गुरुवार, 14 जनवरी 2021

👉 Teen Ganth तीन गांठें Bhagwan Buddha

भगवान बुद्ध अक्सर अपने शिष्यों को शिक्षा प्रदान किया करते थे। एक दिन प्रातः काल बहुत से भिक्षुक उनका प्रवचन सुनने के लिए बैठे थे। बुद्ध समय पर सभा में पहुंचे, पर आज शिष्य उन्हें देखकर चकित थे क्योंकि आज पहली बार वे अपने हाथ में कुछ लेकर आए थे। करीब आने पर शिष्यों ने देखा कि उनके हाथ में एक रस्सी थी। बुद्ध ने आसन ग्रहण किया और बिना किसी से कुछ कहे वे रस्सी में गांठें लगाने लगे।

वहाँ उपस्थित सभी लोग यह देख सोच रहे थे कि अब बुद्ध आगे क्या करेंगे; तभी बुद्ध ने सभी से एक प्रश्न किया, मैंने इस रस्सी में तीन गांठें लगा दी हैं, अब मैं आपसे ये जानना चाहता हूँ कि क्या यह वही रस्सी है, जो गाँठें लगाने से पूर्व थी?

एक शिष्य ने उत्तर में कहा, गुरूजी इसका उत्तर देना थोड़ा कठिन है, ये वास्तव में हमारे देखने के तरीके पर निर्भर है। एक दृष्टिकोण से देखें तो रस्सी वही है, इसमें कोई बदलाव नहीं आया है। दूसरी तरह से देखें तो अब इसमें तीन गांठें लगी हुई हैं जो पहले नहीं थीं; अतः इसे बदला हुआ कह सकते हैं। पर ये बात भी ध्यान देने वाली है कि बाहर से देखने में भले ही ये बदली हुई प्रतीत हो पर अंदर से तो ये वही है जो पहले थी; इसका बुनियादी स्वरुप अपरिवर्तित है।

सत्य है !, बुद्ध ने कहा, अब मैं इन गांठों को खोल देता हूँ। यह कहकर बुद्ध रस्सी के दोनों सिरों को एक दुसरे से दूर खींचने लगे। उन्होंने पुछा, तुम्हें क्या लगता है, इस प्रकार इन्हें खींचने से क्या मैं इन गांठों को खोल सकता हूँ?

नहीं-नहीं, ऐसा करने से तो या गांठें तो और भी कस जाएंगी और इन्हे खोलना और मुश्किल हो जाएगा। एक शिष्य ने शीघ्रता से उत्तर दिया।

बुद्ध ने कहा, ठीक है, अब एक आखिरी प्रश्न, बताओ इन गांठों को खोलने के लिए हमें क्या करना होगा?

शिष्य बोला, इसके लिए हमें इन गांठों को गौर से देखना होगा, ताकि हम जान सकें कि इन्हे कैसे लगाया गया था, और फिर हम इन्हे खोलने का प्रयास कर सकते हैं।

मैं यही तो सुनना चाहता था। मूल प्रश्न यही है कि जिस समस्या में तुम फंसे हो, वास्तव में उसका कारण क्या है, बिना कारण जाने निवारण असम्भव है। मैं देखता हूँ कि अधिकतर लोग बिना कारण जाने ही निवारण करना चाहते हैं , कोई मुझसे ये नहीं पूछता कि मुझे क्रोध क्यों आता है, लोग पूछते हैं कि मैं अपने क्रोध का अंत कैसे करूँ? कोई यह प्रश्न नहीं करता कि मेरे अंदर अंहकार का बीज कहाँ से आया, लोग पूछते हैं कि मैं अपना अहंकार कैसे ख़त्म करूँ?

प्रिय शिष्यों, जिस प्रकार रस्सी में में गांठें लग जाने पर भी उसका बुनियादी स्वरुप नहीं बदलता उसी प्रकार मनुष्य में भी कुछ विकार आ जाने से उसके अंदर से अच्छाई के बीज ख़त्म नहीं होते। जैसे हम रस्सी की गांठें खोल सकते हैं वैसे ही हम मनुष्य की समस्याएं भी हल कर सकते हैं।

इस बात को समझो कि जीवन है तो समस्याएं भी होंगी ही, और समस्याएं हैं तो समाधान भी अवश्य होगा, आवश्यकता है कि हम किसी भी समस्या के कारण को अच्छी तरह से जानें, निवारण स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा। महात्मा बुद्ध ने अपनी बात पूरी की।

👉 प्रतिभा Pratibha Talent

मित्रो ! भीष्म ने मृत्यु को धमकाया था कि जब तक सूर्य उत्तरायण न आए, तब तक इस ओर पैर न धरना। सावित्री ने यमराज के भैंसे की पूँछ पकड़कर उसे रोक लिया था और सत्यवान के प्राण वापस करने के लिए बाध्य किया था। अर्जुन ने पैना तीर चलाकर पाताल-गंगा की धार ऊपर निकाली थी और भीष्म की इच्छानुसार उनकी प्यास बुझाई थी। राणा सांगा के शरीर में अस्सी घाव लगे थे, फिर भी वे पीड़ा की परवाह न करते हुए अंतिम साँस रहने तक युद्ध में जूझते ही रहे थे। बड़े काम बड़े व्यक्तित्वों से ही बन पड़ते हैं। भारी वजन उठाने में हाथी जैसे सशक्त ही काम आते हैं, बकरों और गधों से उतना बन नहीं पड़ता; भले ही वे कल्पना करते, मन ललचाते या डींगे हाँकते रहें।  

प्रतिभा जिधर भी मुड़ती है, उधर ही बुलडोजरों की तरह मैदान सफा करती चलती है। सर्वविदित है कि यूरोप के विश्वविजयी पहलवान सैंडो किशोर अवस्था तक अनेक बीमारियों से घिरे, दुर्बल काया लिए फिरते थे, पर जब उन्होंने समर्थ तत्वावधान में स्वास्थ्य का नए सिरे से संचालन और बढ़ाना शुरु किया तो कुछ समय में विश्वविजयी स्तर के पहलवान बन गए। भारत के चंदगीराम पहलवान के बारे में अनेकों ने सुना है कि वह हिन्दकेसरी के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। पहले वह अन्यमनस्क स्थिति में अध्यापकी से रोटी कमाने वाले क्षीणकाय व्यक्ति थे। उन्होंने अपने मनोबल से ही नई रीति-नीति अपनाई और खोई हुई सेहत नए सिरे से न केवल पाई वरन् इतनी बढ़ाई कि हिन्दकेसरी उपाधि से विभूषित हुए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ९७)

सत्य का साक्षात्कार है—निर्वितर्क समाधि

अंतर्यात्रा के विज्ञान का सार-परिष्कार है। परिष्कार की साधना के सघन एवं गहन होने से अंतर्यात्रा का पथ प्रशस्त होता है। इसके वैज्ञानिक प्रयोगों में सुगमता आती है। साधकों एवं सामान्य जनों में योग साधना के जटिल एवं दुरूह होने की बात कही-सुनी जाती है। यह सच तो है किन्तु आधा-पूरा सच यह है कि योग साधना में विघ्न एवं अवरोध वहाँ आते हैं, जहाँ परिष्कार-परिशोधन की उपेक्षा-अवहेलना की जाती है। जो अपनी अंतरसत्ता के परिष्कार में तत्पर हैं, उनके लिए अंतर्यात्रा का यह पथ सुगम-सरल एवं आनन्ददायक है। उनकी साधना के अनुरूप यह आनन्द तीव्र होता जाता है, प्रवृत्तियाँ प्रकाशित होती जाती है और बोध के स्वर फूटने लगते हैं। क्रमिक रूप से विकल्पों एवं वितर्कों में क्षीणता आने लगती है।

सवितर्क से ही निर्वितर्क समाधि की राह खुलती है। इस परिशुद्ध स्थिति के बारे में महर्षि कहते हैं-
स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का॥१/४३॥
शब्दार्थ-स्मृतिपरिशुद्धौ = (शब्द एवं प्रतीति की) स्मृति के भलीभाँति लुप्त हो जाने पर; स्वरूपशून्या = अपने स्वरूप से शून्य रुई के; इव = सदृश; अर्थमात्र निर्भासा = केवल ध्येय मात्र के स्वरूप को प्रत्यक्ष करने वाली (चित्त की स्थिति ही), निर्वितर्का = निर्वितर्क समाधि है।

भावार्थ- जब स्मृति परिशुद्ध होती है और मन किसी अवरोध के बिना वस्तुओं की यथार्थता देख सकता है, तब निर्वितर्क समाधि फलित होती है।

महर्षि पतंजलि ने अपने इस सूत्र में निर्वितर्क समाधि के लिए बड़ा सहज राजमार्ग सुझाया है। यह राजमार्ग है-स्मृति के परिशोधन का। इसे प्रकारान्तर से स्मृतिलय या मनोलय भी कह सकते हैं। अभी हम जो कुछ भी हैं, हमारा व्यक्तित्व, हमारी स्थिति स्मृति के कारण है। सार रूप में यह यादों से बने और यादों से घिरे हैं। हमारे कल के अनुभवों ने हमें कुछ यादें दी हैं, कल होने वाले अनुभव भी हमें कुछ यादें देंगे। इन यादों के कई रंग एवं कई रूप हैं। इन्हीं सबसे हमारे व्यक्तित्व की परतें सजी हैं। हमारे व्यक्तित्व का बहुआयामी रूप इन्हीं के कारण हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १७०
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

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