाओं से ओत-प्रोत उदार हृदय ही स्वर्ग है। जिसे स्वर्ग अभीष्ट हो उसे अपना अन्तःकरण प्रेम और सेवा धर्म से परिपूर्ण बना लेना चाहिए।

ऋषि तिरुवल्लुवर
अखण्ड ज्योति जुलाई 1964 पृष्ठ 1


http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1964/July/v1.3

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