👉 विज्ञान और प्रत्यक्षवाद ने क्या सचमुच हमें सुखी बनाया है?
🔷 समय का बदलाव, वैज्ञानिक उपलब्धियों तक, तर्क के आधार पर, प्रदर्शन करने के रूप में जब लाभदायक प्रतीत होता है तो उसके स्थान पर तप, संयम, परमार्थ जैसी उन मान्यताओं को क्यों स्वीकार कर लिया जाए, जो आस्तिकता, आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता की दृष्टि से कितनी ही सराही क्यों न जाती हो, पर तात्कालिक लाभ की कसौटी पर उनके कारण घाटे में ही रहना पड़ता है।
🔶 नए समय के नए तर्क, अपराधियों-स्वेच्छाचारियों से लेकर हवा के साथ बहने वाले मनीषियों तक को समान रूप से अनुकूल पड़ते हैं और मान्यता के रूप में अंगीकार करने में भी सुविधाजनक प्रतीत होते हैं, तो हर कोई उसी को स्वीकार क्यों न करे? उसी दिशा में क्यों न चलें? मनीषी नीत्से ने दृढ़तापूर्वक घोषणा की है कि ‘‘तर्क के इस युग में पुरानी मान्यताओं पर आधारित ईश्वर मर चुका। अब उसे इतना गहरा दफना दिया गया है कि भविष्य में कभी उसके जीवित होने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।’’ धर्म के सम्बन्ध में भी प्रत्यक्षवादी बौद्धिक बहुमत ने यही कहा है कि वह अफीम की गोली भर है, जो पिछड़ों को त्रास सहते रहने और विपन्नता के विरुद्ध मुँह न खोलने के लिए बाधित करता है, साथ ही वह अनाचारियों को निर्भय बनाता है ताकि लोक में अपनी चतुरता और समर्थता के बल पर वे उन कार्यों को करते रहें, जिन्हें अन्याय कहा जाता है।
🔷 परलोक का प्रश्न यदि आड़े आता हो तो वहाँ से बच निकलना और भी सरल है। किसी देवी-देवता की पूजा-पत्री कर देने या धार्मिक कर्मकाण्ड का सस्ता-सा आडम्बर बना देने भर से पाप-कर्मों के दण्ड से सहज छुटकारा मिल जाता है। जब इतने सस्ते में तथाकथित पापों की प्रतिक्रिया से बचा जा सकता है तो रास्ता बिल्कुल साफ है। मौज से मनमानी करते रहा जा सकता है और उससे कोई कठोर प्रतिफल की आशंका हो तो पूजा-पाठ के सस्ते से खेल-खिलवाड़ करने से वह आशंका भी निरस्त हो सकती है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 5
🔷 समय का बदलाव, वैज्ञानिक उपलब्धियों तक, तर्क के आधार पर, प्रदर्शन करने के रूप में जब लाभदायक प्रतीत होता है तो उसके स्थान पर तप, संयम, परमार्थ जैसी उन मान्यताओं को क्यों स्वीकार कर लिया जाए, जो आस्तिकता, आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता की दृष्टि से कितनी ही सराही क्यों न जाती हो, पर तात्कालिक लाभ की कसौटी पर उनके कारण घाटे में ही रहना पड़ता है।
🔶 नए समय के नए तर्क, अपराधियों-स्वेच्छाचारियों से लेकर हवा के साथ बहने वाले मनीषियों तक को समान रूप से अनुकूल पड़ते हैं और मान्यता के रूप में अंगीकार करने में भी सुविधाजनक प्रतीत होते हैं, तो हर कोई उसी को स्वीकार क्यों न करे? उसी दिशा में क्यों न चलें? मनीषी नीत्से ने दृढ़तापूर्वक घोषणा की है कि ‘‘तर्क के इस युग में पुरानी मान्यताओं पर आधारित ईश्वर मर चुका। अब उसे इतना गहरा दफना दिया गया है कि भविष्य में कभी उसके जीवित होने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।’’ धर्म के सम्बन्ध में भी प्रत्यक्षवादी बौद्धिक बहुमत ने यही कहा है कि वह अफीम की गोली भर है, जो पिछड़ों को त्रास सहते रहने और विपन्नता के विरुद्ध मुँह न खोलने के लिए बाधित करता है, साथ ही वह अनाचारियों को निर्भय बनाता है ताकि लोक में अपनी चतुरता और समर्थता के बल पर वे उन कार्यों को करते रहें, जिन्हें अन्याय कहा जाता है।
🔷 परलोक का प्रश्न यदि आड़े आता हो तो वहाँ से बच निकलना और भी सरल है। किसी देवी-देवता की पूजा-पत्री कर देने या धार्मिक कर्मकाण्ड का सस्ता-सा आडम्बर बना देने भर से पाप-कर्मों के दण्ड से सहज छुटकारा मिल जाता है। जब इतने सस्ते में तथाकथित पापों की प्रतिक्रिया से बचा जा सकता है तो रास्ता बिल्कुल साफ है। मौज से मनमानी करते रहा जा सकता है और उससे कोई कठोर प्रतिफल की आशंका हो तो पूजा-पाठ के सस्ते से खेल-खिलवाड़ करने से वह आशंका भी निरस्त हो सकती है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 5