🔷 अस्वस्थ मन वाले व्यक्ति का शरीर स्वस्थ नहीं रह सकता। जिसका मन चिन्ता, भय, शोक, क्रोध, द्वेष, घृणा आदि से भरा रहता है उसके वे अवयव विकृत होने लगते है जिनके ऊपर स्वास्थ्य की आधार शिला रखी हुई है। हृदय, आमाशय, जिगर, आँतें, गुर्दे तथा मस्तिष्क पर मानसिक अस्वस्थता का सीधा असर पड़ता है। निष्क्रियता आती है उनके कार्य की गति मंद हो जाती है, अन्न पाचन एवं शोधन, जीवन कोषों का पोषण ठीक प्रकार न होने से शिथिलता का साम्राज्य छा जाता है।
🔶 पोषण के अभाव से सारा शरीर निस्तेज और थका मादा सा रहने लगता है। जो विकार और विष शरीर में हर घड़ी पैदा होते रहते है, उनकी सफाई ठीक प्रकार न होने से वे भीतर ही जमा होने लगते है। इनकी मात्रा बढ़ने से रक्त में, माँस पेशियों में और नाडियों में विष जमा होने लगता है जो अवसर पाकर नाना प्रकार के रोगों के रूप में फूटता रहता है। ऐसे लोग आये दिन किसी न किसी बीमारी से पीड़ित रहते देखे जाते है। एक रोग अच्छा नहीं होता कि दूसरा नया खड़ा होता है।
🔷 दुश्चिंताऐं जीवन शक्ति को खा जाती है। शरीर के अंदर एक विद्युत शक्ति काम करती है, उसी की मात्रा पर विभिन्न अवयवों की स्फूर्ति एवं सक्रियता निर्भर रहती है। इस विद्युत शक्ति का जितना ह्रास मानसिक उद्वेगों से होता है उतना और किसी कारण से नहीं होता। पन्द्रह दिन लंघन में जितनी जितनी शक्ति नष्ट होती है उससे कही अधिक हानि एक दिन के क्रोध या चिन्ता के कारण हो जाती है।
🔶 जिसका मन किसी न किसी कारण परेशान बना रहता है, जिसे अप्रसन्नता, आशंका तथा निराशा घेरे रहती है उसका शरीर इन्हीं अग्नियों से भीतर ही भीतर घुलकर खोखला होता रहेगा। चिन्ता को चिन्ता की उपमा दी गई है वह अकारण नहीं है। वह एक तथ्य है। चिन्तित रहने वाला व्यक्ति घुल घुलकर अपनी जीवन लीला को समय से बहुत पूर्व ही समाप्त कर लेता है।
📖 अखण्ड ज्योति जून 1961
🔶 पोषण के अभाव से सारा शरीर निस्तेज और थका मादा सा रहने लगता है। जो विकार और विष शरीर में हर घड़ी पैदा होते रहते है, उनकी सफाई ठीक प्रकार न होने से वे भीतर ही जमा होने लगते है। इनकी मात्रा बढ़ने से रक्त में, माँस पेशियों में और नाडियों में विष जमा होने लगता है जो अवसर पाकर नाना प्रकार के रोगों के रूप में फूटता रहता है। ऐसे लोग आये दिन किसी न किसी बीमारी से पीड़ित रहते देखे जाते है। एक रोग अच्छा नहीं होता कि दूसरा नया खड़ा होता है।
🔷 दुश्चिंताऐं जीवन शक्ति को खा जाती है। शरीर के अंदर एक विद्युत शक्ति काम करती है, उसी की मात्रा पर विभिन्न अवयवों की स्फूर्ति एवं सक्रियता निर्भर रहती है। इस विद्युत शक्ति का जितना ह्रास मानसिक उद्वेगों से होता है उतना और किसी कारण से नहीं होता। पन्द्रह दिन लंघन में जितनी जितनी शक्ति नष्ट होती है उससे कही अधिक हानि एक दिन के क्रोध या चिन्ता के कारण हो जाती है।
🔶 जिसका मन किसी न किसी कारण परेशान बना रहता है, जिसे अप्रसन्नता, आशंका तथा निराशा घेरे रहती है उसका शरीर इन्हीं अग्नियों से भीतर ही भीतर घुलकर खोखला होता रहेगा। चिन्ता को चिन्ता की उपमा दी गई है वह अकारण नहीं है। वह एक तथ्य है। चिन्तित रहने वाला व्यक्ति घुल घुलकर अपनी जीवन लीला को समय से बहुत पूर्व ही समाप्त कर लेता है।
📖 अखण्ड ज्योति जून 1961