👉 भौतिकवाद की उलटबाँसियाँ
🔶 जब विष को अमृत की मान्यता मिल जाए और उसे प्राप्त करने के लिए हर किसी को लालायित पाया जाए, तब परिवर्तन अति कठिन पड़ता है। हानि को लाभ समझा जाने लगे और लाभ को गहराई तक समझने में कठिनाई पड़े, उसे हानि समझा जाने लगे तो उल्टी समझ को सीधी करना बहुत कठिन पड़ता है। प्राचीन काल में कम से कम मान्यताएँ तो सही थीं। उठते कदम राजमार्ग को अपनाते थे पर अब तो स्थिति ही कुछ दूसरी बन गई है। भटका हुआ अपने आपको सही मानता और सबको अपने साथ ले चलने का आग्रह करता है। तात्कालिक लाभ सब कुछ बन गया है।
🔷 उसका परिणाम कल या परसों क्या हो सकता है, यह सोचने की किसी को फुरसत नहीं। कुकर्म करने में भी समय, श्रम, साहस और पुरुषार्थ नियोजित करना पड़ता है। बिना हिम्मत के तो चोरी-डकैती करते भी नहीं बन पड़ता। खतरा तो व्यभिचार-अनाचार के लिए उद्यत होने वालों के सामने भी रहता है। उस अनाचार में लगे हुए व्यक्ति भी कम जोखिम नहीं उठाते, फिर भी न जाने क्यों मान्यता यह बन गई है कि सच्चाई का, अच्छाई का रास्ता अपनाने वाले घाटे में रहते हैं। फायदा सिर्फ अनाचारियों को होता है। इस मान्यता के पक्ष में उन्हें अपने इर्द-गिर्द ही ऐसे लोग मिल जाते हैं जो कुकर्म करके हाथों-हाथ नफा कमा लेते हैं।
🔶 इतने दूर तक सोचने की उन्हें आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती कि अनुचित रीति से उठाया हुआ लाभ किस प्रकार दुर्व्यसनों में फँसाता, अपयश का भारी वजन लादता और अन्त में ऐसे दुष्परिणाम उत्पन्न करता है जिससे न केवल अपनों को वरन् साथियों समेत समूचे समुदाय को पतन एवं पराभव के गर्त में गिरना पड़ता है। लगता है कि मृगतृष्णा में भटकने वाले, कस्तूरी की तलाश में दौड़ लगाते रहने वाले हिरन खीज, थकान, निराशा और असमंजस के कारण बेमौत मर रहे हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 10
🔶 जब विष को अमृत की मान्यता मिल जाए और उसे प्राप्त करने के लिए हर किसी को लालायित पाया जाए, तब परिवर्तन अति कठिन पड़ता है। हानि को लाभ समझा जाने लगे और लाभ को गहराई तक समझने में कठिनाई पड़े, उसे हानि समझा जाने लगे तो उल्टी समझ को सीधी करना बहुत कठिन पड़ता है। प्राचीन काल में कम से कम मान्यताएँ तो सही थीं। उठते कदम राजमार्ग को अपनाते थे पर अब तो स्थिति ही कुछ दूसरी बन गई है। भटका हुआ अपने आपको सही मानता और सबको अपने साथ ले चलने का आग्रह करता है। तात्कालिक लाभ सब कुछ बन गया है।
🔷 उसका परिणाम कल या परसों क्या हो सकता है, यह सोचने की किसी को फुरसत नहीं। कुकर्म करने में भी समय, श्रम, साहस और पुरुषार्थ नियोजित करना पड़ता है। बिना हिम्मत के तो चोरी-डकैती करते भी नहीं बन पड़ता। खतरा तो व्यभिचार-अनाचार के लिए उद्यत होने वालों के सामने भी रहता है। उस अनाचार में लगे हुए व्यक्ति भी कम जोखिम नहीं उठाते, फिर भी न जाने क्यों मान्यता यह बन गई है कि सच्चाई का, अच्छाई का रास्ता अपनाने वाले घाटे में रहते हैं। फायदा सिर्फ अनाचारियों को होता है। इस मान्यता के पक्ष में उन्हें अपने इर्द-गिर्द ही ऐसे लोग मिल जाते हैं जो कुकर्म करके हाथों-हाथ नफा कमा लेते हैं।
🔶 इतने दूर तक सोचने की उन्हें आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती कि अनुचित रीति से उठाया हुआ लाभ किस प्रकार दुर्व्यसनों में फँसाता, अपयश का भारी वजन लादता और अन्त में ऐसे दुष्परिणाम उत्पन्न करता है जिससे न केवल अपनों को वरन् साथियों समेत समूचे समुदाय को पतन एवं पराभव के गर्त में गिरना पड़ता है। लगता है कि मृगतृष्णा में भटकने वाले, कस्तूरी की तलाश में दौड़ लगाते रहने वाले हिरन खीज, थकान, निराशा और असमंजस के कारण बेमौत मर रहे हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 10