मंगलवार, 8 जून 2021

👉 शरण

एक गरीब आदमी की झोपड़ी पर…रात को जोरों की वर्षा हो रही थी. सज्जन था, छोटी सी झोपड़ी थी . स्वयं और उसकी पत्नी, दोनों सोए थे. आधीरात किसी ने द्वार पर दस्तक दी।

उन सज्जन ने अपनी पत्नी से कहा - उठ! द्वार खोल दे. पत्नी द्वार के करीब सो रही थी . पत्नी ने कहा - इस आधी रात में जगह कहाँ है? कोई अगर शरण माँगेगा तो तुम मना न कर सकोगे?

वर्षा जोर की हो रही है. कोई शरण माँगने के लिए ही द्वार आया होगा न! जगह कहाँ है? उस सज्जन ने कहा - जगह? दो के सोने के लायक तो काफी है, तीन के बैठने के लायक काफी हो जाएगी.   तू दरवाजा खोल!

लेकिन द्वार आए आदमी को वापिस तो नहीं लौटाना है. दरवाजा खोला. कोई शरण ही माँग रहा था. भटक गया था और वर्षा मूसलाधार थी . वह अंदर आ गया . तीनों बैठकर गपशप करने लगे . सोने लायक तो जगह न थी .

थोड़ी देर बाद किसी और आदमी ने दस्तक दी. फिर फकीर ने अपनी पत्नी से कहा - खोल ! पत्नी ने कहा - अब करोगे क्या? जगह कहाँ है? अगर किसी ने शरण माँगी तो?

उस सज्जन ने कहा - अभी बैठने लायक जगह है फिर खड़े रहेंगे . मगर दरवाजा खोल! जरूर कोई मजबूर है . फिर दरवाजा खोला . वह अजनबी भी आ गया . अब वे खड़े होकर बातचीत करने लगे . इतना छोटा झोपड़ा ! और खड़े हुए चार लोग!

और तब अंततः एक कुत्ते ने आकर जोर से आवाज की . दरवाजे को हिलाया . फकीर ने कहा - दरवाजा खोलो . पत्नी ने दरवाजा खोलकर झाँका और कहा - अब तुम पागल हुए हो!

यह कुत्ता है . आदमी भी नहीं! सज्जन बोले - हमने पहले भी आदमियों के कारण दरवाजा नहीं खोला था, अपने हृदय के कारण खोला था!! हमारे लिए कुत्ते और आदमी में क्या फर्क?

हमने मदद के लिए दरवाजा खोला था . उसने भी आवाज दी है . उसने भी द्वार हिलाया है . उसने अपना काम पूरा कर दिया, अब हमें अपना काम करना है . दरवाजा खोलो!

उनकी पत्नी ने कहा - अब तो खड़े होने की भी जगह नहीं है! उसने कहा - अभी हम जरा आराम से खड़े हैं, फिर थोड़े सटकर खड़े होंगे . और एक बात याद रख ! यह कोई अमीर का महल नहीं है कि जिसमें जगह की कमी हो!

यह गरीब का झोपड़ा है, इसमें खूब जगह है!! जगह महलों में और झोपड़ों में नहीं होती, जगह दिलों में होती है!

अक्सर आप पाएँगे कि गरीब कभी कंजूस नहीं होता! उसका दिल बहुत बड़ा होता है!!

कंजूस होने योग्य उसके पास कुछ है ही नहीं . पकड़े तो पकड़े क्या? जैसे जैसे आदमी अमीर होता है, वैसे कंजूस होने लगता है, उसमें मोह बढ़ता है, लोभ बढ़ता है .

जरूरतमंद को अपनी क्षमता अनुसार शरण दीजिए . दिल बड़ा रखकर अपने दिल में औरों के लिए जगह जरूर रखिये .

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग २९)

सुख का केन्द्र और स्रोत आत्मा

ऐसी भयावह स्थिति में संसार का कोई व्यक्ति, कोई आत्मीय और कोई स्वजन सम्बन्धी न तो प्रेम कर सकता है और न स्नेह सौजन्य के सुखद भाव ही प्रदान कर सकता है। यह केवल मनुष्य की अपनी आत्मा ही है, जो उसका सच्चा मित्र, सगा-सम्बन्धी और वास्तविक शक्ति है। इसी के कारण मनुष्य गुणों और विशेषताओं का स्वामी बनकर अपना मूल्य बढ़ाता और पाता है। जीवन में सुख, सौख्य के उत्पादन, अभिवृद्धि और रक्षा के लिये मनुष्य को चाहिये कि वह आत्मा की ही शरण रहे। उसे ही अपना माने, उससे ही प्रेम करे और उसे ही खोजने पाने में अपने जीवन की सार्थकता समझे।

सुख का निवास किसी व्यक्ति, विषय अथवा पदार्थ में नहीं है। उसका निवास आत्मा में ही है। संसार के सारे पदार्थ जड़ और प्रभाव-हीन है। किसी को सुख-दुख देने की उनमें अपनी क्षमता नहीं होती। पदार्थों अथवा विषयों में सुख-दुख का आभास उनके प्रति आत्म-भाव के कारण ही होता है। आत्म-भाव समाप्त हो जाने पर वह अनुभूति भी समाप्त हो जाती है। हमारी आत्मा ही विभिन्न पदार्थों पर अपना प्रभाव डाल कर उन्हें आकर्षक तथा सुखद बनाती है। अन्यथा संसार के सारे विषय, सारी वस्तुयें, सारे पदार्थ और सारे भोग नीरस, निःसार तथा निरुपयोगी हैं। जड़ होने से सभी कुछ कुरूप तथा अग्राह्य है।

जिस पदार्थ के साथ जितने अंशों में अपनी आत्मा घुली-मिली रहती है, उतने ही अंशों में वह पदार्थ प्रिय, सुखदायी और ग्रहणीय बना रहता है और आत्मा का सम्बन्ध जिस पदार्थ से जितना कम होता जाता है, वह उतना ही अपने लिये कुरूप और अप्रिय बनता जाता है। आनन्द और प्रियता का सम्बन्ध पदार्थों से नहीं स्वयं आत्मा से ही होता है। अस्तु, आत्मा को ही प्यार करना चाहिये, उसे ही तेजस्वी और प्रभावशील बनाना चाहिये, जिससे हमारा सम्बन्ध उसी से दृढ़ हो और उसके उपलक्ष से ही संसार में प्रेम और सुख दे सकें। हमारी अपनी आत्मा ही ज्ञान-विज्ञान का केन्द्र है। सुख-शांति का मूल आधार है। उन्नति और समृद्धि का बीज उसी में छिपा है, स्वर्ग और मुक्ति का आधार वही है।
कल्पवृक्ष बाहर नहीं अपनी आत्मा में ही अवस्थित है, आत्मा में ही सब कुछ है और आत्मा स्वयं ही सब कुछ है। उसे ही सर्वस्व और सारे सुखों का मूल और शांति का स्रोत मान कर उसकी उपासना करनी चाहिये। जिसने आत्मा को अपना बना लिया, उसने मानों संसार को अपना बना लिया। जिसने आत्मा को देख लिया, उसने सब कुछ देख लिया और जिसने आत्मा को प्राप्त कर लिया, उसने निश्चय ही सारे सुख, सारे सौख्य और सारे रस, आनन्द एक साथ एक स्थान पर सदा के लिये पा लिये।

आत्मा में केन्द्रित प्रियता को वस्तुओं में खोजना अबुद्धिमत्ता ही है। जड़ पदार्थों में न कुछ सुखद है और न दुखद। इस तथ्य की थोड़ी-सी खोज-बीन करने पर सहज ही जाना जा सकता है और सुख के लिए—प्रिय पात्रता के लिए कस्तूरी मृग की तरह बाहर मारे-मारे फिरने की अपेक्षा अन्तर्मुखी हुआ जा सकता है। तिनके के पीछे ताड़ छिपा होने के इसी आश्चर्य को माया कहा जाता है। माया और कुछ नहीं केवल वह अज्ञान है जो बाहरी-मोटी-सामने की-तात्कालिक बातों को ही देखता है और कुछ गहराई में उतर का वस्तुस्थिति समझने का कष्ट उठाने के लिए तत्पर नहीं होता।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ४६
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग २९)

भक्त के लिए अनिवार्य हैं मर्यादाएँ और संयम

नमस्ते रुद्रमन्यवऽउतोतऽइषवे नमः॥
बाहुभ्यामुतते नमः॥ १॥
यातेरुद्रशिवातनूरघोराऽपापकाशिनी॥
तयानस्तन्वाशन्तमयागिरिशन्ताभिचाकशीहि॥ २॥

दुःख दूर करने वाले हे रूद्र! आपके क्रोध के लिए नमस्कार है, आपके बाणों के लिए नमस्कार है और आपकी दोनों भुजाओं के लिए नमस्कार है॥१॥ गिरिवर कैलाश पर रहकर संसार का कल्याण करने वाले हे रुद्र! आपका जो मंगलदायक, सौम्य, केवल पुण्यप्रकाशक शरीर है, उस अनन्त सुखप्रकाशक शरीर से हमारी ओर देखिए- हमारी रक्षा कीजिए॥२॥ इस वेदवाणी के मधुर मेघमन्द्र स्वरों से ऋषियों एवं देवों ने अपना शिवार्चन सम्पूर्ण करते हुए शिवरात्रि व्रत का पारायण किया।
    
सभी के मन में शिवभक्ति का मधुर गान गूंज रहा था। महर्षि पुलस्त्य ने इन भक्तिमय क्षणों में भक्ति की चर्चा छेड़ दी। वे बोले- ‘‘भक्ति का अर्थ सभी कालों में सार्थक है क्योंकि भावशुद्धि के बिना न तो विचार शुद्ध हो सकते हैं और न जीवन। भविष्य में जब भी मनुष्य की भावनाएँ भटकेंगी, बहकेंगी, उसका सारा जीवन भटकाव एवं बहकाव की डगर पर चल देगा।’’ महर्षि मरीचि उन्हीं के स्वरों में अपने स्वर को घोलते हुए बोले- ‘‘आप यथार्थ कह रहे हैं ऋषिश्रेष्ठ! भावनाओं को भी मर्यादा और संयम के तटबन्ध चाहिए। इनके अभाव में भावनाओं के पतन की आशंका बनी रहती है और यदि भावनाएँ पतित हुईं तो भला जीवन को पतन की डगर पर बढ़ने से कौन रोकेगा।’’ सभी ऋषिगण, सभी देव समुदाय इन दोनों महर्षियों की यह तत्त्वकथा सुन रहा था।
    
तभी नवसृष्टि का सन्देश देने वाले ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की दृष्टि देवर्षि की ओर गयी। वह भावों की गहरी समाधि में लीन थे। महर्षि की दृष्टि ने उन्हें प्रबोध दिया। वह किंचित सचेत हुए और मुस्कराते हुए कहने लगे- ‘‘हे ऋषिगण! मैं अब अपना अगला सूत्र सुनाता हूँ’’-
‘अन्यथा पातित्याशङ्क्या’॥१३॥
अन्यथा पतन की शंका बनी रहती है।
    
इस सूत्र का सत्य एवं मर्म यही है कि शास्त्र मर्यादाएँ एवं संयम के तटबन्ध में भावनाएँ सुरक्षित रहें अन्यथा पतन की आशंका बनी रहती है।

यह बात अनूठी थी परन्तु थोड़ी सी विचित्र एवं विलक्षण भी थी। पहली दृष्टि में कुछ ऐसा लगता था कि भक्ति की अलौकिकता पर मर्यादाओं के लौकिक बांध बांधे जा रहे हैं परन्तु चिन्तन की प्रगाढ़ता एवं गहनता में प्रवेश हो तो सच यही दिखाई देता है कि किसी को परमहंसत्व का स्वांग रचाने की जरूरत नहीं है। जब तक देह का बोध है तब तक मर्यादाएँ माननी ही चाहिए। हाँ! देहबोध ही न रह जाय, मन के द्वन्द्व ही न रहें, अस्तित्त्व ही भगवत्ता में विसर्जित हो जाए, तब की कथा अलग है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ५८

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