🌹 मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनाएँगे, तो युग अवश्य बदलेगा
🔴 नव-रात्रियों में हम हर साल नव दुर्गाओं की पूजा करते हैं, मानते हैं कि अनेक ऋद्धि-सिद्धियाँ प्रदान करती हैं। सुख-सुविधाओं की उपलब्धि के लिए उनकी कृपा और सहायता पाने के लिए विविध साधना व पूजन किए जाते हैं। जिस प्रकार देवलोकवासिनी नव दुर्गाएँ हैं, उसी प्रकार भू-लोक में निवास करने वाली, हमारे अत्यंत समीप, शरीर और मस्तिष्क में ही रहने वाली नौ प्रत्यक्ष देवियाँ भी हैं और उनकी साधना का प्रत्यक्ष परिणाम भी मिलता है। देवलोकवासिनी देवियों के प्रसन्न होने और न होने की बात तो संदिग्ध हो सकती है, पर शरीर-लोक में रहने वाली नौ देवियों की साधना का श्रम कभी भी व्यर्थ नहीं जा सकता। यदि थोड़ा भी प्रयत्न इनकी साधना के लिए किया जाए, उसका भी समुचित लाभ मिल जाता है। हमारे मनःक्षेत्र में विचरण करने वाली इन नौ देवियों के नाम हैं।
🔵 (१) आकांक्षा, (२) विचारणा, (३) भावना, (४) श्रद्धा, (५) प्रवृत्ति, (६) निष्ठा, (७) क्षमता, (८) क्रिया, (९) मर्यादा। इनको संतुलित करके मनुष्य अष्ट सिद्धियों और नव निद्धियों को स्वामी बन सकता है। संसार के प्रत्येक प्रगतिशील मनुष्य को जाने या अनजाने में इनकी साधना करनी ही पड़ी है और इन्हीं के अनुग्रह से उन्हें उन्नति के उच्चशिखर पर चढ़ने का अवसर मिला है।
🔴 अपने को उत्कृष्ट बनाने का प्रयत्न किया जाए, तो हमारे संपर्क में आने वाले दूसरे लोग भी श्रेष्ठ बन सकते हैं। आदर्श सदा कुछ ऊँचा रहता है और उसकी प्रतिक्रिया कुछ नीची रह जाती है। आदर्श का प्रतिष्ठापन करने वालों को सामान्य जनता के स्तर से सदा ऊँचा रहना पड़ा है। संसार को हम जितना अच्छा बनाना और देखना चाहते हैं, उसकी अपेक्षा स्वयं को कहीं ऊँचा बनाने का आदर्श उपस्थित करना पड़ेगा। उत्कृष्टता ही श्रेष्ठता उत्पन्न कर सकती है। परिपक्व शरीर की माता ही स्वस्थ बच्चे का प्रसव करती है। आदर्श पिता बनें, तब ही सुसंतति का सौभाग्य प्राप्त कर सकेंगे। आदर्श पिता बनें, तब ही सुसंतति का सौभाग्य प्राप्त कर सकेंगे।
🔵 यदि आदर्श पति हों, तो ही पतिव्रता पत्नी की सेवा प्राप्त कर सकेंगे। शरीर की अपेक्षा छाया कुछ कुरूप ही रह जाती है। चेहरे की अपेक्षा फोटो में कुछ न्यूनतम ही रहती है। हम अपने आपको जिस स्तर तक विकसित कर सके होंगे, हमारे समीपवर्ती लोग उससे प्रभावित होकर कुछ ऊपर तो उठेंगे, तो भी हमारी अपेक्षा कुछ नीच रह जाएँगे। इसलिए हम दूसरे से जितनी सज्जनता और श्रेष्ठता की आशा करते हों, उसकी तुलना में अपने को कुछ अधिक ही ऊँचा प्रमाणित करना होगा। हमें निश्चित रूप से यह याद रखे रहना होगा कि उत्कृष्टता के बिना श्रेष्ठता उत्पन्न नहीं हो सकती।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य