आत्मसाक्षात्कार का साधन जप
गुरुदेव बताया करते थे कि स्वामी सर्वानन्द पर माँ गायत्री की महती कृपा थी। वे सदा-सर्वदा माँ के आँचल की छाया में रहते थे। हालाँकि बचपन में इनकी ऐसी स्थिति न थी। ये शारीरिक रूप से दुर्बल एवं बीमार रहा सकते थे। पिता इनके जन्म के साथ ही परलोक सिधार गए थे। माँ पर पालन-पोषण का सम्पूर्ण बोझ था। घर में आय का कोई विशेष साधन न था। इसी वजह से माँ इनका ठीक से इलाज भी न करा पाती थी। बचपन में एक महात्मा इनके घर आए। उन्होंने इनकी दुर्दशा देखी। ये बिछौने में लेटे हुए अपनी मृत्यु का इन्तजार किया करते थे। और माँ शोकाकुल हो आँसू बहाया करती थी। जिन्दगी में सब ओर अँधेरा था। कहीं से कोई आशा की किरण नहीं दिखाई देती थी।
ऐसे में किसी पूर्वकर्मों के संयोग से एक महात्मा इनके घर आए। उन्होंने घर की दुर्दशा देखी। और कृपापूर्वक इनकी माँ को गायत्री महामंत्र बताया। बालक सर्वानन्द को भी उन्होंने गायत्री महामंत्र सिखाया, और बोले- बेटा, तुम इसे जपा करो। इस महामंत्र के स्वरों में तुम जगन्माता भगवती आदिशक्ति गायत्री को पुकारो। पर महाराज यह बालक तो स्नानादि कुछ नहीं कर पाएगा। ‘मानसे तु नियम नास्ति’ मानसिक जप में कोई नियम नहीं है बेटी! महात्मा जी ने शास्त्र वचन समझाते हुए उनसे कहा- माँ को पुकारने के लिए कोई नियम नहीं है। तुम तो बस पूरी विकलता से पुकारो। जब माँ तुम्हें ठीक कर दे, तब तुम विधि सहित नियम पूर्वक उनकी आराधना करना।
क्या मेरा बच्चा ठीक हो जाएगा महाराज? माँ के इस सवाल पर वे महात्मा हँसे और बोले- जो हमने कहा है, उसे करके देख लो। तुम्हें स्वयं पता चल जाएगा। महात्मा जी के उपदेशानुसार इस छः वर्षीय बालक ने गायत्री महामंत्र का मानसिक जप प्रारम्भ किया। उसके दिन-रात अब गायत्री की रटन में बीतने लगे। महामंत्र की दार्शनिक व्याख्या उसे भले ही मालूम न थी, पर उसकी श्रद्धा में कमी न थी। वह तो बस अपनी माँ को पुकार रहा था। पुकारते हुए उसे छः वर्ष बीत गए। चार वर्षों तक कुछ खास पता न चला। पर छः साल बाद तो वह भला चंगा हो गया।
तेरह वर्ष की आयु में उसका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। फिर तो गायत्री की सविधि उपासना उसका जीवन बन गयी। चौबीस वर्षों में उसने चौबीस पुरश्चरण कर डाले। इसी बीच उसकी माँ का देहावसान हो गया था। चौबीस पुरश्चरणों की पूर्णाहुति के रूप में उसने संन्यास ले लिया। और उसका नाम हो गया स्वामी सर्वानन्द। हिमालय यात्रा के समय जब गुरुदेव से इनकी मुलाकात हुई, तो उन्होंने अपने जीवन का सच बताते हुए गुरुदेव से कहा- आचार्य जी! साधक को केवल भक्तिपूर्वक जप करना पड़ता है। बाकी उसके जीवन के सभी कार्य जप स्वयं कर देता है। इससे जीवन के आन्तरिक एवं बाहरी विघ्न स्वयं ही समाप्त हो जाती है। जप से उसकी सभी इच्छाएँ स्वयं ही पूरी होती रहती हैं।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ११६
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या