सोमवार, 25 मार्च 2019

👉 तैरिये यही जीवन है:-

एक दिन एक लड़का समुद्र के किनारे बैठा हुआ था। उसे दूर कहीं एक जहाज लंगर डाले खड़ा दिखाई दिया। वह जहाज तक तैर कर जाने के लिए मचल उठा। तैरना तो जानता ही था, कूद पड़ा समुद्र में और जहाज तक जा पहुंचा।

उसने जहाज के कई चक्कर लगाए। विजय की खुशी और सफलता से उसका आत्मविश्वास और बढ़ गया लेकिन जैसे ही उसने वापस लौटने के लिए किनारे की तरफ देखा तो उसे निराशा होने लगी। उसे लगा कि किनारा बहुत दूर है।

वह सोचने लगा, वहां तक कैसे पहुंचेगा? हाल में मिली सफलता के बाद अब निराशा ऐसी बढ़ रही थी कि स्वयं पर अविश्वास-सा हो रहा था। जैसे-जैसे उसके मन में ऐसे विचार आते रहे, उसका शरीर शिथिल होने लगा। फुर्तीला होने के बावजूद बिना डूबे ही वह डूबता-सा महसूस करने लगा ।

लेकिन जैसे ही उसने संयत होकर अपने विचारों को निराशा से आशा की तरफ मोड़ा, क्षण भर में ही जैसे कोई चमत्कार होने लगा। उसे अपने भीतर त्वरित परिवर्तन अनुभव होने लगा। शरीर में एक नई ऊर्जा का संचार हो गया। वह तैरते हुए सोच रहा था कि किनारे तक न पहुंच पाने का मतलब है, मर जाना और किनारे तक पहुंचने का प्रयास है, डूब कर मरने से पहले का संघर्ष।

इस सोच से जैसे उसे कोई संजीवनी ही मिल गई। उसने सोचा कि जब डूबना ही है तो फिर सफलता के लिए संघर्ष क्यों न किया जाए।

उसके भीतर के भय का स्थान विश्वास ने ले लिया। इसी संकल्प के साथ वह तैरते हुए किनारे तक पहुंचने में सफल हो गया। इस घटना ने उसे जीवन की राह में आगे चल कर भी बहुत प्रेरित किया। यही लड़का आगे चल कर विख्यात ब्रिटिश लेखक मार्क रदरफोर्ड के नाम से जाना गया।

👉 ईश्वर प्राप्ति कठिन नहीं, सरल है।

ईश्वर की प्राप्ति सरल है क्योंकि वह हमारे निकटतम है। जो वस्तु समीप ही विद्यमान है, उसे उपलब्ध करने में कोई कठिनाई क्यों होनी चाहिए? ईश्वर इतना निष्ठुर भी नहीं है जिसे बहुत अनुनय विनय के पश्चात् ही मनाया या प्रसन्न किया जा सके। जिस करुणामय प्रभु ने अपनी महत्ती कृपा का अनुदान पग-पग पर दे रखा है, वह अपने किसी पुत्र को अपना साक्षात्कार एवं सान्निध्य प्राप्त करने में वंचित रखना चाहे, उसकी आकाँक्षा में विघ्न उत्पन्न करे वह हो ही नहीं सकता।

हमारे और ईश्वर के बीच में संकीर्णता एवं तुच्छता का एक छोटा-सा पर्दा है। जिसे माया का अज्ञान कहते हैं- प्रभु प्राप्ति में एक मात्र अड़चन यही है। इस अड़चन को दूर कर लेना ही विविध आध्यात्म साधनाओं का उद्देश्य है। तृष्णा और वासनाओं के तूफान में मनुष्य की आध्यात्मिक आकाँक्षाएं धूमिल हो जाती हैं। अस्तु वह जीवन-निर्माण एवं आत्म-विकास के लिए न तो ध्यान दे पाता है और न प्रयत्न कर पाता है। आज के तुच्छ स्वार्थों में निमग्न लोभी मनुष्य भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए तत्पर नहीं होता। अहंकार और अदूरदर्शिता को यदि छोड़ा जा सके, अपने-पन का दायरा बड़ा बनाकर यदि लोक हित को अपना हित मानने का साहस किया जा सके तो इतने- से ही ईश्वर प्राप्ति हो सकती है। ओछी आकाँक्षाएँ और संकीर्ण कामनाओं से ऊँचे उठकर यदि इस विशाल विश्व में अपनी आत्मा का दर्शन किया जा सके-औरों को सुखी बनाने के लिये भी यदि आत्म-सुख की तरह प्रयत्नशील रहा जा सके तो ईश्वर की प्राप्ति किसी को भी हो सकती है कठिन आत्म-चिन्तन ही ईश्वर साक्षात्कार नहीं।

महर्षि रमण
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1964 पृष्ठ 1

👉 आज का सद्चिंतन 25 March 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 25 March 2019


👉 Amrit Chintan

■ Try to visualize your own thoughts of mind. Analyze them. It’s most sacred form is covered by some evil and polluted coats. Try to work on them. You will be able to find the sacred component and an eternal peace in it. It is something like water; any pollution in water can be separated out as it is always outside the molecule of water. H2O, the Fractional distillation will always remove pollution and clear colorless, tasteless, odorless, specific gravity on water will be collected by cooked steam. The thoughts should be directed towards God- Who is embodiment of truth and ideality. It needs constant vigilance and practice. This is true divine nature of man. Which is true spirituality, religion is sectism which we have created. 
 
□ The true happiness is in which mind becomes one with soul. Mind is operation of brain and soul is purest form of mind or sacred consciousness. In the language of Yoga that is when mind acts as a soul the God consciousness. This is true yoga. This union of soul and mind is known as highest bliss. Salvation, God realization, ultimate the highest pleasure and bliss beyond any imagination of material pleasure of the world.

◆ We must love our younger and pay our respects and regards to elders. Our attitude can keep your position safe. Every man at the lowest level of society keeps an impression of highest esteem for the self-disrespect of his vices and weakness. A feeling of his own honesty, sacredness, nobility and sincerity always exists in his mind. Really that proves the concept of solid water molecule H2O is always conscious of its purity inside. Remove pollution outside the molecule configuration.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 बढ़ता चल

''एक लकड़हारा जंगल से लकड़ी काटकर किसी प्रकार दु :ख और कष्ट सहते हुए अपने दिन व्यतीत करता था। एक दिन वह जंगल से पतली-पतली लकड़ी सिर पर ला रहा था की अकस्मात् कोई मनुष्य उसी रास्ते सें जाते- जाते उसे पुकार कर बोला- "बच्चा, आगे बढ़ जा।'' दूसरे दिन वह लकड़हारा उस मनुष्य की बात याद कर कुछ आगे बढ़ा तो मोटी- मोटी लकड़ियों का जंगल उसको दीख पड़ा। उस दिन उससे जहाँ तक बना लकड़ी काट लाया और बाजार में बेचकर उसने पहले दिन से अधिक पैसा कमाया। तीसरे दिन फिर मन में विचार करने लगा- "उस महात्मा ने तो मुझे आगे बढ जाने 'को कहा था। भला आज और थोड़ा आगे बढ़कर तो 'देखूं।'' यह सोचकर वह आगे बढ़ गया और उसे एक चन्दन का वन दिखाई पड़ा। उस दिन उसने चन्दन की लकड़ी बेचकर बहुत रुपये कमाये। दूसरे दिन उसने फिर मन में विचार किया कि मुझे तो उन्होंने आगे ही जाने को कहा है, यह विचार कर और आगे जाकर उस दिन उसने तांबे की खान पाई। वह यहाँ पर न रुककर प्रतिदिन आगे ही बढ़ता गया, और क्रमश: चांदी, सोने और हीरे की खान पाकर बड़ा धनवान् हो गया। धर्म मार्ग में भी इसी प्रकार होता है।

''आत्मिक क्षेत्र में आदमी को कभी भी रुकना नहीं चाहिए। उस साधु ने जो आगे बढ़ने की शिक्षा दी थी, उसका मर्म था- रुक मत, चलता जा, जब तक गन्तव्य तक न पहुँच जाय। अपने अन्दर झाँक व तब तक आत्मावलोकन, विश्लेषण, मनन कर जब तक प्रगति की राह न दिखाई पड़े। थोड़ी- बहुत ज्योति आदि का दर्शन कर यह मत समझो कि तुम्हें सिद्धि मिल गयी, मोक्ष प्राप्त हो गया। इस सम्बन्ध में सन्त कबीर का कथन सही है-

कस्तूरी कुण्डल बसे, मृग दूँढ़े वन माँहि। ऐसे सट- सट राम हैं, दुनियाँ देखे नाँहि।
तेरा साईं तुझ्झ में, जस पुहुपन  में वास। कस्तूरी का हिरण ज्यों, फिर- फिर ढूँढ़त घास।
आत्मावलम्बी किसी अनुग्रह, वरदान की प्रतीक्षा नहीं करते, न ही याचना। वरन् प्रगति का पथ स्वयं बनाते है, अपनी सहायता आप करते है।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग 1

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1) श्लोक 63 से 64

उवाच नारदो देव ! वाच्य: श्राव्यस्लयं मत:।
ज्ञानपक्ष: पूरकं तं कर्मपक्षं विवोधय॥६३॥
कर्त्तव्यं यद्यदन्यैश्चाप्यनुष्ठेयं, समग्रता ।
उत्पद्यते द्वयोर्ज्ञानकर्मणोस्तु समन्वयात्॥६४॥

टीका- नारद बोले-'यह ज्ञान पक्ष हुआ, जिसे कहा या सुना जाता है। अब इसका पूरक कर्मपक्ष बताइये, जो करना और कराना पड़ेगा। ज्ञान और कर्म के समन्वय से ही समग्रता उत्पन्न होती है ॥६३-६४॥'

व्याख्या- कोई सिद्धान्त अपने आप में अकेला पूर्ण नहीं। प्रयोगपक्ष जाने बिना सारा ज्ञान अधूरा हैं। फिर क्रिया पक्ष, ज्ञान पक्ष का पूरक है। ब्रह्म ज्ञान-तत्व चिन्तन अपनी जगह है, अनिवार्य भी है, परन्तु उसका व्यवहार पदा जिसे साधना-तपश्चर्या के रूप में जाने बिना एक मात्र मानसिक श्रम और ज्ञान वृद्धि तक ही सीमित रहने से उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी। चिकित्सकों को अध्ययन भी करना होता है एवं व्यावहारिक ज्ञान भी प्राप्त करना होता है। यह समग्रता लाये बिना वे चिकित्सक की पात्रता-पदवी नहीं पाते।

ऐसा अधूरापन अध्यात्म क्षेत्र में बड़े व्यापक रूप में देखने को मिलता है। ब्रह्म की, सद्मुणों की, आदर्शवादिता की चर्चा तो काफी लोग करते पाये जाते हैं परन्तु उसे व्यवहार में उतारने, जीवन का अंग बना लेने वाले कम ही होते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 26

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