सोमवार, 19 जून 2023

👉 स्वाध्याय में प्रमाद मत करो। (भाग 1)

जितने सन्त तथा महापुरुष हुए हैं उन्होंने स्वाध्याय की महिमा का गान किया है। हिन्दू शास्त्रों में लिखा है कि ‘स्वाध्याय में प्रमाद नहीं करना चाहिए।’

स्वाध्याय के अर्थ के सम्बन्ध में लोगों में अनेक मतभेद हैं। कुछ लोग पुस्तकें पढ़ने को स्वाध्याय कहते हैं, कुछ लोग खास प्रकार की पुस्तकें पढ़ने को स्वाध्याय कहते हैं। कुछ का कहना है कि आत्म निरीक्षण करते हुए अपनी डायरी भरने का नाम स्वाध्याय है। वेद के अध्ययन का नाम भी कुछ लोगों ने स्वाध्याय रख छोड़ा है। लेकिन इतने अर्थों का विवाद उस समय अपने आप हो समाप्त हो जाता है जब मनुष्य के ज्ञान में उसका लक्ष्य समा जाता है।

स्वाध्याय का विश्लेषण करने वालों ने इसके दो प्रकार से समास किये हैं-

स्वस्यात्मनोऽध्ययनम्- अपना, अपनी आत्मा का अध्ययन, आत्मनिरीक्षण।
स्वयम्ध्ययनम्- अपने आप अध्ययन अर्थात् मनन।

दोनों प्रकार के विश्लेषणों में स्व का ही महत्व है।

प्रति घड़ी प्रत्येक मनुष्य को अपने स्वयं चरित्र का निरीक्षण करते रहना चाहिए कि उसका चरित्र पशुओं जैसा है अथवा सत्पुरुष जैसा। आत्मनिरीक्षण की इस प्रणाली का नाम ही स्वाध्याय है। जितने महापुरुष हुए हैं वे सब इसी मार्ग का अनुसरण करते रहे। उन्होंने स्वाध्याय के इस मार्ग से कहीं भी अपने अन्दर कमी नहीं आने दी बल्कि समस्त कमियों को निकालने और पूर्ण मानव बनने के उद्देश्य से इस मार्ग को ग्रहण किया।

पानी बहता है क्योंकि उसका बहना ही धर्म है। सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र चलते हैं। क्योंकि गति करना, चलना यह उनका स्वभाव है। यदि ये अपने स्वभाव को छोड़ दें, गति हीन हो जावें तो सृष्टि का काम ही रुक जावे। ऐसे ही मानव का स्वाभाविक काम स्वाध्याय है जिस दिन वह स्वाध्याय नहीं करता उसी दिन वह मानवत्व से पतित हो जाता है-

वेद शास्त्रों में श्रम का सब से बड़ा महत्व है। हर एक को कुछ न कुछ श्रम नित्य प्रति करना ही चाहिए। श्रम इसी त्रिलोकी में होता है। भू, भुवः और स्वर्ग लोक ही श्रम का क्षेत्र है। इस श्रम के क्षेत्र में स्वाध्याय ही सबसे बड़ा क्षेत्र है। योग भाष्यकार व्यास का कहना है कि :-

स्वाध्यायाद्योगमासीत योगात्स्वाध्यायमामनेत्।
स्वाध्याय योगसम्पत्या परमात्मा प्रकाशते।1।28


अर्थात् स्वाध्याय द्वारा परमात्मा से योग करना सीखा जाता है और समत्व रूप योग से स्वाध्याय किया जाता है। योगपूर्वक स्वाध्याय से ही परमात्मा का साक्षात्कार हो सकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति 1948 दिसम्बर पृष्ठ 4


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👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 19 June 2023

डर तभी हो सकता है, जब हृदय कमजोर हो। हृदय कमजोर करने वाली एक ही वस्तु है, संसार में चाहे उसे अविश्वास, अपघात, धोखेबाजी, बेईमानी कह लें अथवा पाप। मुख्य बात यह है कि हमें किसी से भय न हो इसके लिए यह आवश्यक है कि हम किसी के साथ क्षुद्रता न करें। जब कोई बुरी बात मन में आती है तभी मनःस्थिति कमजोर होती है और छुपाने का स्थान ढूँढना पड़ता है। हमारे कार्य इतने स्वच्छ हों कि कभी किसी को अँगुली उठाने का अवसर न मिले तो फिर डर भी किसलिए होगा।
 
सफलता पानी है तो दृढ़ निश्चयी बनिये। एक बार विवेकपूर्वक जो निश्चय कर लीजिए उसे पूरा करने में अपनी सारी शक्तियाँ संगठित रूप से नियोजित कर दीजिए। निश्चय करने से पूर्व अपने हितैषियों, मित्रों एवं शुभचिंतकों से परामर्श कर लेना ठीक हो सकता है, किन्तु निश्चय हो जाने के बाद किसी के कहने से उसे बदलना कमजोरी का द्योतक है।

जिज्ञासा मानव जीवन के विकास का बहुत बड़ा आधार है। जो जिज्ञासु है, जानने को उत्सुक है, वही जानने का प्रयत्न भी करेगा। जो जिज्ञासु नहीं, उसे जड़ ही समझना चाहिए। पेड़-पौधे यहाँ तक पशु-पक्षी भी कुछ नया जानने के लिए कभी उत्सुक नहीं होते। जिज्ञासा की विशेषता ही मनुष्य को पशुओं से भिन्न करती है। वैसे जिज्ञासा के अभाव में मनुष्य भी अन्यों की तरह दो हाथ-पैर वाला पशु ही है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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