मंगलवार, 10 जनवरी 2023

👉 अध्यात्मवाद

वर्तमान की समस्त समस्याओं का एक सहज सरल निदान है- ‘अध्यात्मवाद’। यदि शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक जैसे सभी क्षेत्रों में अध्यात्मवाद का समावेश कर लिया जाये, तो समस्त समस्याओं का समाधान साथ-साथ होता चले और आत्मिक प्रगति के लिए अवसर एवं अवकाश भी मिलता रहे। विषयों में सर्वथा भौतिक दृष्टिïकोण रखने से ही सारी समस्याओं का सूत्रपात होता है। दृष्टिïकोण में वांछित परिवर्तन लाते ही सब काम बनने लगेगें।
  
अध्यात्मवाद का व्यावहारिक स्परूप है, संतुलन, व्यवस्था एवं औचित्य। शारीरिक समस्या तब पैदा होती है, जब शरीर को भोग साधन समझ कर बरता जाता है। आहार-विहार और रहन-सहन को विचार परक बना लिया जाता है। इसी अनौचित्य एवं अनियमितता से रोग उत्पन्न होने लगते हैं और स्वास्थ्य समाप्त हो जाता है। विभिन्न शारीरिक समस्याओं का आसानी से हल निकल सकता है, यदि इस संदर्भ में दृष्टिïकोण को आध्यात्मिक बना लिया जाय। पवित्रता अध्यात्मवाद का पहला लक्षण है। यदि शरीर को पूरी तरह पवित्र और स्वच्छ रखा जाय, आत्म संयम और नियमितता द्वारा शरीर धर्म का पालन करते रहा जाय, तो शरीर पूरी तरह स्वस्थ बना रहेगा तथा शारीरिक संकट की संभावना ही न रहेगी। वह सदा स्वस्थ और समर्थ बना रहेगा।
  
शारीरिक स्वास्थ्य की अवनति या बीमारियों की चढ़ाई अपने आप नहीं होती, वरन्ï उसका कारण भी अपनी भूल है। आहार में असावधानी, प्राकृतिक नियमों की उपेक्षा, शक्तियों का अधिक खर्च, स्वास्थ्य में गिरावट के  प्रधान कारण होते हैं। जो लोग अपने स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देते हैं, उसके नियमों का ठीक-ठीक पालन करते हैं, वे सुदृढ़ एवं निरोग बने रहते हैं।
  
मनुष्य का मन शरीर से भी अधिक शक्तिशाली साधन है। इसके निद्र्वन्द रहने पर मनुष्य आश्चर्यजनक उन्नति कर सकता है, किंतु यह खेद का विषय है कि आज लोगों की मनोभूमि बुरी तरह विकारग्रस्त बनी हुई है। चिंता, भय, निराशा, क्षोभ, लोभ एवं आवेगों का भूकंप उसे अस्त-व्यस्त बनाये रखता है। यदि इस प्रचण्ड मानसिक पवित्रता, उदार भावनाओं और मन:शांति का महत्त्व समझ लिया जाय और नि:स्वार्थ, निर्लोभ एवं निर्विकारिता द्वारा उसको सुरक्षित रखने का प्रयत्न कर लिया जाय,  तो मानसिक विकास के क्षेत्र में बहुत दूर तक आगे बढ़ा जा सकता है।
  
सुदृढ़ स्वास्थ्य, समर्थ मन, स्नेह-सहयोग क्रिया-कौशल, समुचित धन, सुदृढ़ दाम्पत्य, ससुंस्कृत संतान, प्रगतिशील विकास क्रम, श्रद्धा, सम्मान, सुव्यवस्थित एवं संतुष्टï जीवन का एकमात्र सुदृढ़ आधार अध्यात्म ही है। आत्म-परिष्कार से संसार परिष्कृत होता चला जाता है। अपने को सुधारने से सारी समस्याओं का समाधान होता चला जाता है। अपने को ठीक कर लेने से आसपास के वातावरण के ठीक बनने में देर नहीं लगती। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि जो अपना सुधार नहीं कर सका, अपनी गतिविधियों को सुव्यवस्थित नहीं कर सका, उसका भविष्य अंधकार मय ही बना रहेगा। इसीलिए मनीषियों ने मनुष्य की सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता उसकी आध्यात्मिक प्रवृत्ति को ही माना है।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 अहंता का परिवर्तन

जैसे कुआँ खोदने पर जमीन में मिट्टियों के कई पर्त निकलते हैं, वैसे ही मनोभूमि की स्थिति है। उनके कार्य, गुण और क्षेत्र भिन्न-भिन्न हैं। ऊपर वाले पर्त- मन और बुद्धि हैं। मन में इच्छाएँ, वासनाएँ, कामनाएँ पैदा होती हैं, बुद्धि का काम विचार करना, मार्ग ढूँढऩा और निर्णय करना है।

स्थूल मन के प्रमुख भाग दो हैं- चित्त, अहंकार। चित्त में संस्कार, आदत, रुचि, स्वभाव, गुण की जड़ें रहती हैं। अहंकार ‘‘अपने सम्बन्ध में मान्यता’’ को कहते हैं। अपने को जो व्यक्ति धनी-दरिद्र, पापी-पुण्यात्मा, स्त्री-पुरुष, जीव-ब्रह्म आदि जैसा भी कुछ मान लेता है, वह वैसे ही अहंकार वाला माना जाता है। आत्मा के अहम् के सम्बन्ध में मान्यता का नाम ही अहंकार है। इन मन, बुद्धि, अहंकार के अनेकों भेद-उपभेद हैं और उनके गुण, कर्म, अलग-अलग हैं।
  
जैसे मन और बुद्धि का जोड़ा है, वैसे ही चित्त और अहंकार का जोड़ा है। मन में नाना प्रकार की इच्छाएँ-कामनाएँ रहती  हैं, पर बुद्धि उनका निर्णय करती है कि कौन-सी इच्छा प्रकट करने योग्य है, कौन-सी दबा देने योग्य है? इसे बुद्धि जानती है और वह सभ्यता, लोकाचार, सामाजिक नियम, धर्म, कत्र्तव्य, असम्भव आदि का ध्यान रखते हुए अनुपयुक्त इच्छाओं को भीतर दबाती रहती है। जो इच्छा कार्य रूप में लाये जाने योग्य जँचती है, उन्हीं के लिये बुद्धि अपना प्रयत्न आरम्भ करती है। इस प्रकार यह दोनों मिलकर मस्तिष्क क्षेत्र में अपना ताना-बाना बुनत रहते हैं।
  
अन्त:करण क्षेत्र में चित्त और अहंकार का जोड़ा अपना कार्य करता है। जीवात्मा अपने को जिस श्रेणी का, जिस स्तर का अनुभव करता है, चित्त में उस श्रेणी के, उसी स्तर के पूर्व संस्कार सक्रिय और परिपुष्ट रहते हैं। कोई व्यक्ति अपने को किसी वर्ग विशेष या समाज के निम्र वर्ग का मानता है, तो उसका यह अहंकार उसके चित्त को उसी जाति के संस्कारों की जड़ जमाने और स्थिर रखने के लिये प्रस्तुत रखेगा। जो गुण, कर्म, स्वभाव इस श्रेणी के लोगों के होते हैं, वे सभी उसके चित्त में संस्कार रूप से जड़ जमाकर बैठ जायेंगे। यदि उसका अहंकार अपराधी या शराबी की मान्यता का परित्याग करके लोकसेवी, महात्मा, सच्चरित्र एवं उच्च होने की अपनी मान्यता स्थिर कर ले, तो अति शीघ्र उसकी पुरानी आदतें, आकांक्षाएँ, अभिलाषाएँ बदल जायेंगी और वह वैसा ही बन जाएगा, जैसा कि अपने सम्बन्ध में उसका विश्वास है। अन्त:करण की एक ही पुकार से, एक ही हुंकार से, एक ही चीत्कार से जमे हुए कुसंस्कार उखड़ कर एक ओर गिर पड़ते हैं और उनके स्थान पर नये, उपयुक्त, आवश्यक, अनुरूप संस्कार कुछ ही समय में जम जाते हैं। जो कार्य मन और बुद्धि द्वारा अत्यन्त कष्ट-साध्य मालूम पड़ता था, वह अहंकार परिवर्तन की एक चुटकी में ठीक हो जाता है।
  
अहंकार तक सीधी पहुँच साधना के अतिरिक्त और किसी मार्ग से नहीं हो सकती। मन और बुद्धि को शान्त, मूर्छित अवस्था में छोडक़र सीधे अहंकार तक प्रवेश पाना ही साधना का उद्देश्य है। गायत्री साधना का विधान भी इसी प्रकार का है। उसका सीधा प्रभाव अहंकार पर पड़ता है। ‘‘मैं ब्राह्मी शक्ति का आधार हूँ, ईश्वरीय स्फुरणा गायत्री मेरे रोम-रोम में ओतप्रोत हो रही है, मैं उसे अधिकाधिक मात्रा में अपने अन्दर धारण करके ब्राह्मी-भूत हो रहा हूँ।’’ यह मान्यताएँ मानवीय अहंकार को पाशविक स्तर से बहुत ऊँचा उठा ले जाती हैं और उसे देवभाव में अवस्थित करती हैं। गायत्री साधना अपने साधक को दैवी आत्म-विश्वास, ईश्वरीय अहंकार प्रदान करती है और वह कुछ ही समय में वस्तुत: वैसा ही हो जाता है। जिस स्तर पर उसकी आत्म-मान्यता है, उसी स्तर पर चित्त-प्रवृत्तियाँ रहेंगी। वैसी आदतें, इच्छाएँ, रुचियाँ, प्रवृत्तियाँ क्रियाएँ उसमें दीख पड़ेंगी। जो दिव्य मान्यता से ओत-प्रोत है- निश्चय ही उसकी इच्छाएँ, आदतें और क्रियाएँ वैसी ही होंगी। यह साधना प्रक्रिया मानव अन्त:करण का कायाकल्प कर देती है।

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...