गुरुवर यदि श्रेष्ठ चाहिए, मिट्टी बनकर गलना होगा,
बनना है यदि सुपात्र तो, गुरु सांचे में ढलना होगा।
मिट्टी को छैनी लगती तो, मन का अहम गल जाता है,
पानी के सानिध्य से ही, एकत्व का भाव फिर आता है,
पात्र बन जाने पर भी, अभी आग में जलना होगा,
बनना है यदि सुपात्र तो, गुरु सांचे में ढलना होगा।
मिट्टी तो मिट्टी होती है, कभी रौंदी, कुचली जाती है,
बार बार पैरों से मिसकर, डंडे से पिटती जाती है,
गुरुवर जब शिष्य परखते, पल पल चोट कराते हैं,
मैं का भाव मिटाने को, कर्तव्य मार्ग में तपाते हैं।
हर कष्ट को सहकर भी, ओस की भांति निखरना होगा
बनना है यदि सुपात्र तो, गुरु सांचे में ढलना होगा।
मिट्टी जब चाक में आती, जीवन युद्ध शुरू होता है,
हाथ सुगढ़ का लग जाए तो, कायाकल्प फिर होता है
गुरुवर बाहर से हमें परखते, अंदर से सम्बल देते हैं
बार बार विपरीतताओं से, हमारी निष्ठा को बल देते हैं
सच्चा शिष्य बनना है तो, चरणों में समर्पण करना होगा,
बनना है यदि सुपात्र तो, गुरु सांचे में ढलना होगा।
इतना तप करने पर भी, कभी अंत में बिखराव आ जाता है
बनते बनते वह सुपात्र, फिर कुपात्र बन जाता है।
जैसे चिलम बन मिट्टी स्वयं जलती, दूजों को जलाती है
इतनी व्यथा सहकर भी सुराही सा यश नहीं पाती है।
निंदा मिले तो सहकर भी, उचित मार्ग पर चलना होगा,
बनना है यदि सुपात्र तो, गुरु सांचे में ढलना होगा।
डॉ आरती कैवर्त 'रितु'
बनना है यदि सुपात्र तो, गुरु सांचे में ढलना होगा।
मिट्टी को छैनी लगती तो, मन का अहम गल जाता है,
पानी के सानिध्य से ही, एकत्व का भाव फिर आता है,
पात्र बन जाने पर भी, अभी आग में जलना होगा,
बनना है यदि सुपात्र तो, गुरु सांचे में ढलना होगा।
मिट्टी तो मिट्टी होती है, कभी रौंदी, कुचली जाती है,
बार बार पैरों से मिसकर, डंडे से पिटती जाती है,
गुरुवर जब शिष्य परखते, पल पल चोट कराते हैं,
मैं का भाव मिटाने को, कर्तव्य मार्ग में तपाते हैं।
हर कष्ट को सहकर भी, ओस की भांति निखरना होगा
बनना है यदि सुपात्र तो, गुरु सांचे में ढलना होगा।
मिट्टी जब चाक में आती, जीवन युद्ध शुरू होता है,
हाथ सुगढ़ का लग जाए तो, कायाकल्प फिर होता है
गुरुवर बाहर से हमें परखते, अंदर से सम्बल देते हैं
बार बार विपरीतताओं से, हमारी निष्ठा को बल देते हैं
सच्चा शिष्य बनना है तो, चरणों में समर्पण करना होगा,
बनना है यदि सुपात्र तो, गुरु सांचे में ढलना होगा।
इतना तप करने पर भी, कभी अंत में बिखराव आ जाता है
बनते बनते वह सुपात्र, फिर कुपात्र बन जाता है।
जैसे चिलम बन मिट्टी स्वयं जलती, दूजों को जलाती है
इतनी व्यथा सहकर भी सुराही सा यश नहीं पाती है।
निंदा मिले तो सहकर भी, उचित मार्ग पर चलना होगा,
बनना है यदि सुपात्र तो, गुरु सांचे में ढलना होगा।
डॉ आरती कैवर्त 'रितु'