किसी समय एक चोर ने न्यायाधीश के समक्ष अपनी चोरी की सफाई देते हुए इस भाँति कहा हुजूर मैंने चोरी तो अवश्य की है, परन्तु सच्चा अपराधी मैं नहीं हूँ। मेरे पड़ोसी ने अपना सोने का चमकदार कंठा दिखाकर मेरे मन को मोहित कर लिया और मुझे उसको चुरा लेने के लिए लाचार किया। अतएव सच्चा अपराधी वही है और सजा उसी को होनी चाहिए। अपराधी की ये बाते सुनकर जज साहब को उसकी युक्ति पर हँसी आ गई उन्होंने अपराधी को एकान्त वास की सजा देकर कहा कि अब तुम्हारा मन लुभाने के लिए तुम्हारे सामने कोई मनुष्य न आवेगा।
यदि सच पूछा जाये तो नैतिक संसार में मनुष्य प्रतिदिन इसी प्रकार की युक्तियों का उपयोग करता रहता है। अमुक मनुष्य मेरे कार्य में बाधा डालता है, अमुख ने मुझसे ऐसी बात कहीं जिससे मुझे क्रोध आ गया, चार आदमियों में बैठते हैं तो लाचार होकर ऐसा काम करना ही पड़ता है-, इत्यादि बातें अपने दोषों को दूसरों के सिर मढ़ने के प्रयत्न नहीं तो क्या हैं?
कितना अच्छा हो यदि मनुष्य कोई अपराध करने के साथ ही उसे स्वीकार करने में आना-कानी न करे। नैतिक उन्नति की सबसे पहली सीढ़ी यही है कि मनुष्य अपने अपराधों को समझने लगें। हजारों मनुष्य तो बुरे कार्यों को करते रहते और उन बेचारों को रंच मात्र भी खबर नहीं कि ये कार्य वास्तव में बुरे हैं। जिस समय चोर चोरी को सचमुच बुरा समझने लगे उसी समय से जान लो कि अब वह रास्ते पर आ रहा है। परन्तु केवल दिखाऊ मन की इच्छा से अथवा किसी की हाँ में हाँ मिलाने के अभिप्राय से बुरे कार्य बुरा कह देने से कोई नहीं ।
इससे तो उलटी हानि है। कुकार्य से घृणा होने की बात तो दूर रही, ऐसा करने से तो उसने अपने आपको ही ठगा कहना चाहिए। प्रवंचना अथवा मायाजाल इसी का नाम है परन्तु देखा जाता है कि लोक में मनुष्यों ने इसे ही सभ्यता और शिष्टाचार मान रखा है। ऐसे लौकिक व्यवहार की अवहेलना करने से समाज भले ही असंतुष्ट हो जाए, परन्तु उन्नति की इच्छा रखने वाले मनुष्य को इसमें आगा-पीछा न करना चाहिए।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 महात्मा जेम्स ऐलन
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1950 पृष्ठ 9
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1950/April/v1.9
यदि सच पूछा जाये तो नैतिक संसार में मनुष्य प्रतिदिन इसी प्रकार की युक्तियों का उपयोग करता रहता है। अमुक मनुष्य मेरे कार्य में बाधा डालता है, अमुख ने मुझसे ऐसी बात कहीं जिससे मुझे क्रोध आ गया, चार आदमियों में बैठते हैं तो लाचार होकर ऐसा काम करना ही पड़ता है-, इत्यादि बातें अपने दोषों को दूसरों के सिर मढ़ने के प्रयत्न नहीं तो क्या हैं?
कितना अच्छा हो यदि मनुष्य कोई अपराध करने के साथ ही उसे स्वीकार करने में आना-कानी न करे। नैतिक उन्नति की सबसे पहली सीढ़ी यही है कि मनुष्य अपने अपराधों को समझने लगें। हजारों मनुष्य तो बुरे कार्यों को करते रहते और उन बेचारों को रंच मात्र भी खबर नहीं कि ये कार्य वास्तव में बुरे हैं। जिस समय चोर चोरी को सचमुच बुरा समझने लगे उसी समय से जान लो कि अब वह रास्ते पर आ रहा है। परन्तु केवल दिखाऊ मन की इच्छा से अथवा किसी की हाँ में हाँ मिलाने के अभिप्राय से बुरे कार्य बुरा कह देने से कोई नहीं ।
इससे तो उलटी हानि है। कुकार्य से घृणा होने की बात तो दूर रही, ऐसा करने से तो उसने अपने आपको ही ठगा कहना चाहिए। प्रवंचना अथवा मायाजाल इसी का नाम है परन्तु देखा जाता है कि लोक में मनुष्यों ने इसे ही सभ्यता और शिष्टाचार मान रखा है। ऐसे लौकिक व्यवहार की अवहेलना करने से समाज भले ही असंतुष्ट हो जाए, परन्तु उन्नति की इच्छा रखने वाले मनुष्य को इसमें आगा-पीछा न करना चाहिए।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 महात्मा जेम्स ऐलन
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1950 पृष्ठ 9
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