मन को सुसंस्कृत बनाया जाना चाहिए। उसे हित-अनहित में- अनौचित्य-औचित्य में अन्तर करना सिखाया जाना चाहिए। अब तक जो ढर्रा चलता रहा है उनमें वह विवेचन विश्लेषण करना उसे सिखाया ही नहीं गया, फिर बेचारा करता क्या? जो समीपवर्ती लोगों से देखता सुनता रहा उसकी बन्दर की तरह नकल और तोते की तरह रटन्त हो जाती है। सुप्रचलन का स्वरूप कभी देखा ही नहीं, सुसंस्कारियों, विचारशीलों के साथ रहा ही नहीं तो उस मार्ग पर चलना कैसे सीखें?
मन की शक्ति अपार है। उसकी सत्ता शरीर और आत्मा को मिलाकर ऐसी बनी है जैसी सीप और स्वाति कण का समन्वय होने से मोती बनता है। जीवन सम्पदा का वही व्यवस्थापक और कोषाध्यक्ष है। साथ ही उसे इतना अधिकार भी प्राप्त है कि वह अपने मित्र को- अपने साधनों को पूरी तरह भला या बुरा उपयोग कर सके। इतने सत्तावान का अनगढ़ होना सचमुच ही एक सिर धुनने लायक दुर्भाग्य है।
“अन्य व्यक्ति को मारने के लिये तलवार ढाल आदि शस्त्रों की आवश्यकता पड़ती है, पर अपने को मारना हो तो एक नहन्नी (नाखून काटने वाली ही काफी होती है। इसी प्रकार जन-समाज को उपदेश देने के लिये मनुष्य को अनेक शास्त्रों के अभ्यास की आवश्यकता पड़ती है, पर यदि स्वयं धर्म प्राप्त करना हो तो केवल एक ही धर्म-वाक्य के ऊपर विश्वास रखकर वैसा किया जा सकता है।”
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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