शनिवार, 10 दिसंबर 2016

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 11 Dec 2016


👉 आज का सद्चिंतन 11 Dec 2016


👉 सतयुग की वापसी (भाग 6)

🌹 विभीषिकाओं के पीछे झाँकती यथार्थता

🔴 वासना और तृष्णा की खाई इतनी चौड़ी और गहरी है कि उसे पाटने में कुबेर की सम्पदा और इन्द्र की समर्थता भी कम पड़ती है। तृष्णा की रेगिस्तानी जलन को बुझाने के लिए साधन सामग्री का थोड़ा-सा पानी, कुछ काम नहीं करता। अतृप्ति जहाँ की तहाँ बनी रहती है। थोड़े से उपभोग तो उस ललक को और भी तेजी से आग में ईंधन पड़ने की तरह भड़का देते हैं।

🔵 मन के छुपे रुस्तम का तो कहना ही क्या? वह यक्ष राक्षस की तरह अदृश्य तो रहता है, पर कौतुक-कौतूहल इतने बनाता-दिखाता रहता है कि उस व्यामोह में फँसा मनुष्य दिग्भ्रान्त बनजारे की तरह, इधर-उधर मारे-मारे फिरने में ही अपनी समूची चिन्तन क्षमता गँवा-गुमा दे। तृष्णा तो समुद्र की चौड़ाई और गहराई से भी बढ़कर है। उसे तो भस्मासुर, वृत्रासुर, महिषासुर जैसे महादैत्य भी पूरी न कर सके, फिर बेचारे मनुष्य की तो बिसात ही क्या है, जो उसे शान्त करके सन्तोष का आधार प्राप्त कर सके।

🔴 दिग्भ्रान्त मनुष्य अपने आप को शरीर तक सीमित मान बैठा है क्योंकि प्रत्यक्ष तो इतना ही कुछ दीख पड़ता है। मन यद्यपि अदृश्य है, पर वह भी शरीर का एक अवयव है। इसे ग्यारहवीं इन्द्रिय भी कहा जाता है। वासना, तृष्णा इन्हीं दोनों का मिला-जुला खेल है जो अनन्त काल तक चलते रहने पर भी कभी समाप्त नहीं हो सकता। इसी उलझन के भवबन्धनों में बँधा हुआ जीव, चित्र-विचित्र प्रकार के अभाव अनुभव करता, असन्तुलित रहता और उद्विग्नता, चिन्ता, आशंका के त्रास सहता रहता है। आश्चर्य इस बात का है कि अवांछनीय जाल-जंजालों से अपने को उबारने के लिए कुछ करना तो दूर, सोचने तक का मनुष्य प्रयास नहीं कर पाता, उलटे अनाचारों पर उतारू होकर दूसरों को भी वैसा ही करते रहने के लिए उकसाता रहता है, भले ही वह अनर्थ स्तर का ही घृणित क्यों न हो?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 30)

🌹 क्रोध स्वयं अपने लिए ही घातक

🔵 आक्रमण के बदले में क्या दण्ड मिलते हैं? इसे जानते हुए भी वह उस सम्बन्ध में भी विचार नहीं करता और जिसके साथ चाहे जैसा व्यवहार कर बैठता है। एक ही पक्ष पर आरूढ़ रहता है, दूसरे विकल्प का विचार नहीं करता—ऐसा व्यक्ति शत्रुता को देर तक जकड़े रहता है। साधारणतया प्रेम और द्वेष के आवेश कुछ समय में उतर जाते हैं, पर जब घृष्टता चरम सीमा पर होती है तो उसका दुष्प्रयोजन एक निश्चय की तरह जड़ जमा लेता है और अपनी दृष्टि में जिसे भी अपराधी ठहरा लिया है, उससे प्रतिशोध लिए बिना नहीं मानता।

🔴 आमतौर से हत्याकाण्ड ऐसी ही आवेशग्रस्त मनःस्थिति में होते हैं। दूसरा कारण है—लालच। जिस उपाय से कोई बड़ी पूंजी हाथ लगे उसे कर गुजरने में भी निर्भय लोग चूकते नहीं। उसे यह सोचने की क्षमता नहीं होती कि जिसे सताया जा रहा है उस पर क्या बीतेगी? आवेशग्रस्तों की तरह निर्ममता या नृशंसता भी ऐसा ही मनोविकार है जो संवेदना रहित होता है। उसे दूसरों की पीड़ा के प्रति कोई सहानुभूति नहीं होती, वे ऐसे कुकृत्य कर बैठते हैं जिससे अपने राई भर लाभ के लिए दूसरों को भले ही मर्मांत पीड़ा सहनी पड़े।

🔵  यह अपराधी मनोवृत्ति का चिन्ह है जो संगति और सहमति से पनपती है। हत्याओं-अपराधों का साहित्य बाजार में भरा पड़ा है, अपनी शेखी बघारने के लिए क्रूरकर्मी दूसरे के सामने भी अपने कुकृत्यों की बढ़ी-चढ़ी शेखी बघारते हैं और बताते हैं कि उस शौर्य के बदले उनने कितना लाभ उठाया। ऐसे लोगों की संगति से भी आदर्श विहीन लोगों का मन उस ओर ढुलक जाता है और कौतूहलवश ऐसे कुकृत्य करते-करते वे उस व्यवसाय में कसाइयों की भांति नृशंस हो जाते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गृहस्थ-योग (भाग 30)

🌹 गृहस्थ योग के कुछ मन्त्र
🔵 रात्रि को सोने से पूर्व दिन भर के कार्यों पर विचार करना चाहिए।
(1) आज परिवार से सम्बन्ध रखने वाले क्या क्या कार्य किये?
(2) उसमें क्या भूल हुई?
(3) स्वार्थ से प्रेरित होकर क्या अनुचित कार्य किया?
(4) भूल के कारण क्या अनुचित कार्य हुआ
(5) क्या क्या कार्य अच्छे, उचित और गृहस्थ योग की मान्यता के अनुरूप हुए?

🔴 इन पांच प्रश्नों के अनुसार दिन भर के पारिवारिक कार्यों का विभाजन करना चाहिए और आगे से त्रुटियों के सुधार का उपाय सोचना चाहिए।

(1) भूल की तलाश करना
(2) उसे स्वीकार करना,
(3) गलती के लिए लज्जित होना और
(4) उसे सुधारने का सच्चे मन से प्रयत्न करना

🔵 यह चार बातें जिसे पसन्द हैं, जो इस मार्ग पर चलता है, उसकी गलतियां दिन दिन कम होती जाती हैं और वह शीघ्र ही दोषों से छुटकारा पा लेता है।

🔴 गृहस्थ योग की साधना के मार्ग पर चलते हुए साधक के मार्ग में नित नई कठिनाइयां आती रहती हैं। कभी अपनी भूल से, कभी दूसरों की भूल से, ऐसी घटनाएं घटित हो जाती हैं जिनका नियत सिद्धान्त से मेल नहीं खाता। इच्छा रहती है कि अपना हर एक आचरण ठीक रहे, हर प्रक्रिया सिद्धान्तानुकूल हो, परन्तु अक्सर भूलें होती रहती हैं, साधक कुछ दिन तक सोचता है कि दस बीस दिन में या महीने में यह दूर हो जायेगी और मेरी सम्पूर्ण क्रियायें सिद्धान्ताकूल होने लगेंगी, पर जब काफी समय बीत जाता है और तब भी भूलें समाप्त नहीं होती तो चिन्ता, निराशा और पराजय की भावनाएं मन में घूमने लगती हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 43)

🌹 इन कुरीतियों को हटाया जाय

🔵 60. भूत-पलीत और बलि प्रथा— भूत-पलीतों का मानसिक विभ्रम पैदा करके सयाने दिवाने और ओझा लोग भोली जनता का मानसिक और आर्थिक शोषण बुरी तरह करते हैं। मानसिक रोगों, शारीरिक कष्टों एवं दैनिक जीवन में आती रहने वाली साधारण-सी बातों को भूत की करतूत बना कर व्यर्थ ही भोले लोग भ्रमित होते हैं। उस भ्रम का इतना घातक प्रभाव पड़ता है कि कई बार तो उस प्रकार के विश्वास से जीवन-संकट तक उपस्थित हो जाते हैं।

🔴 धर्म-ग्रन्थों में जिन देवी देवताओं का वर्णन है, उनकी संख्या भी पर्याप्त है। पर उतने से भी सन्तोष न करके लोगों ने जाति-जाति के, वंश-वंश के, गांव-गांव के, इतने अधिक देवता गढ़ लिए हैं कि आश्चर्य होता है। उन पर मुर्गे, अण्डे, भैंसे, बकरे, सुअर आदि चढ़ाते हैं। यह कैसी विडम्बना है कि दया और प्रेम लिए बने हुए देवता अपने ही पुत्र—पशु-पक्षियों का खून पीवें।

🔵 हमें एक परमात्मा की ही उपासना करनी चाहिए और इन भूत-पलीतों के भ्रम जंजाल से सर्वथा दूर रहना चाहिए। जन-समाज को भी इससे बचाना चाहिए।

🔴 और भी अनेकों कुरीतियां विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न रूपों में पाई जाती हैं। हानिकारक और अनैतिक बुराइयों का उन्मूलन करना ही श्रेयस्कर है। सभ्य समाज को विवेकशील ही होना चाहिए और इन उपहासास्पद विडम्बनाओं से जल्दी ही अपने को मुक्त कर लेना चाहिए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 13)

🌹 तीन दुःख और उनका कारण

🔵 दुःख तीन प्रकार के होते हैं- (1) दैविक, (2) दैहिक, (3) भौतिक। दैविक दुःख वे कहे जाते हैं, जो मन को होते हैं, जैसे चिंता, आशंका, क्रोध, अपमान, शत्रुता, बिछोह, भय, शोक आदि। दैहिक दुःख होते हैं, जो शरीर को होते हैं, जैसे रोग, चोट, आघात, विष आदि के प्रभाव से होने वाले कष्ट। भौतिक दुःख वे होते हैं, जो अचानक अदृश्य प्रकार से आते हैं, जैसे भूकंप, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, महामारी, युद्ध आदि। इन्हीं तीन प्रकार के दुःखों की वेदना से मनुष्यों को तड़पता हुआ देखा जाता है। यह तीनों दुःख हमारे शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कर्मों के फल हैं। मानसिक पापों के परिणाम से दैविक दुःख आते हैं, शारीरिक पापों के फलस्वरूप दैहिक और सामाजिक पापों के कारण भौतिक दुःख उत्पन्न होते हैं।
         
🔴 दैविक दुःख-  मानसिक कष्ट, उत्पन्न होने के कारण वे मानसिक पाप हैं, जो स्वेच्छापूर्वक तीव्र, भावनाओं से प्रेरित होकर किए जाते हैं, जैसे ईर्ष्या, कृतघ्नता, छल, दंभ, घमण्ड, क्रूरता, स्वार्थपरता आदि। इन कुविचारों के कारण जो वातावरण मस्तिष्क में घुटता रहता है, उससे अंतःचेतना पर उसी प्रकार का प्रभाव पड़ता है, जिस प्रकार के धुएँ के कारण दीवार काली पड़ जाती है या तेल से भीगने पर कपड़ा गंदा हो जाता है। आत्मा स्वभावतः पवित्र है, वह अपने ऊपर इन पाप-मूलक कुविचारों, प्रभावों को जमा हुआ नहीं रहने देना चाहती, वह इस फिक्र में रहती है कि किस प्रकार इस गंदगी को साफ करूँ?

🔵 पेट में हानिकारक वस्तुएँ जमा हो जाने पर पेट उसे कै या दस्त में निकाल बाहर करता है। इसी प्रकार तीव्र इच्छा से, जानबूझ कर किए गए पापों को निकाल बाहर करने के लिए आत्मा आतुर हो उठती है। हम उसे जरा भी जान नहीं पाते, किंतु आत्मा भीतर ही भीतर उसके भार को हटाने के लिए अत्यंत व्याकुल हो जाती है। बाहरी मन, स्थूल बुद्धि को अदृष्य प्रक्रिया का कुछ भी पता नहीं लगता, पर अंर्तमन चुपके ही चुपके ऐसे अवसर एकत्रित करने में लगा रहता है, जिससे वह भार हट जाय। अपमान, असफलता, विछोह, शोक, दुःख आदि यदि प्राप्त होते हों, ऐसे अवसरों को मनुष्य कहीं से एक न एक दिन, किसी प्रकार खींच लाता है, ताकि उन दुर्भावनाओं का, पाप संस्कारों का इन अप्रिय परिस्थितियों में समाधान हो जाय।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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