शनिवार, 3 अगस्त 2019
👉 बुजुर्गों को समय चाहिए
छोटे ने कहा," भैया, दादी कई बार कह चुकी हैं कभी मुझे भी अपने साथ होटल ले जाया करो." गौरव बोला, " ले तो जायें पर चार लोगों के खाने पर कितना खर्च होगा. याद है पिछली बार जब हम तीनों ने डिनर लिया था , तब सोलह सौ का बिल आया था. हमारे पास अब इतने पैसे कहाँ बचे हैं." पिंकी ने बताया," मेरे पास पाकेटमनी के कुछ पैसे बचे हुए हैं." तीनों ने मिलकर तय किया कि इस बार दादी को भी लेकर चलेंगे, पर इस बार मँहगी पनीर की सब्जी की जगह मिक्सवैज मँगवायेंगे और आइसक्रीम भी नहीं खायेंगे.
छोटू, गौरव और पिंकी तीनों दादी के कमरे में गये और बोले," दादी इस' संडे को लंच बाहर लेंगे, चलोगी हमारे साथ." दादी ने खुश होकर कहा," तुम ले चलोगे अपने साथ." " हाँ दादी " .
संडे को दादी सुबह से ही बहुत खुश थी. आज उन्होंने अपना सबसे बढिया वाला सूट पहना, हल्का सा मेकअप किया, बालों को एक नये ढंग से बाँधा. आँखों पर सुनहरे फ्रेमवाला नया चश्मा लगाया. यह चश्मा उनका मँझला बेटा बनवाकर दे गया था जब वह पिछली बार लंदन से आया था. किन्तु वह उसे पहनती नहीं थी, कहती थी, इतना सुन्दर फ्रेम है, पहनूँगी तो पुराना हो जायेगा. आज दादी शीशे में खुद को अलग अलग एंगिल से कई बार देख चुकी थी और संतुष्ट थी.
बच्चे दादी को बुलाने आये तो पिंकी बोली," अरे वाह दादी, आज तो आप बडी क्यूट लग रही हैं". गौरव ने कहा," आज तो दादी ने गोल्डन फ्रेम वाला चश्मा पहना है. क्या बात है दादी किसी ब्यायफ्रैंड को भी बुला रखा है क्या." दादी शर्माकर बोली, " धत. "
होटल में सैंटर की टेबल पर चारो बैठ गए. थोडी देर बाद वेटर आया, बोला, " आर्डर प्लीज ". अभी गौरव बोलने ही वाला था कि दादी बोली," आज आर्डर मैं करूँगी क्योंकि आज की स्पेशल गैस्ट मैं हूँ." दादी ने लिखवाया__ दालमखनी, कढाईपनीर, मलाईकोफ्ता, रायता वैजेटेबिल वाला, सलाद, पापड, नान बटरवाली और मिस्सी रोटी. हाँ खाने से पहले चार सूप भी.
तीनों बच्चे एकदूसरे का मुँह देख रहे थे. थोडी देरबाद खाना टेबल पर लग गया. खाना टेस्टी था, जब सब खा चुके तो वेटर फिर आया, "डेजर्ट में कुछ सर". दादी ने कहा, " हाँ चार कप आइसक्रीम ". तीनों बच्चों की हालत खराब, अब क्या होगा, दादी को मना भी नहीं कर सकते पहली बार आईं हैं.
बिल आया, इससे पहले गौरव उसकी तरफ हाथ बढाता, बिल दादी ने उठा लिया और कहा," आज का पेमेंट मैं करूँगी. बच्चों मुझे तुम्हारे पर्स की नहीं, तुम्हारे समय की आवश्यकता है, तुम्हारी कंपनी की आवश्यकता है. मैं पूरा दिन अपने कमरे में अकेली पडे पडे बोर हो जाती हूँ. टी.वी. भी कितना देखूँ, मोबाईल पर भी चैटिंग कितना करूँ. बोलो बच्चों क्या अपना थोडा सा समय मुझे दोगे," कहते कहते दादी की आवाज भर्रा गई.
पिंकी अपनी चेयर से उठी, उसने दादी को अपनी बाँहों में भर लिया और फिर दादी के गालों पर किस करते हुए बोली," मेरी प्यारी दादी जरूर." गौरव ने कहा, " यस दादी, हम प्रामिस करते हैं कि रोज आपके पास बैठा करेंगे और तय रहा कि हर महीने के सैकंड संडे को लंच या डिनर के लिए बाहर आया करेंगे और पिक्चर भी देखा करेंगे."
दादी के होठों पर 1000 वाट की मुस्कुराहट तैर गई, आँखों में फ्लैशलाइट सी चमक आ गई और चेहरे की झुर्रियाँ खुशी के कारण नृत्य सा करती महसूस होने लगीं...-
बूढ़े मां बाप रूई के गटठर समान होते है, शुरू में उनका बोझ नहीं महसूस होता, लेकिन बढ़ती उम्र के साथ रुई भीग कर बोझिल होने लगती है. बुजुर्ग समय चाहते हैं पैसा नही, पैसा तो उन्होंने सारी जिंदगी आपके लिए कमाया-की बुढ़ापे में आप उन्हें समय देंगे।
छोटू, गौरव और पिंकी तीनों दादी के कमरे में गये और बोले," दादी इस' संडे को लंच बाहर लेंगे, चलोगी हमारे साथ." दादी ने खुश होकर कहा," तुम ले चलोगे अपने साथ." " हाँ दादी " .
संडे को दादी सुबह से ही बहुत खुश थी. आज उन्होंने अपना सबसे बढिया वाला सूट पहना, हल्का सा मेकअप किया, बालों को एक नये ढंग से बाँधा. आँखों पर सुनहरे फ्रेमवाला नया चश्मा लगाया. यह चश्मा उनका मँझला बेटा बनवाकर दे गया था जब वह पिछली बार लंदन से आया था. किन्तु वह उसे पहनती नहीं थी, कहती थी, इतना सुन्दर फ्रेम है, पहनूँगी तो पुराना हो जायेगा. आज दादी शीशे में खुद को अलग अलग एंगिल से कई बार देख चुकी थी और संतुष्ट थी.
बच्चे दादी को बुलाने आये तो पिंकी बोली," अरे वाह दादी, आज तो आप बडी क्यूट लग रही हैं". गौरव ने कहा," आज तो दादी ने गोल्डन फ्रेम वाला चश्मा पहना है. क्या बात है दादी किसी ब्यायफ्रैंड को भी बुला रखा है क्या." दादी शर्माकर बोली, " धत. "
होटल में सैंटर की टेबल पर चारो बैठ गए. थोडी देर बाद वेटर आया, बोला, " आर्डर प्लीज ". अभी गौरव बोलने ही वाला था कि दादी बोली," आज आर्डर मैं करूँगी क्योंकि आज की स्पेशल गैस्ट मैं हूँ." दादी ने लिखवाया__ दालमखनी, कढाईपनीर, मलाईकोफ्ता, रायता वैजेटेबिल वाला, सलाद, पापड, नान बटरवाली और मिस्सी रोटी. हाँ खाने से पहले चार सूप भी.
तीनों बच्चे एकदूसरे का मुँह देख रहे थे. थोडी देरबाद खाना टेबल पर लग गया. खाना टेस्टी था, जब सब खा चुके तो वेटर फिर आया, "डेजर्ट में कुछ सर". दादी ने कहा, " हाँ चार कप आइसक्रीम ". तीनों बच्चों की हालत खराब, अब क्या होगा, दादी को मना भी नहीं कर सकते पहली बार आईं हैं.
बिल आया, इससे पहले गौरव उसकी तरफ हाथ बढाता, बिल दादी ने उठा लिया और कहा," आज का पेमेंट मैं करूँगी. बच्चों मुझे तुम्हारे पर्स की नहीं, तुम्हारे समय की आवश्यकता है, तुम्हारी कंपनी की आवश्यकता है. मैं पूरा दिन अपने कमरे में अकेली पडे पडे बोर हो जाती हूँ. टी.वी. भी कितना देखूँ, मोबाईल पर भी चैटिंग कितना करूँ. बोलो बच्चों क्या अपना थोडा सा समय मुझे दोगे," कहते कहते दादी की आवाज भर्रा गई.
पिंकी अपनी चेयर से उठी, उसने दादी को अपनी बाँहों में भर लिया और फिर दादी के गालों पर किस करते हुए बोली," मेरी प्यारी दादी जरूर." गौरव ने कहा, " यस दादी, हम प्रामिस करते हैं कि रोज आपके पास बैठा करेंगे और तय रहा कि हर महीने के सैकंड संडे को लंच या डिनर के लिए बाहर आया करेंगे और पिक्चर भी देखा करेंगे."
दादी के होठों पर 1000 वाट की मुस्कुराहट तैर गई, आँखों में फ्लैशलाइट सी चमक आ गई और चेहरे की झुर्रियाँ खुशी के कारण नृत्य सा करती महसूस होने लगीं...-
बूढ़े मां बाप रूई के गटठर समान होते है, शुरू में उनका बोझ नहीं महसूस होता, लेकिन बढ़ती उम्र के साथ रुई भीग कर बोझिल होने लगती है. बुजुर्ग समय चाहते हैं पैसा नही, पैसा तो उन्होंने सारी जिंदगी आपके लिए कमाया-की बुढ़ापे में आप उन्हें समय देंगे।
👉 अपना विचार क्षेत्र बढ़ाना है
हमें अपना विचार क्षेत्र बढ़ाना है। अब तक केवल अखण्ड-ज्योति और युग-निर्माण पत्रिका से ही अपना संपर्क क्षेत्र विनिर्मित करते रहें। जो इन्हें पढ़ते हैं उन्हीं तक अपने विचार पहुँचते हैं। इस छोटे वर्ग से ही समस्त विश्व को परिवर्तित करने का स्वप्न साकार नहीं हो सकता। हमें प्रचार के लिए बड़े कदम उठाने होंगे। प्रस्तुत विज्ञप्ति योजना और झोला पुस्तकालय प्रक्रिया इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए है। हर परिजन से इनमें आवश्यक रस लेने और उत्साहपूर्वक प्रयत्न करने को अनुरोध किया गया है। समय के साथ अपनी गाड़ी कमाई का एक छोटा अंश लोक-मंगल के इस छोटे दीखने वाले, किन्तु अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए खर्च करने को कहा गया है। व्यक्ति को अपने लिए ही नहीं कमाते रहना चाहिये। उसकी कमाई में समाज का भी अधिकार है। इस अधिकार को संतुलित बनाने के लिए दान को एक अनिवार्य धर्म कर्तव्य माना गया है। जो दान नहीं करता-अपनी कमाई आप ही खाता रहता है, उसे मनीषियों और शास्त्रों ने चोर माना है। हमारा कोई परिजन चोर न कहलायेगा, उसे दानी ही बनना चाहिये और दान की सार्थकता तभी है, जब उसके पीछे उपयोगिता और विवेक का पुट हो।
सद्ज्ञान प्रसार करने जनमानस को बदलने से बढ़कर दान की और कहीं सार्थकता हो नहीं सकती। यह ब्रह्म दान सबसे बड़ा परमार्थ है। इसलिये परिजनों को दस पैसा रोज एवं थोड़े दिन के लिए, महीने में एक दिन की आमदनी खर्च करते रहने के लिए कहा गया है। यदि यह बात समझ में आ सके और थोड़ा समय एवं थोड़ा पैसा सभी लोग नियमित रूप से खर्च करने लगें तो अपने ज्ञान-यज्ञ की लपटें आकाश को छूने लगेंगी और पाताल तक को प्रभावित करने लगेंगी। इसलिए गत पूरे अंक में और इस अंक की इन पंक्तियों में बहुत जोर देकर यह कहा जा रहा है कि यह पंक्तियाँ पढ़ कर ही पत्रिका उठाकर एक कोने में रख दी जाय वरन् कुछ करने के लिए आवश्यक साहस और उत्साह पैदा किया जाय। विश्वास यही किया जाना चाहिये कि अपने अति आवश्यक अनुरोध परिजनों द्वारा उपेक्षित नहीं किये गये हैं और इस बार ज्ञान यज्ञ की हमारी संकल्पित प्रक्रिया को अधूरी न रहने दिया जाएगा उसके लिए भी स्वजनों में आवश्यक उत्साह पैदा होगा और नवनिर्माण की विचार धारा विश्वव्यापी होकर रहेगी।
यह विचार-धारा और जनमानस की प्रबुद्धता को दिशा में घसीट ले जाने की प्रक्रिया अखण्ड-ज्योति परिवार, गायत्री परिवार अथवा युग-निर्माण योजना के कुछ लाख सदस्यों तक सीमित नहीं रहने दी जा सजती। इसे देशव्यापी-विश्व-व्यापी बनना है। इसके लिए एक भाषा की सीमा बद्धता भी पर्याप्त नहीं है। अब तक अपने पास केवल हिन्दी माध्यम रहा है। अब भारत की 14 प्रमुख भाषाओं में अपना कार्यक्षेत्र बढ़ाना पड़ेगा। इतना ही नहीं संसार की दस प्रमुख भाषाओं का भी सहारा लेना पड़ेगा ताकि अपना सन्देश भारतवर्ष तक ही सीमित न रहकर विश्व-व्यापी बन सके। विज्ञप्तियाँ, ट्रैक्ट तथा सभी प्रचार साहित्य अब हमें इस सब भाषाओं में प्रकाशित प्रचारित करना है। इसके लिए पूँजी की जरूरत पड़ेगी यज्ञ आयोजनों के संयोजन लोग अपनी बचत गतवर्ष में इस कार्य के लिए देने लगे हैं। यह अच्छी परम्परा है। दूसरे लोग जिनमें सामर्थ्य और उदारता हो इस अहम् प्रयोजन के लिए कुछ अनुदान देने का साहस कर सकते हैं। ज्ञान-यज्ञ से बढ़कर दानशीलता को चरितार्थ करने का और कोई माध्यम शायद ही इस संसार में दूसरा होता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, सितंबर १९६९, पृष्ठ 66
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/September/v1.66
सद्ज्ञान प्रसार करने जनमानस को बदलने से बढ़कर दान की और कहीं सार्थकता हो नहीं सकती। यह ब्रह्म दान सबसे बड़ा परमार्थ है। इसलिये परिजनों को दस पैसा रोज एवं थोड़े दिन के लिए, महीने में एक दिन की आमदनी खर्च करते रहने के लिए कहा गया है। यदि यह बात समझ में आ सके और थोड़ा समय एवं थोड़ा पैसा सभी लोग नियमित रूप से खर्च करने लगें तो अपने ज्ञान-यज्ञ की लपटें आकाश को छूने लगेंगी और पाताल तक को प्रभावित करने लगेंगी। इसलिए गत पूरे अंक में और इस अंक की इन पंक्तियों में बहुत जोर देकर यह कहा जा रहा है कि यह पंक्तियाँ पढ़ कर ही पत्रिका उठाकर एक कोने में रख दी जाय वरन् कुछ करने के लिए आवश्यक साहस और उत्साह पैदा किया जाय। विश्वास यही किया जाना चाहिये कि अपने अति आवश्यक अनुरोध परिजनों द्वारा उपेक्षित नहीं किये गये हैं और इस बार ज्ञान यज्ञ की हमारी संकल्पित प्रक्रिया को अधूरी न रहने दिया जाएगा उसके लिए भी स्वजनों में आवश्यक उत्साह पैदा होगा और नवनिर्माण की विचार धारा विश्वव्यापी होकर रहेगी।
यह विचार-धारा और जनमानस की प्रबुद्धता को दिशा में घसीट ले जाने की प्रक्रिया अखण्ड-ज्योति परिवार, गायत्री परिवार अथवा युग-निर्माण योजना के कुछ लाख सदस्यों तक सीमित नहीं रहने दी जा सजती। इसे देशव्यापी-विश्व-व्यापी बनना है। इसके लिए एक भाषा की सीमा बद्धता भी पर्याप्त नहीं है। अब तक अपने पास केवल हिन्दी माध्यम रहा है। अब भारत की 14 प्रमुख भाषाओं में अपना कार्यक्षेत्र बढ़ाना पड़ेगा। इतना ही नहीं संसार की दस प्रमुख भाषाओं का भी सहारा लेना पड़ेगा ताकि अपना सन्देश भारतवर्ष तक ही सीमित न रहकर विश्व-व्यापी बन सके। विज्ञप्तियाँ, ट्रैक्ट तथा सभी प्रचार साहित्य अब हमें इस सब भाषाओं में प्रकाशित प्रचारित करना है। इसके लिए पूँजी की जरूरत पड़ेगी यज्ञ आयोजनों के संयोजन लोग अपनी बचत गतवर्ष में इस कार्य के लिए देने लगे हैं। यह अच्छी परम्परा है। दूसरे लोग जिनमें सामर्थ्य और उदारता हो इस अहम् प्रयोजन के लिए कुछ अनुदान देने का साहस कर सकते हैं। ज्ञान-यज्ञ से बढ़कर दानशीलता को चरितार्थ करने का और कोई माध्यम शायद ही इस संसार में दूसरा होता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, सितंबर १९६९, पृष्ठ 66
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/September/v1.66
👉 देव दर्शन के पीछे दिव्य दृष्टि भी रहे
दर्शन शब्द का अर्थ जहाँ देखना है वहाँ उसका एक अर्थ विवेचना या विचारणा भी है। अनेक लोग देव प्रतिमाओं, तीर्थ स्थानों, संत एवं सत्पुरुषों के दर्शन करने आया करते हैं, वे इसमें पुण्य लाभ का विश्वास करते हैं। शुभ व्यक्तियों अथवा शुभ स्थानों का दर्शन करना शुभ ही है। किन्तु उसका वास्तविक लाभ तभी हो सकता है जब दर्शन को देखने तक ही सीमित न रखा जाये, बल्कि उसके अन्दर निहित विचारणा पर भी ध्यान दिया जाये। जितनी ही श्रद्धा, भक्ति एवं भावना से किसी देव प्रतिमा, संत पुरुष अथवा तीर्थ स्थान के दर्शन क्यों न किये जायें, उसके वास्तविक लाभ तब तक सम्भव नहीं जब तक उस व्यक्ति प्रतीक अथवा स्थान की उन विशेषताओं को हृदयंगम न किया जायेगा जिनके कारण उनका महात्म्य है। केवल दर्शनीय स्थल को देख भर लेने से प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता।
दर्शन मात्र से स्वर्ग, मोक्ष, सुख, शान्ति, सम्पत्ति अथवा प्रसिद्धि आदि का लाभ पाने का विश्वास रखने वालों की श्रद्धा को विवेक सम्मत नहीं माना जा सकता। उनकी अति श्रद्धा अथवा अति विश्वास एक प्रकार से अज्ञानजन्य ही होता है, जिसे अन्ध-विश्वास अथवा अन्ध-श्रद्धा भी कहते हैं। श्रद्धा जहाँ आत्मा की उन्नति करती है, मन-मस्तिष्क को सुसंस्कृत एवं स्थिर करती है, ईश्वर प्राप्ति के लिये व्यग्र एवं जिज्ञासु बनाती है, वहाँ मूढ़-श्रद्धा अथवा अंध विश्वास उसे अवास्तविकता के गर्त में गिरा देती है। अन्धविश्वासियों अथवा अंध श्रद्धालुओं को अपनी अविवेकपूर्ण धारणाओं से लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक होती है।
आज धर्म के नाम पर जो कुछ देखी जाती है, उसका बहुत कुछ उत्तरदायित्व उन अन्ध श्रद्धालुओं पर ही है, जो धर्म के सत्य स्वरूप एवं कर्म की विधि और उसका परिणाम नहीं जानते। जनता की अंध-श्रद्धा के आधार पर न जाने कितने आडम्बरी एवं प्रवचक लोग अर्थ एवं आदर का लाभ उठाया करते हैं। यही कारण है कि शास्त्रों में जहाँ श्रद्धा की प्रशंसा की गई, वहीं अंध-श्रद्धा की निन्दा भी।
दर्शन करने के सम्बन्ध में भी भोले लोगों की यह अंध-श्रद्धा उन्हें दर्शन के मूल प्रयोजन एवं उससे होने वाले लाभ से वंचित ही रखती है। लाखों-करोड़ों लोग प्रति वर्ष तीर्थों तथा तीर्थ पुरुषों के दर्शन करने देश के कोने-कोने से आते-जाते हैं। अनेकों लाभ तो प्रतिदिन प्रातः, सायं मंदिरों में देव प्रतिमा के दर्शन करने जाया करते हैं। किन्तु क्या कहा जा सकता है कि इन लोगों को वह लाभ होता होगा, जो उन्हें अभीष्ट रहता है। निश्चय ही नहीं। उन्हें इस बाह्य दर्शन द्वारा एक भ्रामक आत्म-तुष्टि के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिल सकता।
यदि केवल देव प्रतिमा, देव स्थान अथवा देवपुरुष को देखने मात्र से, हाथ जोड़ने, दण्डवत प्रणाम करने, पैसा अथवा पूजा प्रसाद चढ़ा देने भर से ही किसी के पापों का क्षरण हो जाता, दुःख दारिद्रय दूर हो जाता और पुण्य, परमार्थ, स्वर्ग मुक्ति आदि मिल सकते व जीवन में तेजस्विता, देवत्व अथवा निर्द्वन्दता का समावेश हो सकता, तो दिन-रात देव प्रतिमाओं की परिचर्या करने वाले पुजारियों, मन्दिरों की सफाई-देखभाल करने वाले सेवकों को यह सभी लाभ अनायास ही मिल जाते। उनके सारे दुःख द्वन्द्व दूर हो जाते और सुख-शान्ति पूर्ण स्वर्गीय जीवन के अधिकारी बन जाते हैं, किन्तु ऐसा देखने में नहीं आता। मंदिरों के सेवक और प्रतिमाओं के पुजारी भी अन्य सामान्य जनों की भाँति ही अविशेष जीवन में पड़े-पड़े दुःखों तथा शोक संतापों को सहते रहते हैं। उनके वक्त जीवन में रंचमात्र भी परिवर्तन नहीं होता, यद्यपि उनकी पूरी जिन्दगी देव प्रतिमाओं के सान्निध्य एवं देवस्थापन की सेवा करने बीत जाती है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
दर्शन मात्र से स्वर्ग, मोक्ष, सुख, शान्ति, सम्पत्ति अथवा प्रसिद्धि आदि का लाभ पाने का विश्वास रखने वालों की श्रद्धा को विवेक सम्मत नहीं माना जा सकता। उनकी अति श्रद्धा अथवा अति विश्वास एक प्रकार से अज्ञानजन्य ही होता है, जिसे अन्ध-विश्वास अथवा अन्ध-श्रद्धा भी कहते हैं। श्रद्धा जहाँ आत्मा की उन्नति करती है, मन-मस्तिष्क को सुसंस्कृत एवं स्थिर करती है, ईश्वर प्राप्ति के लिये व्यग्र एवं जिज्ञासु बनाती है, वहाँ मूढ़-श्रद्धा अथवा अंध विश्वास उसे अवास्तविकता के गर्त में गिरा देती है। अन्धविश्वासियों अथवा अंध श्रद्धालुओं को अपनी अविवेकपूर्ण धारणाओं से लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक होती है।
आज धर्म के नाम पर जो कुछ देखी जाती है, उसका बहुत कुछ उत्तरदायित्व उन अन्ध श्रद्धालुओं पर ही है, जो धर्म के सत्य स्वरूप एवं कर्म की विधि और उसका परिणाम नहीं जानते। जनता की अंध-श्रद्धा के आधार पर न जाने कितने आडम्बरी एवं प्रवचक लोग अर्थ एवं आदर का लाभ उठाया करते हैं। यही कारण है कि शास्त्रों में जहाँ श्रद्धा की प्रशंसा की गई, वहीं अंध-श्रद्धा की निन्दा भी।
दर्शन करने के सम्बन्ध में भी भोले लोगों की यह अंध-श्रद्धा उन्हें दर्शन के मूल प्रयोजन एवं उससे होने वाले लाभ से वंचित ही रखती है। लाखों-करोड़ों लोग प्रति वर्ष तीर्थों तथा तीर्थ पुरुषों के दर्शन करने देश के कोने-कोने से आते-जाते हैं। अनेकों लाभ तो प्रतिदिन प्रातः, सायं मंदिरों में देव प्रतिमा के दर्शन करने जाया करते हैं। किन्तु क्या कहा जा सकता है कि इन लोगों को वह लाभ होता होगा, जो उन्हें अभीष्ट रहता है। निश्चय ही नहीं। उन्हें इस बाह्य दर्शन द्वारा एक भ्रामक आत्म-तुष्टि के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिल सकता।
यदि केवल देव प्रतिमा, देव स्थान अथवा देवपुरुष को देखने मात्र से, हाथ जोड़ने, दण्डवत प्रणाम करने, पैसा अथवा पूजा प्रसाद चढ़ा देने भर से ही किसी के पापों का क्षरण हो जाता, दुःख दारिद्रय दूर हो जाता और पुण्य, परमार्थ, स्वर्ग मुक्ति आदि मिल सकते व जीवन में तेजस्विता, देवत्व अथवा निर्द्वन्दता का समावेश हो सकता, तो दिन-रात देव प्रतिमाओं की परिचर्या करने वाले पुजारियों, मन्दिरों की सफाई-देखभाल करने वाले सेवकों को यह सभी लाभ अनायास ही मिल जाते। उनके सारे दुःख द्वन्द्व दूर हो जाते और सुख-शान्ति पूर्ण स्वर्गीय जीवन के अधिकारी बन जाते हैं, किन्तु ऐसा देखने में नहीं आता। मंदिरों के सेवक और प्रतिमाओं के पुजारी भी अन्य सामान्य जनों की भाँति ही अविशेष जीवन में पड़े-पड़े दुःखों तथा शोक संतापों को सहते रहते हैं। उनके वक्त जीवन में रंचमात्र भी परिवर्तन नहीं होता, यद्यपि उनकी पूरी जिन्दगी देव प्रतिमाओं के सान्निध्य एवं देवस्थापन की सेवा करने बीत जाती है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 चरित्र
नेल्सन मंडेला दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति बनने के बाद, अपने सुरक्षा कर्मियों के साथ एक रेस्तरां में खाना खाने गए। सबने अपनी अपनी पसंद के खाना का आर्डर दिया और खाना के आने का इंतजार करने लगे।
उसी समय मंडेला की सीट के सामने एक व्यक्ति भी अपने खाने आने का इंतजार कर रहा था। मंडेला ने अपने सुरक्षा कर्मी को कहा उसे भी अपनी टेबल पर बुला लो। ऐसा ही हुआ, खाना आने के बाद सभी खाने लगे, वो आदमी भी अपना खाना खाने लगा, पर उसके हाथ खाते हुए कांप रहे थे।
खाना खत्म कर वो आदमी सिर झुका कर होटल से निकल गया। उस आदमी के खाना खा के जाने के बाद मंडेला के सुरक्षा अधिकारी ने मंडेला से कहा कि वो व्यक्ति शायद बहुत बीमार था, खाते वक़्त उसकी हाथ लगातार कांप रहे थे और वह कांप भी रहा था।
मंडेला ने कहा नहीं ऐसा नहीं है। वह उस जेल का जेलर था, जिसमें मुझे रखा गया था। कभी मुझे जब यातनाएं दी जाती और मै कराहते हुवे पानी मांगता तो ये मेरे ऊपर पेशाब करता था।
मंडेला ने कहा मै अब राष्ट्रपति बन गया हूं, उसने समझा कि मै भी उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करूंगा। पर मेरा यह चरित्र नहीं है। मुझे लगता है बदले की भावना से काम करना विनाश की ओर ले जाता है। वहीं धैर्य और सहिष्णुता की मानसिकता हमें विकास की ओर ले जाती है।
उसी समय मंडेला की सीट के सामने एक व्यक्ति भी अपने खाने आने का इंतजार कर रहा था। मंडेला ने अपने सुरक्षा कर्मी को कहा उसे भी अपनी टेबल पर बुला लो। ऐसा ही हुआ, खाना आने के बाद सभी खाने लगे, वो आदमी भी अपना खाना खाने लगा, पर उसके हाथ खाते हुए कांप रहे थे।
खाना खत्म कर वो आदमी सिर झुका कर होटल से निकल गया। उस आदमी के खाना खा के जाने के बाद मंडेला के सुरक्षा अधिकारी ने मंडेला से कहा कि वो व्यक्ति शायद बहुत बीमार था, खाते वक़्त उसकी हाथ लगातार कांप रहे थे और वह कांप भी रहा था।
मंडेला ने कहा नहीं ऐसा नहीं है। वह उस जेल का जेलर था, जिसमें मुझे रखा गया था। कभी मुझे जब यातनाएं दी जाती और मै कराहते हुवे पानी मांगता तो ये मेरे ऊपर पेशाब करता था।
मंडेला ने कहा मै अब राष्ट्रपति बन गया हूं, उसने समझा कि मै भी उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करूंगा। पर मेरा यह चरित्र नहीं है। मुझे लगता है बदले की भावना से काम करना विनाश की ओर ले जाता है। वहीं धैर्य और सहिष्णुता की मानसिकता हमें विकास की ओर ले जाती है।
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग 43)
👉 तंत्र एक सम्पूर्ण विज्ञान, एक चिकित्सा पद्धति
तंत्र की तकनीकें प्रत्येक स्थिति में असरकारक सिद्ध होती हैं। आध्यात्मिक चिकित्सक इनका इस्तेमाल व्यक्ति के दुःख, दुर्भाग्य, दोष- दैन्य, पीड़ा- पतन, विकृति- विरोध आदि के निवारण के लिए करते हैं। यदि इन तकनीकों का प्रयोग सविधि किया गया है, तो इनका प्रभाव अचूक होता है। स्थिति कैसी भी हो, व्यक्ति कोई भी हो इनके सटीक असर हुए बिना नहीं रहते। इस दुर्लभ विज्ञान के आधिकारिक विद्वान इस युग में कम ही हैं, पर जो हैं, उनके सान्निध्य में इसके चमत्कार अनुभव किये जा सकते हें। इन विशेषज्ञों का कहना है कि अध्यात्म विद्या के दो आयाम हैं- एक आत्मिकी, दूसरा भौतिकी। आत्मिकी को योग विज्ञान एवं भौतिकी को तंत्र विज्ञान कहते हैं। इस वैज्ञानिक युग में भौतिकी शब्द थोड़ा भ्रमित करने वाला है, क्योंकि इससे फिजिक्स का बोध होता है। ऐसी स्थिति में इसको पराभौतिकी का नाम दिया जा सकता है।
तंत्र महाविद्या की स्थिति भी सचमुच में कुछ ऐसी ही है। जिन चीजों को हम उपेक्षित एवं अवाँछनीय मानते हैं, तंत्र की तकनीकों में उनका बड़ा कारगर इस्तेमाल होता है। पदार्थ विज्ञान ने अणु भौतिकी, कण भौतिकी एवं क्वाण्टम यांत्रिकी की खोजें अभी कुछ ही दशकों पूर्व की हैं। पर तंत्र विशेषज्ञों ने सहस्राब्दियों पूर्व न केवल इन सत्यों को पहचाना, बल्कि इनके प्रयोग की तकनीकें भी विकसित कर लीं। तंत्र विद्या प्रत्येक पदार्थ को ऊर्जा स्रोत के रूप में देखती और मानती है। और इसके व्यावहारिक जीवन में प्रयोग की तकनीकों के अनुसंधान में निरत रहती है।
तंत्र अपने सिद्धान्त एवं प्रयोग में सम्पूर्ण विज्ञान है। जिन्हें इसकी वैज्ञानिकता पर संदेह होता है, उन्हें विज्ञान एवं वैज्ञानिकता की इबारत को नये सिरे से पढ़ना- सीखना चाहिए। सार्थक वैज्ञानिक दृष्टि यह कहती है कि सिद्धान्त की प्रायोगिक पड़ताल किये बगैर उसे नकारा नहीं जाना चाहिए। वैज्ञानिक दृष्टि कोण में किसी आग्रह या मान्यताओं का कोई स्थान नहीं है। यहाँ प्रायोगिक निष्कर्ष ही सब कुछ होते हैं। यहाँ प्रत्यक्षीकरण ही सिद्धान्तों का आधार बनते हैं। जो विज्ञान के दर्शन को स्वीकार करते हैं। तंत्र विद्या उनके लिए नये अनुसंधान क्षेत्र के द्वार उन्मुक्त करती है। उन्हें चुनौती देती है कि आओ, प्रयोग करो और परखो कि सच क्या है? हाँ जो सच मिले उसे स्वीकारने में शरमाना और हिचकिचाना मत। मानवता की भलाई के लिए इनका प्रयोग करना।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 63
तंत्र की तकनीकें प्रत्येक स्थिति में असरकारक सिद्ध होती हैं। आध्यात्मिक चिकित्सक इनका इस्तेमाल व्यक्ति के दुःख, दुर्भाग्य, दोष- दैन्य, पीड़ा- पतन, विकृति- विरोध आदि के निवारण के लिए करते हैं। यदि इन तकनीकों का प्रयोग सविधि किया गया है, तो इनका प्रभाव अचूक होता है। स्थिति कैसी भी हो, व्यक्ति कोई भी हो इनके सटीक असर हुए बिना नहीं रहते। इस दुर्लभ विज्ञान के आधिकारिक विद्वान इस युग में कम ही हैं, पर जो हैं, उनके सान्निध्य में इसके चमत्कार अनुभव किये जा सकते हें। इन विशेषज्ञों का कहना है कि अध्यात्म विद्या के दो आयाम हैं- एक आत्मिकी, दूसरा भौतिकी। आत्मिकी को योग विज्ञान एवं भौतिकी को तंत्र विज्ञान कहते हैं। इस वैज्ञानिक युग में भौतिकी शब्द थोड़ा भ्रमित करने वाला है, क्योंकि इससे फिजिक्स का बोध होता है। ऐसी स्थिति में इसको पराभौतिकी का नाम दिया जा सकता है।
तंत्र महाविद्या की स्थिति भी सचमुच में कुछ ऐसी ही है। जिन चीजों को हम उपेक्षित एवं अवाँछनीय मानते हैं, तंत्र की तकनीकों में उनका बड़ा कारगर इस्तेमाल होता है। पदार्थ विज्ञान ने अणु भौतिकी, कण भौतिकी एवं क्वाण्टम यांत्रिकी की खोजें अभी कुछ ही दशकों पूर्व की हैं। पर तंत्र विशेषज्ञों ने सहस्राब्दियों पूर्व न केवल इन सत्यों को पहचाना, बल्कि इनके प्रयोग की तकनीकें भी विकसित कर लीं। तंत्र विद्या प्रत्येक पदार्थ को ऊर्जा स्रोत के रूप में देखती और मानती है। और इसके व्यावहारिक जीवन में प्रयोग की तकनीकों के अनुसंधान में निरत रहती है।
तंत्र अपने सिद्धान्त एवं प्रयोग में सम्पूर्ण विज्ञान है। जिन्हें इसकी वैज्ञानिकता पर संदेह होता है, उन्हें विज्ञान एवं वैज्ञानिकता की इबारत को नये सिरे से पढ़ना- सीखना चाहिए। सार्थक वैज्ञानिक दृष्टि यह कहती है कि सिद्धान्त की प्रायोगिक पड़ताल किये बगैर उसे नकारा नहीं जाना चाहिए। वैज्ञानिक दृष्टि कोण में किसी आग्रह या मान्यताओं का कोई स्थान नहीं है। यहाँ प्रायोगिक निष्कर्ष ही सब कुछ होते हैं। यहाँ प्रत्यक्षीकरण ही सिद्धान्तों का आधार बनते हैं। जो विज्ञान के दर्शन को स्वीकार करते हैं। तंत्र विद्या उनके लिए नये अनुसंधान क्षेत्र के द्वार उन्मुक्त करती है। उन्हें चुनौती देती है कि आओ, प्रयोग करो और परखो कि सच क्या है? हाँ जो सच मिले उसे स्वीकारने में शरमाना और हिचकिचाना मत। मानवता की भलाई के लिए इनका प्रयोग करना।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 63
👉 Solving Life’s Problems - Part 1
THE PURPOSE OF PROBLEMS is to push you toward obedience to God’s laws, which are exact and cannot be changed. We have the free will to obey them or disobey them. Obedience will bring harmony; disobedience will bring you more problems.
Likewise, when societies get out of harmony, problems develop within the society. Collective problems. Their purpose is to push the whole society toward harmony. Individuals can discover that they can not only grow and learn through individual problem solving, they can learn and grow through collective problem solving. I often say I’ve run out of personal problems; then every once in a while a little one presents itself somewhere. But I hardly recognize it as a problem, because it seems so insignificant. Actually, I want to do all my learning and growing now by helping to solve collective problems.
There was a time when I thought it was a nuisance to be confronted with a problem. I tried to get rid of it. I tried to get somebody else to solve it for me. But that time was long ago. It was a great day in my life when I discovered the wonderful purpose of problems. Yes, they have a wonderful purpose.
Some people wish for a life of no problems, but I would never wish such a life for any of you. What I wish for you is the great inner strength to solve your problems meaningfully and grow. Problems are learning and growing experiences. A life without problems would be a barren existence, without the opportunity for spiritual growth.
To be continued...
📖 From Akhand Jyoti
Likewise, when societies get out of harmony, problems develop within the society. Collective problems. Their purpose is to push the whole society toward harmony. Individuals can discover that they can not only grow and learn through individual problem solving, they can learn and grow through collective problem solving. I often say I’ve run out of personal problems; then every once in a while a little one presents itself somewhere. But I hardly recognize it as a problem, because it seems so insignificant. Actually, I want to do all my learning and growing now by helping to solve collective problems.
There was a time when I thought it was a nuisance to be confronted with a problem. I tried to get rid of it. I tried to get somebody else to solve it for me. But that time was long ago. It was a great day in my life when I discovered the wonderful purpose of problems. Yes, they have a wonderful purpose.
Some people wish for a life of no problems, but I would never wish such a life for any of you. What I wish for you is the great inner strength to solve your problems meaningfully and grow. Problems are learning and growing experiences. A life without problems would be a barren existence, without the opportunity for spiritual growth.
To be continued...
📖 From Akhand Jyoti
👉 Sign of nobility
England’s famous Royal Academy of Arts was being prepared for an art exhibition. Many paintings were shortlisted to be displayed in the show. They hung almost every painting except for one. There was no place left in the gallery to hang it. This painting belonged to a new artist. The committee was deciding to reject the painting. At this time, England’s best artist, Sir Turner, removed one of his paintings and gave that space away for the painting. He said, “I am willing to remove this painting of mine. It’s important that the novices get some appreciation and encouragement for their work too”.
👉 Moments of self-expression 3 Aug 2019
■ ये मोती देख रहे हैं आप शुभ्र, श्वेत, ओजस्वी और इसे ऐसा ही बनाए रखने के लिए क्या कुछ नहीं करते, इसे ऐसे किसी मखमल के वस्त्र में लपेट देते हैं, किसी पिटारी में अच्छे से बंद करके रखते हैं, क्यों? ताकि इन पर खरोंच न आने पाए, ताकि ये मोती टूटे न क्योंकि ये अनमोल हैं। इसी प्रकार है ये दूध। ये दूध फटे न इसलिए हम इसे गरम करके रखते हैं। ग्रीष्म ऋतु में हम इसे शीतल जल में रखते हैं, क्योंकि ये अनमोल है। ये दोनों अनमोल हैं और इसे हम सहेजकर रखते हैं। दूध हमारे तन को और पुष्ट करता है, उसी तन की सुन्दरता बढ़ाते हैं ये मोती। अब मोती और दूध की भाँति होते हैं हमारे अपनों के मन। इन्हें भी हमें सहेजकर रखना चाहिए। इनकी रक्षा भी हमें करनी चाहिए। मीठे वचन, स्नेह, आदरपूर्ण व्यवहार से इन्हें सहेजकर रखें। क्योंकि एक बार जैसे दूध फट जाए तो पुनः उसे ठीक नहीं किया जा सकता, एक बार यदि मोती टूट जाए तो कुछ भी कर लो उसे पुनः जोड़ा नहीं जा सकता, उसी प्रकार एक बार मन में भेद हो जाए तो उसे पुनः पूर्व स्थिति में ले जाना अत्यंत कठिन होता है। मन के मतों में भेद हो सकता है, किन्तु मन में भेद नहीं होना चाहिए। इसलिये अपनों के मन सहेजकर रखें। क्योंकि ये अत्यंत अनमोल होते हैं।
◇ बड़ी ऊँचाईयों पर पहुँचने के लिए हमें किसकी आवश्यकता होती है? अब इसका उत्तर बड़ा ही सरल है सीढ़ियों की। अब इसमें एक गूढ़ रहस्य छिपा है। हम जब तेजी से सीढ़ियों पर चढ़ते हैं, तो क्या किसी को पीछे छोड़ देते हैं? तो क्या उसे देखकर हम उसको हीन समझ लेते हैं?? क्या उसे हीन दृष्टि से देखते हैं? यदि हम किसी को धक्का देकर आगे बढ़ें तो क्या हम उसका उपहास बनाते हैं? यदि आपका उत्तर हाँ है, तो ये बहुत बड़ी भूल है। आप सीढ़ियों में जिनसे भी मिलें, मधुर संबंध बनाए रखियेगा, संयमपूर्वक व्यवहार रखिएगा, विनम्र रहियेगा। क्योंकि जिस सीढ़ी से आप चढ़ रहे हैं, उसी सीढ़ी से पुनः आपको नीचे भी उतरना है। यदि ये सीढ़ी ही ना रही तो? अपनी विजय का उत्सव अवश्य मनाएँ, किन्तु जो पीछे छूट जाएँ उसका उपहास कभी मत करें।
★ जीवन में बहुत सारे लोग धन और बल से मूल्यांकन करते हैं किसी भी व्यक्ति का, स्वयं का भी, दूसरों का भी, पर कई बार इस धन और बल अर्जित करने की इस प्रक्रिया में हम समय, संबंध और स्वास्थ्य को पीछे छोड़ देते हैं, अनदेखा कर देते हैं, सोचते हैं कि एक बार हम धन और बल अर्जित कर लें, उसके पश्चात समय भी हमारे अनुसार चलेगा, संबंध में और मधुरता भी आएगी और स्वास्थ्य भी हमारी मुट्ठी में होगा। किन्तु इस धन के कारण हम इन तीनों को खो देते हैं, तब हमें ज्ञात होता है कि हम कितने निर्धन थे? उसके पश्चात संसार का सारा धन एकत्रित कर लीजिये, फिर भी अपना खोया हुआ समय पुनः नहीं ला सकते, ना वो संबंध, ना वो स्वास्थ्य। इसलिये इन तीनों का मूल्य समझ लीजिये, इससे पहले कि विलंब हो जाए।
◇ पौधे को देखिये कितना कोमल, कितना लचीला, यदि इस पर थोड़ा सा भी दबाव डालें तो यह झुक जाता है। पौधे तो होते ही ऐसे हैं, थोड़ा सा दबाव डालोगे, झुक जाएँगे। इनके लचीलेपन के कारण। किन्तु इनका यही लचीलापन आँधियों में इन्हें टूटने से बचाता है। यदि इनके स्थान पर कोई अकड़े हुए वृक्ष को देखो तो वो पवन की तीव्र गति को वो सहन नहीं कर पाता, उसका सामना नहीं कर पाता, टूटकर गिर जाता है। कुछ इसी प्रकार होते हैं हमारे संबंध भी। यदि इनमें वो लचीलापन ना हो, अभिमान की दृढ़ता हो, तो ये संबंध बिखर जाते हैं। लाइये ये लचीलापन अपने संबंधों में ताकि कल कोई समस्या आए तो ये संबंध टूटे नहीं। तनिक इस आकाश में देखिये सूर्य भी इस चन्द्रमा को देखकर झुक जाता है। हम तो साधारण से मनुष्य हैं? तो संबंध को झुकाना नहीं, संबंध के समक्ष झुकना सीखिये।
◇ बड़ी ऊँचाईयों पर पहुँचने के लिए हमें किसकी आवश्यकता होती है? अब इसका उत्तर बड़ा ही सरल है सीढ़ियों की। अब इसमें एक गूढ़ रहस्य छिपा है। हम जब तेजी से सीढ़ियों पर चढ़ते हैं, तो क्या किसी को पीछे छोड़ देते हैं? तो क्या उसे देखकर हम उसको हीन समझ लेते हैं?? क्या उसे हीन दृष्टि से देखते हैं? यदि हम किसी को धक्का देकर आगे बढ़ें तो क्या हम उसका उपहास बनाते हैं? यदि आपका उत्तर हाँ है, तो ये बहुत बड़ी भूल है। आप सीढ़ियों में जिनसे भी मिलें, मधुर संबंध बनाए रखियेगा, संयमपूर्वक व्यवहार रखिएगा, विनम्र रहियेगा। क्योंकि जिस सीढ़ी से आप चढ़ रहे हैं, उसी सीढ़ी से पुनः आपको नीचे भी उतरना है। यदि ये सीढ़ी ही ना रही तो? अपनी विजय का उत्सव अवश्य मनाएँ, किन्तु जो पीछे छूट जाएँ उसका उपहास कभी मत करें।
★ जीवन में बहुत सारे लोग धन और बल से मूल्यांकन करते हैं किसी भी व्यक्ति का, स्वयं का भी, दूसरों का भी, पर कई बार इस धन और बल अर्जित करने की इस प्रक्रिया में हम समय, संबंध और स्वास्थ्य को पीछे छोड़ देते हैं, अनदेखा कर देते हैं, सोचते हैं कि एक बार हम धन और बल अर्जित कर लें, उसके पश्चात समय भी हमारे अनुसार चलेगा, संबंध में और मधुरता भी आएगी और स्वास्थ्य भी हमारी मुट्ठी में होगा। किन्तु इस धन के कारण हम इन तीनों को खो देते हैं, तब हमें ज्ञात होता है कि हम कितने निर्धन थे? उसके पश्चात संसार का सारा धन एकत्रित कर लीजिये, फिर भी अपना खोया हुआ समय पुनः नहीं ला सकते, ना वो संबंध, ना वो स्वास्थ्य। इसलिये इन तीनों का मूल्य समझ लीजिये, इससे पहले कि विलंब हो जाए।
◇ पौधे को देखिये कितना कोमल, कितना लचीला, यदि इस पर थोड़ा सा भी दबाव डालें तो यह झुक जाता है। पौधे तो होते ही ऐसे हैं, थोड़ा सा दबाव डालोगे, झुक जाएँगे। इनके लचीलेपन के कारण। किन्तु इनका यही लचीलापन आँधियों में इन्हें टूटने से बचाता है। यदि इनके स्थान पर कोई अकड़े हुए वृक्ष को देखो तो वो पवन की तीव्र गति को वो सहन नहीं कर पाता, उसका सामना नहीं कर पाता, टूटकर गिर जाता है। कुछ इसी प्रकार होते हैं हमारे संबंध भी। यदि इनमें वो लचीलापन ना हो, अभिमान की दृढ़ता हो, तो ये संबंध बिखर जाते हैं। लाइये ये लचीलापन अपने संबंधों में ताकि कल कोई समस्या आए तो ये संबंध टूटे नहीं। तनिक इस आकाश में देखिये सूर्य भी इस चन्द्रमा को देखकर झुक जाता है। हम तो साधारण से मनुष्य हैं? तो संबंध को झुकाना नहीं, संबंध के समक्ष झुकना सीखिये।
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